बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

meghdoot by m m panday tikamgarh

m.m. panday tikamgarh

            मेधदूत

पं. मनमोहन पाण्डे टीकमगढ़ 

स्तवन
दोहा
(1)
काली माँ जगदम्ब के युगल चरण सिर नाय
षब्द-सुमन कर -कर चयन, रचना ललित बनाय।
कलित ललित साहित्य हित, मधुरिम कृति अपनाय।
कालिदास रचना करी, मेघ दूत मन लाय
था कुबेर षंकर का सेवक अलका पति था यक्ष पती,
करता था अभिशेक स्वर्ण कमलों से नित प्रति षुद्व मति,
यक्ष पुश्प लाता था प्रतिदिन, एक सहस गिन स्वर्ण कमल,
निष्चित समय सही संख्या नित बिना चूक थी बुद्वि विमल
बीते वर्श अनेकों सेवक बिना भूल सेवा करता
स्वामी की सेवा सत चित से भाव सहित मन से करता
उपजी कुमति एक दिन मन में प्रिया रूप लख मुग्ध हुआ
एक पुश्प दे दिया प्रिया को गिनती कर नृप कुद्व हुआ
दिया श्राप दारूण कुबेर ने दूर हुआ निज पत्नी से
देष निकाला दिया यक्ष को गिरा भूमी पर सुरपूर से
दण्डक वन में सीता पति ने एक पर्वत पे वास किया
हुआ राम गिर नाम यक्ष ने पावन जान निवास किया
जब आशाढ़ मास में तबं सर्वप्रथम बादल आया
कुषल संदेषा पत्नी के डि़ंग तभी यक्ष ने पहुॅचाया
हिमगिरि के अंचल बसी अलका पुरी सुभाय
नृप कुबेर नगराधिपति, यक्ष पती कहलाय
राजा के उ़द्यान का, रखवाला था एक
काम भावना-ग्रसित हो नारि- प्रेम आवेग
उपवन रक्षा- त्याग कर, कामिनी  अंग लगाय
उज़ड़ गया उपवन तभी, रूश्ट भये नृपराय
अलका नगरी से उसे धरती दिया पठाय
दूर प्रेमिका से किया, एक वर्श अलगाय
दक्षिण भारत में रहो, नाम, राम गिरि एक
कटे पत्र सा गिर पड़ा, गृह वैदेही देख
सघन वृक्ष अति रम्य वन अतिषय षीतल कुंज
दुग्ध हृदय षीतल भयो जनु आषा कौ पुंज ।
(2)
प्रिया विरह में यक्ष का दुर्बल हुआ षरीर
कंगन निकले हाथ से, मन में बाढ़ी पीर
मइना बीते आठ, साल के आन लगौ चैमासौै
बादर उमड़  परो परवत पै, हाँती जैसौ खासौ
कारौ कारौ रूप भयानक गरज गरज चिंघारौ
सेत सेत दाॅतन से पर्वत रओ ढकेल मतवारौ।
(3)
जबइ यक्ष ने बादर देखो याद प्रिया की आई
डूब गयौ दुख के सागर मे मन व्याकुलता छाई
आँखन में असुॅआ भर आये पै निकरन ना पाये
अॅसुवा जर गये भीतर भीतर मन में दुःख समाये
इक टक देखरऔ दुखियारौऊ  असाड़ को बादर
आगी सी लग गई हिये में प्यारी तिरिया है घर
भौत दिनन से बिछरन पर गई मन में उठरई पीरा
छाले पर गये है उॅगरन में दिना गिनत मति धीरा

(4)
मन में उठे विचार यक्ष कें, मेरी प्रिया विचारी
जली जा रही मन ही मन में, विरह अगन की भारी
भिजा सॅदेषा दऊँ प्रिया खाँई बदरा के हाॅतन
बच जायैगी मरत-मरत सें, सुनै सॅदेसौ बातन
चुन लये थोरे फूल यक्ष ने, बादर के आदर खाॅ ।......................
(5)
सोसन लगो यक्ष मन ही मन, जौ  पानी को पुतरा
कैसैं कै है खबर हमाई, बिना अक्ल को सिधरा
बदरा से भिजवाऊँ सनेसौ , ठानी ऊने मन मे
जड़ चेतन में बसै प्रिया आकाष धरन कनकन में ।
(6)
कई जक्ष ने गिगया गिगया ओरे बादर भइया
आवर्तक कुल के कुलीन तुम, इन्द्र देव की गइया
मन के माफिक रूप बना के धरा प्यास हरत हौ
प्यासे अधर चूमते, ठंडे, तपे ओंठ करते हौे।
भीक माॅग रओ व्याकुल विरही ,मोरी प्रिया विचारी
तलप रई अलका नगरी में,विनती सुनौ हमारी।
(7)
कर देते हो षान्त तपी गरमी की  भीशण ज्वाला
जला रही है ग्रीश्म दुपहरी  मन की विरही ज्वाला
षापग्रस्त हूॅ षाप-मुक्त हो जाऊँ  मुझ को  वर दो
बन कर दूत सॅदेषा देदो मुझपर किरपा कर दो
अलका नगरी जाकर भाई मेरी प्रिया पास जाओ
मेरा यह सँदेष सुना दोे, यही कृपा तुम कर जाओ
सुन्दर अलका पुरी स्वर्ग से, यक्षों की रजधानी है
ऊँचे-ऊँचे भवन चमकते ,ज्यों चाॅदी की घानी है।
बीच यह कैलाष मिलेगा करना महादेव दर्षन
आकर्शण भारी दर्षन का ,मेरा कार्य बनै साधन ।
(8)
फैला करके पंख गगन में जब तू उड़ता होगा
वियोगिनी बालाओं को तू मारग मे लखता होगा
फूले षुभ्र कपोलों से निज बिखरे बाल हटाकर
तुझे देखकर सोच रही होंगी मन मे हर्शाकर
घिर आये है मेघ गगन पर देख प्रवासी प्रीतम
लौट रहें होंगे निज घर को प्रिया मिलन को तत्क्षण
किन्तु अभागा  ग्रस्त षापवष जा न सकूगाॅ घर को
दे सँंदेष धीरज देना तुम दुखी प्रिया विरही को।
(9)
उत्तर दिषि की ओर पवन भी साथ दे रहा तेरा
मधुर स्वरों में कूक दे रहा बाम भाग पिक फेरा
सुन्दर प्रातः काल कह रहा, उड़ो इन्द्र केे घोडे़
तेरे संग उड रहे हंसा ष्वेत वरन के जोड़े
मानो नील वक्ष पर षोभित है मरकत- माणि -माला
काम -पुरूश सँग प्रेरित कामिनियों ने घेरा डाला।
(10)
तोतों का यह झुण्ड गगन पर मंगल भाव जगाता
तेरी राह सफल हो ऐसा  सुन्दर षगुन बताता
बॅधी आस यह मेरे मन में प्रिया मिलेगी तुझको
चिन्तन करती नित्य अकेले प्रेम भाव से मुझ को
मिलने की आषा लेकर वह म नही मन खुष होती
तुम्हें देखकर दग्ध-हृदय मे आषा मिलन संजोती
फूल सदृष ही हृदय नारिका विरह ताप झुलसाता
आषा का संचार तेरे दर्षन से धीर बाँधता।
(11)
अरे मेघ ! तेरा गर्जन है सबका मन हर्शाता
किन्तु मुझे प्रिय नहीं- प्रियतमा की है याद दिलाता
वक्ष फूल उठता धरती का तेरा गर्जन सुनकर
फूल-फलों मिस दर्षन देता है जगती को सुखकर
गगन विहारी मुक्त भाव से सुनकर तेरी वानी
मान सरोवर को चल देंगे युगल हंस अभिमानी
कोमल कमल कली को खाकर तेरे साथ चलेंगे
जायेंगें कैलाष श्रृंगतक संबल नेह बनेंगे।
(12)
षैल रामगिरि अनुचर प्रभु का अंकित है पद रेखा
तेरा हेै यह मित्र भेंट ले दे आलिंगन चोखा
करना गमन रामगिरि से जब भेंट अनुज्ञा लेना
विरह ष्वास यह ऊश्म छोड़ता चिर विछोद अब होना ।
(13)
वर्शा कारण प्यास लगे तन थके धीर मत खोना
पथ - झरनों का जल पीकर भर  लेना तन का कोना
लेकर के विश्राम थकन को मिटा सॅभल कर चलना
भर-भर के उत्साह हृदय में तुम आगे को बढना ।


(14)
सिद्धों की सुन्दरियाॅ विस्मित होंगी तुझको लखकर
नील गगन मे तुझे देखकर मन ही मन मेें डरकर
सोच रही हैे तुझ पर्वत को लाया पवन उड़ाकर
गिर न पड़ें उन सुन्दरियों पर देख रहीं चकराकर
विस्फारित नयनों से देखेंगीं तुझको बालायें
बनना है मेहमान तुझे तू कर प्रयाण दिषि बायंे
दर्प दमन कर दिग्पालों का उत्तर दिषि के वासी
हरता ताप सभी का बनजा. अलका पुरी प्रवासी ।
(15)
इन्द्र धनुश रत्नोें की आभा लेकर सम्मुख आया
अग्र भाग बल्मीकि षिखर का चमक रहा मन भाया
तेरी सुन्दर ष्यामल छवि जब इन्द्र धनुश से मिलती
मानो मोर पंख सिर धारे मोहन छवि है खिलती ।
(16)
आयेगा जब देष मालबा ग्राम्य वधू कृशोंकी की
भोली भाली छवि सहित छल छद्म रहित नयनों की
बड़े प्रेम से तुझे निरख कर देंगी आदर तुझको
तेरा रूप रंग रस पीकर अतिथि वरेंगी तुझको
भोली भाली चितवन का तू अमृत जी भर पीना
बरसा कर जल जुती भूमि पर फिर आगे पग देना।




(17)
आम्र कूट पर्वत कुछ आगे जाकर दिख जायेगा
गरमी से जल जल कर तुझसे षीतलता पायेगा
धारण कर लेगा माथे पर न्यौछावर जायेगा
कर कर के सत्कार तुम्हारा जन्म सफल पायेगा
अपना हित पहचान दुश्ट जन मन से स्वागत करते
फिर तो गिरि है उच्च मनस्वी पलक पाॅवड़े धरते ।
(18)
भरा हुआ आमों से पर्वत आम्र कूट कहलाता
षोभित होगा पके फलों से स्वर्ण सदृष दिखलाता
आम्र कूट पर्वत- जाकर तू षोभित होगा ऐसे
धरती के उन्नत उरोज हों उभरे उभरे जैसे
पर्वत पर चढ कर वेणी सा लगता तू मन भाया
पीत-वरन है सुन्दर सुन्दर बीच में काली छाया
फैला चारांे ओर सुषोभित पीत वरन उजियारा
मध्य भाग का स्तन का जैसे दीप तले अॅधियारा ।़
(19)
आसन दे सत्कार करेगा मन मे आदर भरकर
आम्र कूट पर पहुंचेगा तू जब यात्रा से थककर
करना तुम विश्राम मुदित हो गिरि पर जल बरसाना
हर लेना गरमी कण-कण की श्रम का भार चुकाना
सेवा के बदले जो सज्जन पा जाते फल मेवा
पाकर के सत्कार बनोगे सचमुच तुम नभ देवा।


(20)
आम्रकूट पर्वत कुंजों मे वनचर वधुऐं खेली
कुछ क्षण रूक कर ताजे होकर रिमझिम करना केली
तपन षान्त करना कुंजो की जल का भार घटेगा
पथ आसान बनेगा मन में प्रीति पुंज प्रगटेगा
नीचे दृश्टि पड़ेगी मैकल सुता दृश्टि आयेगी
टेढ़ी मेढ़ी ऊँची नीची बहती दिख जायेगी
यैसा दृष्य दिखेगा जैसे कृश्ण वरन हाथी की
वृहत देह पर ष्वेत बरन रेखाये बलखाती सी ।
(21)
वारिद जल बरसा कर देना अर्घतरणि को
नर्मद-जल से करो आचमन कर पवित्र तन मन को
तीर नर्मदा का वनचारी हस्ती-म़द्द -सुवासित
सघन वृक्ष जम्बू के देते छाँह गोद आच्छादित
पी लेना जल तृप्ति मिलेगी बल होगा मन माना
कर न सकेगा छल तुझसे फिर पवन दुश्ट अनजाना
षक्ति षौर्य से पूर्व व्यक्ति का जीवन पुश्प खिलेगा
जो दुर्बल परिŸयक्त व्यक्ति हैं उनको जगत छलेगा।
(22)
मित्र बनेगे हंसा तेरे ओ जल के संवाहक
होगें वे उन्मत्त अनांदित होंगे पंथ प्रदर्षक
नम की छाती पर लुढ़केगें महामुदित मन होकर
सुन लेगे बाते कलियों की सुमन कदंब सॅजोकर
सोंधी -सांेधी बास धरनि को सूंघ हुए मतवाले
राह दिखायेंगे प्रभुदित हो राज हंस नम वाले
जहाॅ जहाॅ से जाओगे तुम जल बरसाते अपना
तपती भूम झूम जायेगी हरी षाठिका पहना।
(23)
तेरी सुखद यात्रा, अवनी-अंबर को सुख देगी
जलचर थलचर नभचर की आषा बेली महकेगी
बरस-बरस से आस लगाये प्यासा त्रस्त पपीहा
बूँद-बूँद पीने की आषा लिये जिये अन चीहा
सारस के दलसंग उडें़गे तुझसे जीवन पाकर
तेरे स्वर से सुरबाला लिपटें प्रियतम से डरकर
होंगे सुर कृतज्ञ तेरे इस अनुपम सुख को पाकर
धन्यवाद तुझको देंगे वे मुदित हृदय से आकर।
(24)
तेरे मृदु गर्जन को सुन नाचे मयूर मतवाले
बेसुध होकर झूम-झूम कर करते षब्द निराले
उनकी प्रेममयी वाणी को सुनकर रूक मत जाना
प्राण गँवा ना सके प्रिया उसको सन्देष सुनाना ।
(25)
रम्य देष विदिषा का अनुपम यह धसान सरिता है
हैं अनेक उद्यान यहाँ पर फूली लता लता है
डाल-डाल पर आम्रकुंज मे गाॅव-गाॅव पर घाटो में
बोल रहे खगवृन्द मुदित हो घर बाहर वन बाटों में
जम्बु वृक्ष पर ललित गुच्छ छवि मनको हर लेती है।
ष्यामल वन छवि स्वच्छ जलाषय अनुपम छवि देती है।


(26)
विदिषा नगरी है इस रजधानी दषार्ण प्रांतर की
बहा रहे रसधार रसिकगण कहे धार अंतर की
वहाॅ पहुचॅकर निरखेगा तू उस सुंदर नगरी को
रस की धार बहाती सरिता अनुपम बेगवती को
इठलाती- बलखाती सरिता बहती अविरल गति से
ज्यों प्रेमी बढता चुंबन को प्रणय रिवष उन्मति से।
(27)
नीचे पर्वत विदिषा के विश्राम वहाँ कर लेना
नया षौर्य उर नया षौक अपने मन में भर लेना
तेरे छूने से कदंब के फूल हुए रोमांचित
तू भॅवरा कलिका कंदब ज्यों पुलकित है आषान्वित।
(28)
कर लेना विश्राम नीलगिरि की चोटी पर
गिरि सरिता तट मुकुलित कलियों पुश्पों पर
कर देना तुम दृश्टि अमिय बन बागों पर
करती पुश्प चयन मालिन बह श्रम सी
बहते श्रम कण स्वेद पोंछती वह थककर
मुरझांते है कर्ण फूल तुझको छूकर
मतयौवना रूपसि सी पुलकित होकर
राधासी साॅवरिया को बाहों मे भर
उस रस वन्ती चितवन का रसपान किये बिन
उचित नही होेंगा बढ़ जाना रूकना कुछ छिन ।


(29)
जाना तुझको है ऊपर की ओर छोर पष्चिम मंे
है उज्जयिनी नगरी पावन भारत के पष्चिम में
परिचय पाये बिना नही तू आगे को बढ़ जाना
सुन्दरियों के छवि समुद्र में खोकर गोते खाना
मत यौवना सुन्दरियों की चंचल चितवन
इनके काम-कटाक्ष कोर की मार सहे बिन
आगे बढ़कर उचित नहीं यात्रा पर जाना
जीवन का आनंद भोग चित स्वस्थ बनाना।
(30)
विन्ध्याचल से निकली है निर्विन्ध्या सरिता
बलखाती आगे बढ़ती ज्यों रूपासक्ता
कल कल की ध्वनि कंगन की झनकार बताती
खोज रही है प्रीतम को षंकित  बालासी
कर लेना रस पान मधुर उस प्रेममयी बालाका
भ्रू संचालन कह देता सब उसकी  काम कला को
नेन नचाकर कह देती है सब कुछ बाते प्रिय से
नहीं बोलने की आवष्यकता उसकेा अपने मुख से ।
(31)
निर्विन्धा सरिता तेरे बिन सॅकरी धार  बनी है
कोई विरहीणी बाला जैसे पति विहीन रमणी हैं
जल अभाव में वृक्ष सूखकर पीले पत्ते डा़ले
तिरते है सरिता के जल में दुख वृक्षों का पाले
जल विहीन सरिता पर तोयद् इतना जल बरसाना
मिट जाये जब ताप मिले सौभाग्य दीप का दाना।
(32)
उज्जयिनी से उड़कर जाना मालव की धरती पर
नाम अवन्ति प्रदेष वीर उदयन बाॅका धरनीधर
नगर बसाया था उज्ययिनी इसी वीर ने आकर
रस गगरी है षोभा षील गुणों की है छवि आकर
धरती पर आ गये देव उज्ययिनी नगरी
जला प्रेम के दीप स्वर्ग से नगरी उतरी ।
(33)
सुरभित मंद पवन बहता सरिता क्षिप्रा के तट पर
नगरी उज्जयिनी की षोभा छिप्रा है अति सुन्दर
कमलों के फूलों से बहती वायु पराग भरी है
तट पर बैठी सारसनी  की बोली  विरह भरी है
परिरम्भ्ण  से थकित कामिनी का श्रम हरता छूकर
जैसे प्रेमी फुसलाता है इतर गंध मधुरे स्वर।
(34)
रिक्त हुआ है रत्नाकर मोती सीपी मणियों से
ढेर लगे हैं उज्ययिनी की हाटों में रत्नों के
यैसा लगता है जैसे कुछ भक्त स्वर्ग से आये
स्वर्ग धरा का सुन्दर टुकड़ा साथ साथ है लाये
आलोकित कर दिया सभी ने दीपक  नेह जलाकर
नामकरण कर दिया भव्यतम उज्ययिनी गुनआकर।




(35)
उज्ययिनी है वर्तमान मे जितनी सुन्दर नगरी
उतनी ही अतीत की जग में इसकी आभा बिखरी
राजा थे प्रद्योत थी जिनकी कन्या वासादत्ता
हुआ प्रणय प्रारंभ परस्पर हुई प्रेम उन्मता
स्वर्ण ताल था निकट जहाँ होता था प्रेम निवेदन
नील गिरि हाथी था करता सदा मस्त हो विचरण
हरण की गयी वासादत्ता नृप उदयन के द्वारा
रूश्ट प्रेमिका हेतु निवेदन हुआ अन्त षुभकारा
आज वही पौराणिक गाथा फैल रही है जग मे
वृद्व जनों के मुख से सुनकर हर्शित होतें मन मे।
(36)
अन्तः पुर में सद्य सलिल युत सुरभित एक सरोवर
भिगोकर निकल रही है बालाऐं उत्फुल्ल षरीर भिगोकर
काले काले केषों से चूँ रहा सुवासित जल है
अंगराग मद और सुंगधित अंग लेप तन पर है
चंदन मिश्रित धूप गंध को जला अतर छिड़केगी
गलियारे की महक सुहानी तेरा मन हर लेगी
पाले हुये मोर सुन्दरियों के तुझे प्रसन्न करेंगें
नया अतिथि महलों में आया सारा श्रम हर लेंगे
जाबक से आवरत चरण है अंतःपुर बालाओं के
मुग्ध भाव से निरख निकट आ देव अंगनाओ के
हो जाओगे स्वस्थ मिटेगी मार्ग थकावट सारी
जैसे कालरात्रि हट जाती आ जाती उजियाली ।

(37)
उज्जयिनी घर सुन्दरता का जा कर मन बहलाना
घूम घूम कर जगह जगह पर मन की थकन मिटाना
भूल न जाना महाकाल के दर्षन ओ नभगामी
पाप नषावन ताप मिटावन वे त्रिभुवन के स्वामी
षीतल मंद सुगंध गंध वह छूता रहता जिससे
बालाओं के वासित जल से अभिसिंचित कर उससे
षिव के सेवक और पार्शद आदर देंगे तुझको
नील कंठ सा तेरा रंग आकृश्ठ करेंगें उनको।
(38)
महाकाल मंदिर जाकर तू सांय तक रूक जाना
संध्या समय आरती होगी तू षामिल हो जाना
षंख और घडियालों में अपनी आवाज़ मिलाना
सब भक्तों के संग संग तू पूजा पुण्य कमाना
देव नर्तकी नर्तन करती पुश्प आरती होने पर
मधुर-मधुर सुर घुंघरू के भंकृत होते है मंदिर पर
उनके मधुर स्वरों से सबके तन को मन को झांकृत कर।
(39)
महाकाल को चॅवर ढुराती सुकुमारी कन्यायें
थक कर मूर्तिमान हो जाती कामातुर बालायें
बरसेगा जब तू उनपर उनके चरणों को छूकर
टेढ़ी करकें भोंह तूझे देखेंगी जैसे मधुकर



(40)
होगा संध्याकाल लालिमा चहूॅ दिषि छायी होगी
तेरा ष्यामल वर्ण मिलेगा अद्भुत छवि झलकेगी
गीले काले हाथी जैसा तेरा रूप दिखेगा
षिवषंकर मन को भाता है गीला चर्भ खिलेगा
ताण्डव नर्तन को हों उद्यत ढक लेना तुम षिव को
हो प्रसन्न षिवषंकर तुझ पर लख तेरी सेवा को
षिव जी का यह रूप प्रिया गौरी के मन भायेगा
और षिवा से मुग्ध भाव मन चाहा वर पायेगा।
(41)
प्रियतम से मिलने जाती हों कामातुर बालायें
अमा निषा के अंधकार में प्रिय को खोज न पायें
बिजली का प्रकाष दिखला कर उनको मार्ग दिखाना
जल वर्शा कर कर के उनके मन को मत डरपाना
भीरू हदय कामिनि की आॅखों का काजल धुलता है।
बड़े-बड़े वीरों के मन का धीरज भी ढलता है।
(42)
करते करते काम थकेगा दुख से क्लान्त बनेगा
दिखा दिखा पथ कामिनियों को विद्युत बहुत थकेगा
देना छोड़ न साहस फिर भी, कर लेना विश्राम
उज्जयिनी के परकोटे पर लेना पूर्ण विराम
प्रथम किरण आते ही रवि की आगे को चल देना
नगरी की सुन्दरता लखकर मोहित हो मत रूकना
विचलित होगा पथ से यदि तू विगलित होगा हिम सा
अपने पथ पर चल देना तू उŸार दिषा पथिक सा।
(43)
आयेगी प्रभात बेला यह सन्धिकाल है दिनका
प्रणय खंडिता ललनाओं को धीर बॅधाना मन का
परकीया वन रैन बिता कर आयेगी जब घर को
धीर बॅधा देना रोती ललना के हिय कोमल को
रात विरह की बिता भास्कर लौटे होंगे दुख से
ओस बिन्दु दग बिन्दु हटाते प्रिया अम्बुजा मुख से
नही मार्ग में आना उनके जो उनको दुख देगा
रवि किरणों के प्रबल ताप का तू अपमान सहेगा
पौं फटने के पूर्व यहाॅ से आगे को चल देना
प्रेम कथा रवि नलिनी की है नहीं बीच में पड़ना।
(44)
गंभीरा सरिता में तेरी छाया झलमल होगी
निर्मल जल निष्छल अंतर में ऐसी षोभित होगी
कपट रहित स्त्री के मन में बसती छवि प्रेमी की
मीन द्वगों से अपलक तेरी निरखेगी छवि नी की
तुझ पर है अनुरक्त गंभीरा मत निराष तू करना
रिमझिम रिमझिम जल बरसा कर उसे मुग्ध तू करना।
(45)
गंभीरा कीे प्रेम केलि में बॅधकर मत रह जाना।
प्रेम अम्बु पीकर सरिता का मगन नही हो जाना
सरिता के दोनों तट होगंें बसन हीन जंघा से
तट पर झुकी लताओं के मिस वसन उठाये कर से
रति क्रीड़ा में फॅसकर अलका पथ से विमुख रहेगा
निर्वसना जंघाऐं लख किसका मन ना मचलेगा
(46)
देवगिरी तक मंद पवन जायेगा साथ तुम्हारे
वन्य फलों को जो देता है पका
धरती का स्पर्ष कियो जब मीठी गंध समाई
पवन सुवासित हुआ षुण्ड से लेते स्वाद गजाई।
(47)
कार्तिकेय का आश्रय लेना देव गिरी में जाकर
अभिसिंचित कर देगी स्वार्गिक जल से आनंदित कर
चन्द्रकला धारक षंकर ने वासव वसना के हित
उपजाया था कार्तिकेय को उनकी रक्षा के हित
देवसेन के सेनापति थे कार्तिकेय बलषाली
तारक असुर संहारा सत्वर सूर्य-सद्वष गतिषाली
अपने पावन जल से वर्शा करना उन पर जलधर
पुश्पों से वर्शा कर देना नभ गंगा से सत्वर ।
(48)
पुश्पों की वर्शा कर करना रंजन शट-आनन का
फिर वाहन मयूर को अपने गर्जन कर गानन का
आनंदित हो कर पुकारता है मयूर नच-नच कर
पर्वत से ध्वनि ध्वनित हो रही कानन में छन-छन कर
कार्तिकेय का प्रिय वाहन है हे माॅ की आॅचल छाया
मस्तक पर है मोर पंख जो भाग्यवान ने है पाया
पार्वती माॅ कुंडल जैसा पहना करती हैं उसको
कर्ण फूल सा षोभित होता भाग्य मिला ऐसा किसको
जैसी है मयूर की सेवा वैसी क्या तू पायेगा
षिव षंकर और पार्वती का कृपा पात्र बन जायेगा।
(49)
सिद्व और उनकी बालायें नील गगन पथ पर जाती
तुझे मिलेंगी बीन बजाती कार्तिकेय का गुन गाती
तुझे देखकर विचलित होंगी भय से कम्पित हो होकर
तेरे जल के बिन्दु जगा देंगे उनकी वीणा के स्वर
वन्य प्रान्त में चम्बल सरिता इठलाती है बलखाती
दिख जायेगी मेघा तुझको लहर लहर लह लहराती।
इसकी गौर व गाथा जग ने भली भाॅती है पहचानी
रन्तिदेव के अग्निहोत्र से निकली चम्बल महरानी
पार करोगे चम्बल तट तुम यही ध्यान मन में लाना
चोट ना पहुॅचे स्वाभिमान को टूटे ना तन को ताना।
(50)
चम्बल का पानी पीने जब कान्ह सद्वष जायेगा
अति विषाल चम्बल भी धारा क्षीण क्षीण पायेगा
अनुपम होगा द्वष्य देखकर सिद्व गंधर्व थमेंगे
सरिता रूपी मुक्तमाल धारी धारी समझेंगंे
तेरा रूप लगेगा उनको नीले नीलम जैसा
धारण जिसे किया हो पृथ्वी नारी ने बस वैसा।
(51)
चम्बल सरिता नाघ मिलेगी तुमको दषपुर नगरी
थोडा रूक कर यहाॅ देखना नारी षोभा बगरी
नयनों की चितवन में जादू काम भाव उपजेगा
देखेगी जब तुझे तेरा तन मन रोमांचित होगा
बालाओं के नेत्र अध मुंदे जब खुलते मुॅदते है
खेत पुश्प की पंक्ति मध्य भ्रमरों का भ्रम जनते हैै।
(52)
दिल्ली दषपुर से आगे है मिलता ब्रह्नावर्त सलोना
षस्य ष्यामला भूमि उर्वरा सुन्दर कोना कोना
देकर निर्मल षीतल छाया आगे को बढ़ जाना
महाभारत की रणस्थली है,है वीरांे का बाना
अर्जुन के गांडीव धनुश की टंकारो की बोली
तेरी जलबर्शा-षरवर्शा कर देती अनबोली
(53)
सरस्वती सरिता का जल है अति पवित्र अति पावन
बलदाऊ यदुवंषी हलधर ने वह जल पिया मुदित मन
सोच रहे वे कौरव पाण्डव ईश्र्या द्वेश तजेंगे
कलुश भेद सब मिटा परस्पर मित्र भाव बरतेंगे
सरस्वती के जल को पीकर दाऊ हलधर भैया
पीना भूल गये निःसृत मधु नयन-रेवती मइया
(54)
कनखल भागीरथ का उपक्रम जो है पावन गंगा
तार दिया था सगर-सुतों को दोश नसावनि अंगा
स्वर्ग लोक से आकर षिव षंकर के जटा समाई
चन्द्रकला को छूकर सुरसरि उज्जवल छवि दरसाई
गंगा षिव मस्तक पर लखकर रूश्ट गजानन माता
पर गंगा मुस्काई जिनका ष्वेत फेन उठ जाता
भूल न जाना महिमा उनकी है यह अकथ कहानी
मस्तक झुका झुका चल देना पी गंगा का पानी


(55)
गंगा का जल पान करेगा जब तू नीचे झुककर
दृश्य बने ऐरावत आया पानी पीने भूपर
तेरी काली छाया जब गंगा के मध्य पडे़गी
गंगा यमुना संगम होगा गंगाधार बढे़गी
(56)
देख यही है गौरी षंकर जहाँ विचरती गंगा
कस्तूरी मृग सदा विचरते विखर रही मदगंधा
चोटी पर जाकर पहुॅचेगा तू कैलाष षिखर की
नंदी के सींगो पर भासित हो ज्यों काली मिट्टी
नंदी ने धरती उपाट कर अपना रोश जताया
ष्वेत वरन सींगो पर बादल कीचड़ सा दरसाया
(57)
तीव्र वेग से चलती है जब वायु श्रृंग हिम गिरि पर
देवदारू के वृक्षों में संघर्शण होता रहता जम जम कर
संघर्शण से जल उठती हैं अग्नि हिमालय के वन पर
चमरी गायों की पूॅछें जलती हैं ज्वाला से सत्वर
परूपकार करना जल की तू सहसधार बरसाना
कश्ट मिटाकर गायों का अपना कर्Ÿाव्य निभाना
वही सबल हैं जो हर लेते कश्ट सदा निर्बल के
जलती अग्नि षान्त करदे हैं सही बिन्दु वे ही जल के




(58)
षरभ दल है हरिण का, तुमसे सदा वह दूर रहता
किन्तु फिर भी सींग ताने हैं, सदा तुम पर बिगड़ता
उन भयानक प्राणियों पर, अति भयानक वृश्टि करना
हिमकणों की  और ओलों की, विकट बरसात करना
बिखर जाये वह हरिण दल, वृश्र्टि घातक से तुम्हारी
नाष होता है बुराई का बुराई से सदा ही रीति प्यारी
(59)
सौ सौ षिलाखंड हिमगिरि के, एक खंड के ऊपर
षिवषंकर के चरण चिह्न ,अंकित है सुन ले जलधर
उनके चरण चिह्न की पूजा, करते है जोगी जन उनका
उनका आराधन बन्दन है देह मुक्ति का साधन
चरण चिह्न पूजन कर साधक पार्शद बन जाते हैं
तू भी कर लेना परिक्रमा उन्हें भक्त भाते हैं
(60)
बासों के वन में जब छिदित बास बासॅुरी बनता
लगता हैं ज्यों कृश्ण बासॅुरी के स्वर में स्वर मिलता
ऐसा लगता हैं सुरबालायें विजय गीत गाती है।
त्रिपुरासुर वध की गाथाएॅ बंसी में गाती है
अथवा बंसी धुन पर ब्रज की गोपी गाती गाना
और तू भी गर्जन कर कर के, धुन मृदंग बन जाना
बंसी का सुर नाद तेरा बन महा रास जायेगा
भूतनाथ भोले षंकर का यषोगान गायेगा


(61)
अगणित चोटी हैं हिमगिर की ऊॅची-नीची घाटी
उड़ते चलते उŸार में बढ़ते आना तुम साथी
हैं सुरंग इक क्रोंच रंद्र की तुझको मिल जायेगी
परषराम रघुवंषी मुनि की षौर्य कथा गायेगी
इसी मार्ग से हंस पंक्ति जाती हैं मानसरोवर
तुझको भी जाना होगा वारिज रमणीय सुपथ पर
तेरी आकृति सिकुड़ जायेगी वामन सरस लगेगी
जैसे विश्णु चरण की आकृति सृश्टि पटल धर लेगी
(62)
क्रोंच रंध्र की गुफा लाॅघकर कुछ आगे को बढ़ना
देखेगो कैलाष निकट से जी भर दर्षन करना
लंकापति रावण ने जिसको उठा लिया बाहों में
बना लिया जिसको निवास था षंकर गौरी पति ने
मणियों के समान उज्जवल हैं जिसकी चोटी-चोटी
मानो षिव का हास प्रकट हो जाता वन हिम मोती
(63)
हस्ति दंत कैलाष षिखर पर षोभित काला बादल
जैसे गौर्य वर्ण हलधर ने धारा नीला कंबल
तेरी उस षोभा को अपलक नभ तारे देखेगें
बिना लजाये षोभा श्री को अंतर में रख लेंगें




(64)
यह कैलाष षिखर हिमीगिरी का उच्च भाग नभ नूतन
जिसमें षंकर पार्वती निर्वघ्न को परिरंमण
अंगो से उतार आभूशण गंग चंद्र विशधर को
महादेव उद्यत हो जब आश्रय देने गौरी को
जलधर तुम सीढ़ी बनकर पनवाड़े सा बिछ जाना
तुम पर चरण पड़े उनको धीरे-धीरे सहलाना
चढ़ना और उतरना उनका हो जाए आसान
इतनी सेवा करके तू फल पायेगा अनजान
(65)
सुरबालायें चंचल चपला विनोदिनी रसमयी सभी
तेरे अंग में कंगन घुसकर द्रवित करेंगी  तुझेकभी
कामातुर हो तुझे जकड़ने को बालायें हो व्याकुल
तुझे समझ कर काम अंध वे सहलायेंगी हो आकुल
कानों को बहलाने वाला गुरू गर्जन तुम कर देना
पीछा छुड़ा तोड़ कर घेरा आगे को तुम बढ़ लेना
(66)
मनसरोवर स्थित हैं कैलाष षिखर पर सुन्दर
कमल पुश्प खिलते है उसमें नील स्वर्ण आभा पर
बिछड़े हुए हंस के जोड़े आकर मिल जाते हैं
स्वच्छ नीर में खेल करे पीडि़त मन खिल जाते हैं
मानस सर का ये रावत भी पीता हैं पानी
श्रद्वा से झुककर तुम भी पी लेना पानी
ये रावत पर जल फुहार का आभूशण पहनाना
और कलपद्रुम के कोमल पत्तों को ध्वज सा लहराना
मन प्रसन्न होगा सबका और तेरा भी घन राजा
श्रम घट जाये चित्त प्रसन्न होगा बादल के राजा
(67)
पर्वतीय अंचल में अलका नगरी हैं
गंगा बहती हैं दुकूल सी हिमगिरि पर
गगन चूमती षोभित जहाॅ अटारी हैं
बादल उमड़ घुमड़ कर जल बरसाते हैं
ऐसे षोभित होते मानो मुक्तागत
किसी कामिनी की बिखरी सी हो चोटी
प्रियतम को पाकर के मुग्धा नारी सी
वह प्रतीत होती आंनदित रमणी सी

उŸारार्ध
(1)
नगरी अलका में और तुझमें हैं समानता भारी
भवन गगन चुम्बी है उसके तू है गगन बिहारी
तेरे अन्तरतम में बिजली चमचम चमक रही हंै
अलका नगरी की कामनियाॅ  दमदम दमक रही हैं
तेरे इन्द्रधनुश के रंग भवनों की भिŸिा समाये
तेरा भृदु गर्जन मृदंग का घोश कर्ण को भाये
तेरे ष्यामल रूप सदृष है नीलम छवि भवनों में
हंै समानता कितनी तू पहचानेगा इक पल में
(2)
अलका वासिनि यक्ष पत्नियाॅ प्रकृति प्राण अनुप्राणित
पुश्पों के आभूशण पहने पुश्पों से तन सज्जित
कमल-कली कमनीय पुश्प षोभित कोमल हाथों मेें
नूतन करबक सुमन संजोये नागिन से बालों में
लोध्र पराग सुगंधित लेपन षोभित है अंगों में
स्वर्णिम कान्ति मनोहर अनुपम दमके मृदु आनन में
कानों में षिरीश-पुश्पों के है सुन्दर आभूशण
रंगती हैं कदंब पुश्पों से हैं वर्शा से रक्तिम
कोमल पुश्प सजाये उतरी रति मानो अम्बर से
किंवा फूलों वाली सुरसरि उतर रही मृदु स्वर से




(3)
सदा सुगंधित सदा पल्लवित उद्यानों की नगरी
सुन्दरतम अलका की चर्चा सकल विष्व में बिखरी
वर्शा ग्रीश्म षरद ऋतु हो षिषिर हिमन्त वसन्ता
रहते सदा पल्लवित पुश्पित फलयुत तरू मधुवंता
डाली डाली षाख षाख पर लदे फूल फल भारी
मानो जननी निज संतति को भुला रही वनचारी
भोंरों का नित गुंजन नर्तन होता है फूलों पर
हंसावलि से घिरी पùिनी दृश्य दिखाती सुन्दर
भवनों में पालित मयूर गण नृत्य-गान नित करते
मिल मिल दुग्ध धवल चन्द्रिका आभा नित पखवारे भरते
कृश्ण पक्ष या षुक्क पक्ष दोनों क्रम से मुस्काते
अलका नगरी की षोभा को नित प्रति दोउ बढा़ते
(4)
अद्वितीय है अलका नगरी अखिल विष्व भू मंडलपर
है पीड़ा से रहित सर्वदा कोई कलीन गिरी मुरझाकर
कोई पीड़ा नहीं हुई है जिस पर आँखें रोई हो
सुख में ही आॅसू आये ना दुख से आॅख भिगोई हो
केवल विरह-दाह दुख देता दूजा दाह नहीं है
केवल प्रणय वियोग सताता दूजा दुःख नहीं है
होता केवल कलह प्रेम में जो होता सुखकारी
कलह दूसरा कभी न होता सब सोते सुख सारी
बचपन गया युवानी आई कभी नहीं वह जाती
मथुरा और पुरी अलका हैं तीन लोक से न्यारी

(5)
अंतःपुर आवास उच्च पर्वत षिखरों से
जड़ी चमकती मणियाँ स्फटिक प्राचीरों से
कान्ति नही धूमिल होती दिन के प्रकाष में
तारों की परछाई पडती अभारात में
सुन्दरता बढ़ जाती भवनों की ऐसी
मनहर नारि थाल पुश्पों का लेकर बैठी
अलका वासी यक्ष रमण करते रमणी सँग
होकर के अनुरक्त मधुर मद पिय रँगे रँग
(6)
आया है सौन्दर्य रूपधर अलका मे
प्राण प्राण में काम रूप रस डाला है
धरा रूप ने स्वयं वेष गण यक्षों का
रति-रूपा कन्थायें फिरती हैं अनगिन
बिनकी छवि लख सुर-गण फिरते ललचाये
करदें कृपा फटाक्ष कृतारथ हों सारे
यक्षों की कन्थायें गंगा तट जाकर
क्रीड़ा करती छूता उनको आाद्रपवन
मन प्रसन्न तन पुलकित हो जाता उनका
छुप जाती षामिल छाया में वां तत्क्षण
तरू मदार के नीचे आश्रय ले लेतीं
क्रीड़ा करती आपस में मुटितायें
तट की बालू भर भर कर निजमुट्टी मे
है बिखेरती मणि मुक्ता हलपाने को

(7)
मणि मुक्ता माणिक्य जडे़ आवासों में
रत्नाभा से ज्योतित अटा-अटारी है
मणि-मणिक्य प्रकाषित रहेंत भवनों में
तैल दीप प्रज्जवलित करी आवासों मे
काम षलाकायें कामिनियाॅ भवनों की
लेती जब उच्छवास काम पीडि़त होकर
उत्तेजित हो काम वासना से प्रेमी
खोल रहे गाॅठें काटे की अति तŸपर हैं
वसन हीन देखें ना पति इस लज्जा से
देती फेंक गुलाल रत्न दीपों पर वे
किन्तु नही कम होती आभा रत्नों की
होते रहते हैं ज्योर्तिमय भवनों में
(8)
संगी बादल जाते जब अलका नगरी
कर प्रवेष ले संग वायु के झोंकों को
कर देते मटमैला चित्रों को नटखट
फिर अपराधी समझ स्वंय को डर जाते
रूप धुऐं का धर कर खिड़की से बाहर
नटखट बालक से नभ पर उड़ जाते हैं
मनमोहक क्रीड़ाओं से अलका नगरी
खिलती मुॅदती कली सहर्श षोभा पाती



(9)
अद्र्व रात्रि में पलंग झालरों की मणियाॅ
हटा आवरण मेघों को ज्योर्तित होती
नीले नभ की चन्द्र किरण की आभा से
अमृत बिन्दु टपकते अलका नगरी पर
थकीं काम-क्रीड़ा से आनान्दित कामिनियाॅ
पतियों के दृढ़ भुजबंधन से मुक्त हुई
लेती श्रम हर चन्द्र मेघ की जल षीतल किरणें
(10)
ज्ीवित प्रतिमा है विलास की यह नगरी अलका
अंत नही वैभव विलास का दुःख नही पल का
नगरी के श्री मन्त श्रोश्र्ठ जन अक्षय कामी हैं
देव पुत्रियों और अप्सराओं-सहगामी हैं
बिना किसी अवरोध करें स्वच्ंछ विहांर बनों में
नभ के किन्न्ार साथी बनते रखते सुमन मनों में
काम केलि कल कुषल कामनी रूदन मस्त रहती हैं
श्री मन्तों श्री मानों का वे सदा हृदय हरती हैं
(11)
कामिनियाँ विलास दायिनियाँ मिलने प्रिय पति से
अद्र्दरात्रि में निर्जन वन में चलतीं द्रुतगति से
आक-पुश्प वेणी हिलने से निकल धरा पर गिरते
मुक्तमाल के मोती गिरते स्तन सह कराकर
पुश्प-मुक्त विखरे धरनी पर मिलन कथा इंगित कर


(12)
धनवानि सखा कुबेर षंभु कैलाष पती कौ
डरपन मदन प्रभावन दरसत रूदन-मती कौ
त्याग धनुश शटपद का साधे नारी-भू-धन
बढ़ता वेग काम का प्रति क्षण कामी जन का
तीर छोड़तीं तरल नयन के भू कमान धर
ज्ञानी योगी देते छोड़ धैर्य साहस को
(13)
मनवारे हाथी अलका के रवि-रथ-सन सुन्दर हैं
ष्याम रंग गिरि सम ऊँचे हैं तुम जैसे संजकधर हैं
मद बरसाते झूम-झूम कर जैसे तुम जल भरते
अलका की रक्षा हित रक्षक प्राण विसर्जित करते
(14)
तन पर घाव सहे हैं हँसकर
आभूशण से समझा करते सुन्दर
अलका पुरी अंष धरती का किन्तु स्वर्गसम
कल्प वृक्ष भ स्वर्ग सहष हैं सब देता इच्छा पर
आभूशण, परिधान प्रसाधन भोजन अति सुन्दरतम
मीठी मादक मदिरा देता बिन प्रयास सुख साधन
(15)
कहा यक्ष ने ष्यामल घन से
अलका में ही मेरा आश्रय
उŸार में यक्षाघिव रहते
मणि माणिक्य जड़े हारे पर
जिनकी आभा इन्द्र-धनुश सी
रंग बिखरे ज्यों मणि आकर
छोटा सा इक कल्प वृक्ष हैं
धनपति श्री कुबेर के द्वारे
मेरी प्राण-प्रिया ने उसको
पाला बेटा जान-जतन से
पुश्प-भार से लदी डालियाँ
धरती पर यों झुक आई हैं
स्वर्ण भार पाकर के सज्जन ज्यों
झुक जाता हैं नम्र भाव से
(16)
मेरे घर में एक बावड़ी जड़ी हुई मरकत मणियों से
जड़े हुए सोपान मनोहर स्वर्ण कमल खिलते हैं निषिदिन
निर्मल निर्मल वापी का जल निर्मलता ही स्वंय रूपधर
समा गई वापी के जल में रहते हंस बावड़ी तट पर
निरखा तुझ को समझ गये वे वर्शा की ऋतु आई धरा पर
लौटे नहीं मानसर को वे मन बहलाकर रहे वहीं पर
वर्शा में भी वापी का जल रहता स्वच्छ और निर्मल है
तिरते रहते हंस निरंतर करते शब्द भला कल-कल है
(17)
निकट वावरी के तट पर इक पर्वत हैं अति सुन्दर
क्रीड़ा षैल पुरी अलका का हैं अति रम्य मनोहर
स्वर्णिमा युत षैल षिखर पर कदली विटप मनोरम
स्वर्ण मुद्रिका मध्य जड़ा ज्यों नील वर्ण का नीलम
मेरी प्राण प्रिया को प्रिय हैं बन्धु मेरे यह पर्वत
घन के बिच घनघोर चमकती विद्युत मानो मरकत
साथ प्रिया के इस पर्वत कियां खेल मन माना
मधुर क्षणों को याद किया अब विरह भाव दुख जाना
(18)
ओ रे नीरद मेरा घर हैं निकट, उसी पर्वत के
छोटी सी फुलवारी मेरी पास थरू चैखट के
कुरवक विटप खड़े बहुतेरे ढाँके ललित लतायें
लता माधवी मंडप छाया सुरभित षीत हवायें
मोर सिली के उर अषोक के चंचल कोमल पŸो
बिन मौसम ही फूल-फूलने लगते मधु के छत्ते
फूलों से लद कर अषोक का पेड़ धरनि को छूता
चरण चूमने प्राण प्रिया का मन में भाव अकूता
विटप मौलिश्री आकुल व्याकुल पास प्रिया के आता
पीने को मुख मदिरा अमृत प्रेम भाव दर्षाता
(19)
उन वृक्षों के मध्य बनी हैं फटिक मणी की आसन
मध्य भाग चैकी के स्थित स्वर्ण खंभ सुख आसन
हरे रंग की मणियों से हैं जड़ा स्वर्ण का खंभा
यह प्रतीत होता हैं मानो खड़ा बाँस का खंभा
नीलकंठ साथी, मयूर चैकी पर बैठा करता
प्राण प्रिया के कर कमलों का ताल सुना नित करता
और नृत्य करता विमुग्ध हो नित्य सांध्य की बेला
बहलाता मन प्राण प्रिया का विरह अग्नि तन छेला



(20)
मेरे द्वार पर आस-पास में कमल षंख हैं चित्रित
मैनें जो पहचान बतायी मन में रखना चिह्नित
मेरा घर सूना-सूना हैं वैभव बिन मुरझाया
सूरज बिन ज्यों कमल पुश्प हो कुमलाया कुमलाया
तुम तो समझदार हो वारिद समझो मेरे इषारें
निष्चिय ही पहचान सकोगे जाकर मेरे द्वारे
(21)
तेरी काया अति विषाल पर घर के द्वारे सकरे
धर कर छोटा रूप चला जाना तू मेरे घर रे
घर भीतर गर्जन न करके गिरि के बीच विचरना
बिजली नैना चमका मेरी प्राण प्रिया लख लेना
दिख जाएगी किसी जगह वो तन मलीन मन मारे
लेकर आस मिलन की विरिहन मेरा नाम उचारे
(22)
मेरी अर्धांगिनि कृष अंगिनि,ष्यामल दाडि़म दषना
अरूण अधर ज्यों पके बिम्ब फल,क्षीण कटि हैं प्रथुला
मन्द गामिनी गति करिनी सी, खोई ज्यों मृगनयनी
नाभिकुण्ड गहरा हैं जिसका, युगल पयोधर तरूनी
असहनीय कुच भार कामिनी झुकी हुई आगे को
वही प्रिया हैं जलधर देना हैं संदेष उसी को।




(23)
मेरी पत्नी से बातें कर, पायेगा सुख नभचर
सम्भाशण आनंद मिलेगा, कम ही तुझको जलधर
वियोगिनी दुखकातर , कम बातें कर पायेगी
चकवी ज्यौं वियोग में प्रिय के, रोती रह जायेगी
वही दषा हैं प्राण प्रिया की, ज्यों पीली पंकजनी
आकुल व्याकुल उत्कंठित सी, बिता रही दिन रजनी
(24)
दुर्बल होगी विरह व्यथा से, ओरे गगन बिहारी
रोती निष्दिन दुर्बल होगी, तन से मन से भारी
आँसू सूख गये पलकों में, सूखे अधर रसीले
विरह ज्वाल की उश्ण ष्वास से, हे कपोल भी पीले
सुन्दर वेणी बिना फूल के, रूखी खुली खुली सी
चंद्र बदन भी आहत दिखता, मानो मेघ छली सी
(25)
होवे षाप समाप्त लौट आँऊ में घर को
यही कामना लेकर, ध्याती षिवषंकर को
विरह व्यथा से ग्रस्त हुआ तन दुर्बल मेरा
कैसा होगा करे कल्पना मन में परी अबेरा
बना चित्र बह गया नैन की अश्रुधार से
पिजंड़े की मैना से पूछे बड़े प्यार से
क्या तुझको भी पगली प्रियतम विरह सताता
मिला न तुझको कभी भला उससे क्या नाता


(26)
अथवा मेरी पत्नी वीणा रख गोदी में
गाती होगी गीत मिलन के पूर्व क्षणों के
तुझको आया देख छुपाकर अपनी पीढ़ा
पहुँचेगी वह अष्व विन्दु से गीली वीणा
किन्तु बाद में मुछित हो सबकुछ भूलेगीं
अश्रुबिन्दु थम जाऐं ऐसा जतन करेगीं
भूलेगी अपने घर में भी तेरा आना
गीत गान सँग भूलेगी हँसना मुसकाना
(27)
हो सकता हैं विरह अवधि के दिन गिनती हो
अवधि वस्त्र के ताने-बाने, कुछ बुनती हो
पूजा के पुष्पों से गिनती मिलन अवधि के
अथवा दिन में मिलन क्षणों की मधुर याद में
दिन में ही कल्पना स्वप्न देखा करती हो
आलिंगन चुम्बन के शत शत परस याद कर
पिय वियोग की पीड़ा नित्य शमन करती हो
(28)
देवा रागन चित्रांकन के कल्पित रस में
प्राण प्यारी मेरी दिवस बिताती होगी
किन्तु रात का लम्बा सन्नाटा पाकर के
मेरी स्मृति विरह ज्वाल धधकाती होगी
सूनी-सूनी और अकेली विराहिनी नारी
और सोच-सोच कर रो-रो रात बिताती होगी
ओ मेरे घन मेरे साथी अर्धरात्रि में
निद्रा रहित करवटें लेती प्राण प्रिया को
षीतल मंद सुगंध वायु का छौंका देकर
समझा देना धीरज देना आष्वासन भी
(29)
पहँुचेगा तू मध्य रात्रि को जब मेरे घर
लेटी होगी प्रिया चटायी बिन धरती पर
नींद नही होगी आँखों में प्राण प्रिया के
लेती होगी प्रिया करवटें व्याकुल हो के
दुबली पतली देह बह रहे होगें आँसू
माला के मनको से बिखरे तपते आँसू
लटें हटाती होगी मुख से क्षीण करों से
पीले पड़े कपोल विरह भीश्ण ज्वाला से
(30)
प्यारी की सखियाँ सहेलियाँ आकर दिन में
मिलकर मेरी पत्नी को समझाती होंगी
मित्र वहीं जो बुरे समय पर साथ निभावे
सारी मिलकर धीरज उसे बँधाती होंगी
रात्रि -समय- जब ेसब प्राणी हों निंद्रा के बस
तब तुम प्यारे मेघ पहँुच जाना प्यारी ढिंग
(31)
आ जाती हैं याद मुझे रातों की घडि़याँ
कट जाती थी रातें प्राण प्रिया संगम में
पलक झपकते कटती रातें लम्बी-लम्बी
नहीं नींद का नाम उस समय था पलकों में
कितना था बहुमूल्य समय जब हम दोनों को
पलक झपकना भी भारी पड़ता दोंनों को
इक टक रहे निरखते इक-दूजे को प्रतिपल
क्षण वियोग क ेअब लगते लम्बी रातों से
दिन-दिन काया दुर्बल होती प्राण प्रिया की
जैसे चंदा कृश्णपक्ष का दिन-दिन घटता
किंतु विवष हो काट रही हैं दुःख भरे क्षण
टूटे मन को धीर बँधा समझा-समझाकर
(32)
चंदा की किरणों को लख हर्शाती थी तब
मिलन काल में हदय प्रफुल्लित होता उसका
वे किरणें दुःख पहुँचाती हैं विरह काल में
खिड़की से छन-छन कर आती जब वे भीतर
चन्दा की किरणें अंगार सी हदय जलाती
विरह व्यथा से नयनों में आँसू भर लातीं
गिरना उठना पलकों का ऐसा लगता हैं
घिरा मेघ से सूर्य निरख मुरझायीं नलिनी
(33)
मिलन आस ले अंगराग का लेपन तन पर
और सुवासित द्रव्य सभी छूटे हैं तन से
वेणी समरी नहीं छुटी केषों की अलकें
लटक रही गालों पे सूखी लट हिल-हिल कर
विरह जन्य उत्तप्त ष्वास से बिना स्नेह के
रही सोचती क्षण भर को नींदिया आ जाये
सपने में ही मेरा प्रिय मुझसे मिल जाय
वेग काम का मिट जाये मन भी षीतल हो
धार अश्रु की अविरल गति से बहती जाती
विरह ज्वाल बड़ रहा नही आयेगी नींदियाँ
(34)
विदा समय बाँधी पत्नी ने सूखी चोटी बिन फूलों के
रूखी सूखी बिना तेल के होगीं उलझी खुली लटों से
केमल कोमल गालों को जब सूखी लटें परसती होगी
उन्हें हटाकर ऊँगली से मेरी प्रिया उनीदें मन से
बढ़े हुए नख छू गालों को क्षत विक्षत कर देते होंगे
देख देखकर छवि दर्पण में आँसू धार बहाते होंगे
षाप मुक्त हो पहुँचूँगा जब अल्प समय में पास प्रिया के
अपने हाथों धीरे-धीरे खोलूँगा उसकी चोटी को
(35)
विरहाकुल मेरी पत्नी ने हटा दिये तन से आभूशण
बिन आभूशण करवट लेती आहें भरती हैं क्षण-प्रतिक्षण
विरह अवस्था देख प्रिया की तू भी व्याकुल हो जायेगा
बरसेंगे आँखों से आँसू तेरा मन भी भर आयेगा
सज्जन पुरूशों का लक्षण हैं पर दुःख में कातर हो जाना
तू भी सज्जन हैं हो वारिद मैंने भी मन में पहचाना
(36)
नव परिणीता मेरी पत्नी प्रथम मिलन सुख भोग ना पाया
षाप ग्रस्त हो बना वियोगी प्रिया छोड़ धरती पे आया
पीड़ा मेरे मन में भारी है पतिव्रता यह सुभाग हैं
जो कुछ कहता सत्य कथन हैं


(37)
आषा तनक नहीं मिलने की और नहीं संकेत मिलन का
दोंनों अधर मंागते चुबंन प्यासा मन प्रिय के दर्षन का
सूखी सूखी अलकें बिखरी, आँखों पर हैं शेष उदासी
काजल धुला अश्रुधारा से, नही रही चंचलता भू्र पर
लेकिन जब तू घर पहुँचेगा, बायाँ नेत्र फड़क जायेगा
नैनों में आह्मद भरेगा मन को शकुन भला भायेगा
(38)
पहुँचेगा गृह जब तू बाम नेत्र फड़केगा
मंगल शकुन समझ प्यारी का हिय धड़केगा
कदलि खंभ सम जंघाओं में कम्पन होगा
परिभमण के पिछले सुख का अंकन होगा
जंघाओं का नखाद्यात होगा सुखदायी
स्मृति कर करधनी कमर से नीचे आई
(39)
जब तू पहँुचें मेरे ग्रह में षांत भाव से उसे देखना
सुख निंद्रा में सोयी हो तो गरज-तरज कर नही जगाना
मधुर-मधुर सपने में खोई, मुझसें मिलने का सुख पाकर
बाहों के बंधन में बँधकर, मेरी प्रिया नींद में गाकर
तेरा गर्जन सुनकर उसका स्वप्न भंग हो जायेगा
बना रही जो महल कल्पना, वह क्षण में ढ़ह जायेगा
यही विनय हैं तुझसे नीरद, धीरज धरकर चुप रहना
बाधक मत बनना सपने में, पुण्य लाभ यह ले लेना


(40)
दुख सुख स्वप्नों में खोई मेरी प्रिया अकेली
जगे नही इक पहर जतन कर उसे जगाना
शीतल झोंका मंद पवन का निकट बहाकर
धीरे-धीरे शान्त भाव से उसे मनाना
निंद्रा बाधक जान तुझे अपलक देखेगीं
बिजली चमका कड़का उसको नहीं जगाना
फिर मृदु स्वर गंभीर द्योष उसके कानों में
मीठा सा संगीत भरा संवाद सुनाना
स्वाभिमानिनी प्रिया पदमनी चुप रहती हैं
कभी किसी से तत्क्षण बात नहीं करती हैं
(41)
संभाषण कर उसे बताना मधुर स्वरों से
धरती से अलका नगरी पर आया हूँ में
तेरे प्रिय का मित्र दूत हूँ मैं वारद
नीरद -बन -जग प्यास बुझाता आया हूँ में
जीवन का आधार विश्व का हूँ सुखदाता
व्यथित ग्रीष्म से सारे प्राणी जगती भरके
मेरे मृदु गर्जन से आशान्वित होते
प्रिया मिलन की उत्कंठा ले दुःखी प्रवासी
कामजन्य पीड़ा हरने को दूर दूर से
पास पहुँच जाते हैं अपनी प्रेयसियों के
संदेशा लाया हूँ तेरे विरही पति का
जो शापित हो काट रहा दिन राम गिरी पर

(42)
मीत मेरे घन! तेरे संभाषण को सुनकर
मेरी प्रिया प्रफुल्लित होकर उठ बैठेगी
बड़े प्रेम से तुझे देखकर यों सोचेगी
जैसे मारूत सुत को वैदेही ने देखा
लंका की बगिया अशोक में उत्कंठित हो
तेरा वह संदेश सुनेगी यह मानेगी
जैसे उसका प्रियतम ही आया मिलने कोे
(43)
सबसे पहले उसे बताना वारिद मेरे
कुशल सहित तेरा पति रामगिरी आश्रम में
मेरी स्वास्थ्य कामना उसको सदा सताती
चिन्ता रहती देती जो अविरल दुख मन में
मृत्युलोक में मानव दुष्चिन्ताऐं सहता
आशंका से दुखकातर हो निशिदिन रहता
कुशल प्रिया हो यही प्रवासी का सच्चा धन
पास पहुँच के मिलूँ, चाहता हैं मेरा मन
(44)
ओ घन कारे कहना उससे, ये विनती हैं
तेरे पति पर घर्ष विधाता की टेढ़ी हैं
बाधा शाप बनी मिलने में तुम दोनों की
तेरा प्रियतम दूर बात हैं अनहोनी की
जिस प्रकार तुम जलती रहती विरहानल में
उसी तरह वह भी जलता हैं दावानल में
तेरे मिलन को रोज तड़पता आहें भरता
रोम रोम में विरह समाया जल-जल मरता
(45)
गुप्त बात कहता हूँ तुमसे कहता था जो तेरा प्रियतम
गुप्त बात कहने के मिसवह लेता था कानों का चुम्बन
लेकिन हा! दुर्भाग्य दूर मैं तुझसे बात नही हो सकती
सदा लालायित रहता हूँ में प्रियवाणी सुनने को तेरी
बोल उठा वारिद उससे फिर तेरे प्रिय ने गीत लिखे हैं
कुछ तुम चाहों तो तुम्हें सुना दूँ मेरे मन ने भाव चखे हैं
(46)
कहा मेघ ने यक्ष प्रिया से अश्रु बहाकर
भरे गले से कहा यक्ष मैं तुम्हें सुनाऊँ
प्रिये तुम्हारा ध्यान लगा रहता हैं निशिदिन
कण-कण में ही तेरे रूप के दर्शन पाऊँ
हिरणी के नैंनों में दिखती भोली चितवन
और चन्द्रमा में मुख हैं प्रतिभासित होता
श्याम लताओं में दिखती तन लोच लुनाई
सरिता की लहरों में भू संचालन दिखता
करूँ कल्पना मन में तेरे पूर्ण रूप का,
मन में यही व्यथा हैं किन्तु मिली असफलता
(47)
दूर तुमसे हूँ प्रिया अति, हो रहा दुर्बल दिनों दिन
बिना देखे छवि तुम्हारी, छा रहा हैं दुःख प्रतिक्षण
काम के शर दुष्ट दारूण दे रहे मन को व्यथा अति
ये दशा हैं  छुग्द मन की ग्रीष्म रितु में हैं अधोगति
और वर्षा आयेगी तब होगा क्या मेरे हृदय का
आयेगी कारी बदरिया वायुमय झौंका सलिल का
दूर तुम मुझ से अकेली कैसे पाऊँगा प्रिय मैं
रातभर निश्वास लूँगा रूदन का अभिशाप ले मैं
(48)
मन बहलता हैं मेरा भी चित्र चरणों का बनाकर
मन की इस दारूण व्यथा को भूलने का यत्न कर कर
चित्र मेरा साथ बनता, निकट ही चरणों के तेरे
किन्तु आँसू की झड़ी ,ने धो दिया हा! भाग्य मेरे
थी नहीं स्वीकार विधि को कामना छोटी ये मेरी
रो रहा हूँ सोचके क्यों हो रही मिलने में देर
(49)
बाँधने का यत्न करता, तुमको अपनी बाहुओं में,
टूट जाता स्वप्न सुंदर, और बढ़ जाती विकलता
देखकर हालत मेरी यह, देवता भी दुखित होते
वे बहाकर अश्रुधारा वृक्ष की कोंपल भिगोते
जब हिमालय का पवन आता हवा मेंगंध लेकर
महक फूलों की संजोये शीत कण के साथ मिलकर
सोचता हूँ इस पवन में गंध तेरी मिल गई हैं
बाँधता है बाजुओं में प्रेम से उन्मŸा होकर
शान्त करता है विरह की अग्नि को निज पीर हरकर
मिल रहा हूँ कल्पना में डूबकर ओ प्राण प्यारी!
चल रही हैं चलचित्र जैसी, हृदय में वो छवि तुम्हारी




(50)
दुख देते है प्रहर रात्रि के तेरे बिन कटते युग-युग से
घटता समय कदाचित, विरह ज्वाल के दिन भी घटते
किन्तु सोचने से क्या होता घट पाती क्या निष्ठुर घडि़याँ
मन की इच्छा पूर्ण हुई ना मिटी ना भीषण विधि-कडि़याँ
(51)
छोड़ो ना पतवार धैर्य की
विरह ज्वार में डूब न जाये जीवन नैया
आशा दीप जलायें रखना
शापमुक्त हो पुनः मिलेंगे सुख पायेगें
जीवन तो इक रथ हैं भामिनी
सुख-दुख जिसके दो पहियें हैं
रहता है। गतिशील सदा यह
नित उत्थान पतन का घेरा
बिछुरन मिलन प्रीत दृढ़ करते
आते-जाते चलता जीवन
(52)
धीरज धरना प्रिये दुःख अब नही दहेगा
देव उठेगें शैया से तब शाप कटेगा
चार माह हैं शेष विरह-घनघोर छटेंगे
शाप मुक्त हो शीघ्र आस के फूल खिलेंगे
वर्षा का हैं अन्त आयेगी शरद सुहावन
शरच्चंद चंद्रिका खिलेगी धवल मनोरम
धरती नभ आप्लावित होगें प्रकाश से
पूर्ण कामना होगी मिल धरनी अकास से
(53)
इतना कह कर मित्र यक्ष ने यह समझाया
तेरा प्रियतम अन्य नारि पर नही लुभाया
देख रही थी प्रिय स्वप्न में बात अनोखी
रमण कर रहा अन्य नारि से रोकर चोंकी
मैंने पूछा कहा लजाकर अपना सपना
सीधी मुझ घरनी का हक तुमने हैं छीना
(54)
प्राण प्यारी स्वप्न गत को याद करके सोच लेना
डिग नहीं सकता प्रणय से कभी भी ये प्रिय तुम्हारा
लोग कहते है प्रवासी व्यर्ग होकर
निज प्रणय को भूल करते दूसरें से
हैं हमारा और तुम्हारा प्रेम सच्चा
सोचते रहते हैं इक-दूजे अभय से
नही घटता हैं प्रेम बढ़ता हैं निरन्तर
याद करते एक-दूजे को परस्पर
(55)
देना मित्र सँदेश प्रिया को धीर बँधाकर
चल देना उस ओर जहाँ फैला हिम आकर
जिसे शंभु का नंदी वाहन निज सींगों से
खोद रहा हिम शिखर, लौटना जल बरसाकर
देकर कुशल सँदेश ओ घन मेरे
रक्षा करना मेरे प्राण है नाजुक मेरे
हाथ तुम्हारे हैं मेरे प्राणों की रक्षा
मेरे प्यारे मित्र मुझे दे दो यह भिक्षा
(56)
मेरी विनती मान मीत मेरा धारा धर
ले सँदेशा जायेगा नगरी अलका पर
तू हैं मौन भले पर हे संदेह ना मुझको
तेरी स्वीकृति मौन भाव से बतलाती हैं
कार्य सफल होगा आसा हैं मुझको
युगों-युगों से मूक भाव से जल बरसाता
बना महा दानी चातक के प्राण बचाता
तू हैं चित उदार कृपणता तू ना रखता
(57)
देवराज मंत्री वारिद तुम हो विस्तृत सारे जग में
युगों-युगों से जल बरसाते व्यापित होते जल-थल में
प्राण बचा ले चातक के पालक हो सारे जग के
मैं असहाय यक्ष शापित हूँ तुम हो महत् कृपा करके
दे देना संदेश प्रिया को उŸार उसका ले आना
मौन भाव संदेश सुन लिया लक्षण प्रेषण का माना
(58)
सुनकर के अनुरोध यक्ष का उड़ा रामगिरि से अविलम्ब
सरिता सेल नगर वन गहवर पार किए मन में भर दम्भ
प्यार भरा संदेश यक्ष का करता रहा द्रवित मन को
अलका यक्ष पति रजधानी लख संतोष हुआ मन को
जो बतलाये चिहन भवन के धाराधरधावन को
कर कर के अनुमान मिला धर पहुँचा यक्ष भवन को
कान्तिहीन श्रीहीन भवन था बिना धनी धोरी का
पड़ी विरहनी औंधी बेसुध ध्यान धरे प्रियतम का
(59)
सुना दिया संदेश यक्ष का धीर बँधाया उसको
संदेशा सुनाकर प्रियतम का प्राण मिले जो तन को
सुखमय हो गई मग्न विरहिणी आदर किया अतिथि का
मानो घर भगवान आ गए ध्यान रहा न तिथि का
(60)
आई खबर कुबेर यक्ष की मेघ संदेशा लाया
प्यार भरा संदेशा सुनकर उनका मन भर आया
अंतरमन भर गया दया से तुरत शाप लौटाया
पा संदेशा यक्षपति का यक्ष लौट घर आया
मिटी विरह की पीर मिले प्रियतम प्यारी सुख पाके
कवि का चिŸा प्रसन्न हुआ निज अपनी सुंदर रचना से
समाप्त

पं. मनमोहन पाण्डे "नांदा"टीकमगढ़ M.P.