भीम पुराण भाषा दुतिय खण्ड
श्लोकः-
बन्देहं रामनाथं, गन्धमादन पर्वते।
नमस्ते सर्व तीर्थाय, लिंग रूपं सदाॅ शिवं।।
बन्दे रामेश्वरं देवं, जटा मुकुट मण्डितम।
कामघ्नं लिंग रूप च, ब्राजते जल धीस्त दे।।
सवैयाः-
शशि भाल विशाल त्रिपुण्ड लसै,अहि सोह जटान कौ जूट सुहाबै।
सिर गंग शिवा अर्धंग लसै’’दुज’’,अंग विभूत महा छावै।
डमरू कर शूल नसावत शूल,हिये पद पंकज ध्यान जो लाबै।
सरिता पति तीर पै ब्राजै प्रभू,शिव रूप अहो मन काहे ना गावै।
दोहाः- सुमर गजानन शारदा,शुक शौनक मुनि व्यास।
बालमीक हनुमंत पद,बन्दहॅु तुलसी दास।।
कहांे प्रथम अध्याय मे,परशुराम अवतार।
पिता बचन प्रतिपाल पुन,सहस बाहु संहार।।
भीम कुंड वनवास कर,धर्मराज मग लीन्ह।
चाहुॅ दिसि बरसत घन सघन,सत सरगा पग दीन्ह।।
चैपाईः- नदी सुनाड़ आड़ हॅस लीना। सुगम सोध निज मारग दीना।
नदी सुनाड़ की और कहानी। त्रतिय खंड मे कहों बखानी।
सम-सत सूमर डार निहोरी। तदपि थाह पाई नहिं थोरी।
चक्राकार भाॅवर गंभीरा। समझ परहिं नहिं तीर सुतीरा।
लोमस रिषि कह कथा पुरानी। सुनहु भूप यह अकथ कहानी।
है यह सुंदर देश हवेली। गोहुन की खेती अलवेली।
सुखी यहाॅ के चतुर किसाना। चलहिं सनातन धर्म सुजाना।
बाॅदकपुर जिला सागर के। निवसहिं सुखद नगर नागर के।
कुंडलपुर अरू नगर बनेरा। रिषभ कूट जैनन के डेरा।
जागेश्वर की प्रभुता भारी। दर्सन हित आवहिं नर नारी।
सवा लाख काॅवर चढ़जावंे। शिवशंकर के दर्सन पावें।
सिव रात्री को यात्री आवें। काॅवर चढ़ा अमित सुख पावें।
तहॅ मंदिर है पारवती कौ। नंदी गण कैलाश पती कौविप्र निधन हित शूल उपाई।
भ्रगु भग गये विस्नु के धामा। अंकुर हिये क्रोधकर जामा।
जय अरू विजय परे पद दोई। खड़े रहे पहरे पर सोई।
दुज वानी मानी नहिं रोकी। बरवस भीतर गये विशोकी।
दोहाः- पीताम्वर ओढ़े हरीं, सुंदर सेज अनंत।
मृदुल चरण चापत रमा, सोवहिं कमलाकंत।।
चैपाईः- रिषि रिस आन कही दिन खोते। सदा क्षीर सागर में सोते।
अस कह भ्रगु उर लात हनी है। जाग उठे त्रैलोक धनी है।
विहैस वचन बोले श्री कंता। कमल चरण चापत भगवंता।
कहॅ कोमल भ्रगु लात तुम्हारी। छाती कुलिश कठोर हमारी।
पीर भई हिय धीरज धरिये। सुधा सनेह लगी दुख हरिये।
सो भ्रगु लता विराजत छाती। रमानाथ की रमा सुहाती।
जय अरू विजय पार्षद डोले। तिनसो भ्रगुनायक जी बोले।
राक्षस कुल जनमों दुहु भाई। तीन जन्म जग महिं दुख दाई।
जब प्रभु धरहिं धरण अवतारा। निधन करें हरहे महिं भारा।
अस कहॅ भ्रगु मुनि पहुॅचे तहैवा। राजत ब्रम्ह्म मंडली जहेवा।
सकल कथा भ्रगु रिषिन सुनाई। विस्नु बड़े देवन मे भाई।
दोहाः- धीर वीर गम्भीर प्रभु, चिदानंद घनश्याम।
पार ब्रम्ह्म परमात्मा,सकल लोक अभिराम।।
वेही भ्रगु जिनके तनय, गाधि भये मति धीर।
गाधि सुवन कौशिक भये, ज्ञान वान रणधीर।।
जिनकी कथा अनेक विधि, फैल रही जग माॅह।
विश्वामित्र वशिष्ठ की, लिखी कवित के माह।।
चैपाईः- कीरत ललित चरित सुखदाई। जिनकी मख रघुनाथ रखाई।
भये तनय जिनके जम दग्नी। तेज पुज ज्वाला जिमि अग्नी।
अहम भाव रेवा तट वासी। करहिं यज्ञ तप ब्रम्ह्म विलासी।
क्षत्री वर्ण धर्म अनुसरही। तप बल ब्रम्ह्म कर्म सब करहीं।
क्षत्री तन ब्रम्ह्मर्षि कहाये। कान कुव्ज कुल सूत्र बनाये।
रेणुक रहे तहॅा कर राजा। हिय विचार कीन्हे शुभ काजा।
सुता रेणुका तिन्हको व्याही। दिये दायजन राजा शाही।
रेवा जल अति स्वच्छ इमरती। पाप ताप संताप सुहरती।
सुंदर वहै करोदी व्यारी। स्वच्छ घट सरिता बलहारी।
कर प्रणाम न्रप गये सकारे। रेवा तट कहॅ पुन पग धारे।
जबलपुर है नगर समीपा। देखहुं संम्भु समाज महीपा।
अस कह चले वीर अनुरागे। नव तीरथ शुभ देखे आगे।
दोहाः- लोमस रिष बोले विहंस, सुनहु भूप इतिहास।
तपो भूम पर सिध्य भई, भ्रगु मुनि कियो निवास।।
चैपाईः- वांडु सुवन बोले म्रदु वानी। वर्णन करौ कथा सुखदानी।
सुन बोले लोमस रिषी वानी। आदि सृष्टि की कथा बखानी।
ब्रम्ह्मा आदि सृष्टि के करता। स्वायंभू मनु जग के भरता।
कन्व रिषि म्रगु आदि मुनीशा। मनुबंतर छिति के अबनीशा।
येक ब्रम्ह्म विभु स्ववस विहारन। परब्रम्ह सोई जग के कारन।
अज अद्वेत अकल अविनाशी। अजर अमर विधि छीर विलासी।
महा प्रलय जग जलमय होवैं। तब अनंद धन सुख मय सोवै।
जय अरू विजय पारषद दोई। खड़े रहत सेवा कर ओई।
सहस मणिन के जहॅ उजयारे। कर कंकण कमला पर वारे।
अंगद मुकुट तड़ित आनन के। रवि शशि जोत ओप कारण के।
सेज समीप प्रभा बगरी सी। कोमल सरस सुभग नगरी सी।
फणि मणि शेष छत्र सिर ताने। ब्रम्ह्म पद्मासन शुभ जाने।
संख चक्र कर अम्बुज राजें। चारू चार भुज अंगद भ्राजे।
कटि किकणी मनोहर दमके। ससिमुख चारू चंद्रिका का चमके।
उर मणि माल पद्म दल लोचन। ललित तिलक झलके गौरोचन।
को कवि कह सक छवि आनन की। बरनि न होय सुनी कानन की।
कोटिन मारतंड शशि लाजन। महिमा किनंर लगे सु भाखन।
दोहाः- पुरूषोतम परमातमा,परम परेश पुराण।
सृष्टि सम्रष्टि समेट प्रभु, सावत्सल भगवान।।
चैपाईः- हरि इच्छा माया प्रभु केरी। प्रकृति स्वतंत्र प्रकृति मन केरी।
कमलनाभ कमलापति स्वामी। जान सकल ह्रद अंतर जामी।
पुरूष स्वरूप व्यक्ति यक नोने। जाॅचत भे का हम चहुॅ कोने।
पाॅच सीस के ईश भये जू। चार वेद के वेद नये जू।
सों वेदन की वानी रानी। प्रगट शारदा मातु भवानी।
नेत नेत सोई वेद बखाने। पाॅवर अंध जीऊ का जाने।
अंवर पीतांवर दामिन कों। नीलाम्वर झलके स्वामिन कों।
जलज माल घनश्याम सरीरा। जलज नाल सम कटि गम्भीरा।
जिमि ऐरावत गज के सुंडा। बाहु विशाल सुभाव अखंडा।
उर कौस्तुभ श्री तुलसी माला। कुंडल कानन नैन विशाला।
भ्रकुटि विलास जासु लय होई। प्रभु की प्रकट छाॅहरी सोई।
सो ब्रम्ह्मा हिय क्रोध अपारा। को मैं को है सिरजन हारा।
तब ब्रम्ह्मा ने लई जमुहाई। शक्ति शक्तिधर शक्ति बनाई।
रूद्र रूप ह्व रूद्र दिखाने। रूद्र देवता शंकर माने।
विषम गरल विषपान कराये। तदपि रूद्र नहिं मरे मराये।
महादेव देवन के देवा। ईशमीश की कीजे सेवा।
तीन देवता येक बरावर। भेद कहै सो मो सम पाॅवर।
सृष्टि हेत तिन्ह कियो उपाई। प्रकत रूप यक शक्ति बनाई।
प्रगट भई भुज मे लपटानी। सरस मेह जिमि गोरस पानी।
ब्रम्ह्मा सष्टि तनय उपजाये। सप्त रिषीश्वर पिता कहाये।
भ्रगु वंसी म्रगुजी पहचानी। परसराम अवतार बखानी।
यह शुभ कथा ललित प्रिय लागी। आगे कहत प्रसंगहि त्यागी।
दोहाः- ब्रम्ह्म ब्रम्ह्म की ब्रम्ह्म मे, लागी ब्रम्ह्म समाज।
तीन देव मे कौन बड़, निर्णय कीजे आज।।
चैपाईः- ब्रम्ह्मा बड़े सष्टि उपजाई। रूद्र देव सम देव न भाई।
सबसे बड़े विष्नु भगवाना। उन से परे देव नहिं आना।
भ्रगु ऋषिवर यह मने विचारे। लैन परीक्षा हेत सिधारे।
प्रथमहिं गये ब्रम्ह्म के लोका। देखे ब्रम्ह्मा विगत विशोका।
बोले भ्रगु मुनि सुनहु विधाता। करहु कुचाल कर्म दिन राता।
निज पुत्री पर नियत विगारी। ताते चैमुख भये अनारी।
सुन विरंचि तब उठे रिसाई। पिता पुत्र की ठनी लराई।
पुन भ्रगु रिषी कैलास सिधारे। रूद्र देव सन वचन उचारे।
शक्ति संग में वदन उघारे। तुम्हे न लोक लाज भय नाही।
शंका नहीं निशंक सदा ही। सुनतन कोप कियो मदनारी
तिनके तनय भये श्रुत धारी। परसुराम तिन्ह में अवतारी।
अब सुनिये न्रप कथा रसाला। परसराम के चरित विशाला।
दोहाः- वैसाख सुदी दितिया दिवस, मातृ रेणुका कूॅख।
त्रेता युग वीसी सुभग,इकतिस अस्सी मूख।।
वीर मातु ने वीर को, दियो वीर उपदेस।
वीर धीर रणधीर,सुत धरोवीर को भेस।।
चैपाईः- वेद पाठ नित करहिं सुजाना। तेज पुंज तन तेज निधाना।
सदा मातु पितु सेवा करहीं। वचन प्रमान मान अनुसर हीं।
अशुभ देख हिय परी खटाई। पिता मातु से गये रिसाई।
क्रोध क्रसानु ज्वाल हिय वाढी। चोटी धर ग्रह बाहर काढ़ी।
आश्रम परसुराम जब आये। पिता बिहाल देख दुख पाये।
मातु पिता सुत आज्ञाकारी। परसुराम सुन बात हमारी।
मातु मंुड काटो अब लाला। सुनो गुनो पुन पीछे हाला।
पितु आज्ञा जे पालन करही। विन प्रयास भवसागर तरहीं।
पितु आज्ञा रघुनंदन मानी। वनोवास की अकथ कहानी।
पितु के वचन मान सुख पाये। मातु मुंड लै पितु ढिंग आये।
फरसा परसराम धर दीन्हो। पिता वचन परपूरण कीन्हो।
दोहाः- अति प्रसन्न जमदग्न भे,देख पूत करतूत।
वरंब्रूहि दैहों तुरत, तू है पूत सपूत।।
चैपाईः- तीर्थ रेणुका भयो अनूपा। भ्रगु आश्रम यह लख नर भूपा।
परसुराम बोले मुसकाई। देहु पिता मम मातु जिवाई।
क्रोध शांत कीन्हे जम दग्नी। पानी परत बुझे जस अग्नी।
तुरत जिबाय रेणुका तबही। सुत की प्रेम परीक्षा लीन्ही।
होय ब्रम्ह्म कुल ऐसे बालक। माता पिता आज्ञा प्रतिपालक।
धरा धरम की लाल बचावे। जिनके सुयस केतु फहरावे।
संपत दंपत देख सुखारे। परसराम तप करन सिधारे।
रेवा तट यक परम अनूपा। मडला नगर तहाॅ कर भूपा।
सहस वाहु अर्जुन रणधीरा। आयो रिषि आश्रम बलवीरा।
जमदग्नी कर साडू सोई। रेणुक सुत कर सो बहनोई।
अतिथि जान रिषि पूजा कीन्ही। कुश व्रष संग जाय शुभ दीन्ही।
झीले पाॅच रूधिर की भारी। पंज आब के देश मझारी।
वही पंचनंद तीर्थ कहायो। परसराम निज तीर्थ बनायो।
पृथ्वी-राज दुजन कर दीन्हा। सकल भूम कर क्षत्र बिहीना।
ऐसे परसराम अवतारी। कीरत विमल चन्द्र उजयारी।
क्षत्री रहे प्रथम बरयाने। गुरू ब्राम्ह्मण गौ संत न माने।
करहिं अनीत प्रजा धन लूटे। बिन अपराध दस्यु सम कूटै।
प्रजा मार ग्रह लेत छुडाई। दुगुण लेहिं कर तजहिं न पाई।
दोहाः- सकल विधरमी निधन कर, दुजकर दीन्हो राज।
परसराम अवतार की, कथा कही महाराज।।
इति श्री भीम पुराणे दुतिय खंडे महाभारतान्तर्गत भुगुआश्रम परसुराम अवतार कथा वर्णनोनाम प्रथमोध्यायः-1
दोहाः- कहों दुतिय अध्याय मे,महिकल सुता चरित्र।
दुर्गा देवी रण लिखों, जा सुन होय पवित्र।।
कौशिक मुनि के संग, प्रभु धनुष भंग जब कीन्ह।
भगे जनकपुर आपही, धनुष राम कन्हॅ दीन।।
परसराम श्रीराम कौ, परौ विविध सम्वाद।
रामायण मे सोइ कथा, कहों राख मर्याद।।
चैपाईः- कर अस्तुत तप करन सिधारे। गये महेन्द्र अचल पर प्यारे।
गिर महेन्द्र महॅ कपि दल छायो। जहाॅ सेतु श्रीराम बॅधायो।
द्रबिड देश रामेश्वर द्वीपा। गिर तीरथ बैताल समीपा।
कस्यप रिषि तिहिं अबसर आये। कोप शांत दुज के करवाये।
शैल विशाल मनोहर जीकौ। अमर-अमरकंटक है नीकौ।
चहुॅ दिस महिकल शिविर सुहावन। तरूवर चुम्बत नभ मन भावन।
रेवा तट बट बृच्छ घनेरे। आश्रम सुखद तहाॅ मुनि केरे।
घाट मनोहर निर्मल नीरा। सम्भु समाज विराजत तीरा।
सकल सपक्षक सुमन मनोहर। सघन विपिन गंुजे उड़ मधुकर।
वाघ,बराह,सिंह,गज माते। कलरव खग मृग करहिं सुहाते।
दोहाः- वंस मूल महिकल सुता, प्रगटी बाल स्वरूप।
क्षीर धार पय पान कर, भई कन्यका रूप।।
चैपाईः- टोर फोर कर गिरवर बाॅके। पद पखार उत बहुर न झाॅके।
कंचन ग्रह शीतल अमराई। उप बहरा अरू सेज तुराई।
षट रस विजन सुधा समाना। भोग विलास मनोहर नाना।
नहिं श्रुत सुने द्रगन नहिं देखे। कामधेनु दुह दिये अलेखे।
देख भूप रिषि की प्रभुताई। हिये डाह मन माह समाई।
दोहाः- सहस बाहु कर जोरकर, बोले वचन प्रतीत।
नाथ गाय यह दीजिये, जो ऋषियन की रीत।।
चैपाईः- मुनिवर विहंस कहिं म्रदुवानी। राजन राजनीत नाहिं जानी।
महाराज तुम इन्द्र समाना। भवन भरे सुख संपत नाना।
दुज वनवासी सदा भिखारी। प्राणन प्यारी गाय हमारी।
आश्रम वासन की गौ माता। गोरस प्राण दान की दाता।
करत सदा गोधन निर्वाहू। दई न जाय सुनिय नर नाहू।
सहस बाहु बल के अभिमानी। बरबस गाय छीन ग्रह आनी।
थकत रहे थांडे़ दोऊ प्राणी। लोचन नलिन धार बहॅ पानी।
दंपत बिना विसूरत गैया। जैसे विहिन बिना यक भैया।
दुखी भये लख आश्रम वासी। गौ माता बिन भये उदासी।
परसराम पहुॅचे तिहिं काला। कहयो जनक जननी सबहाला।
दोहाः- कसी कमर हित समर के,फरसा लीन्हो हाथ।
सुमर गजानन को चले,कोई लगो ना साथ।।
चैपाईः- पहुॅचे जाय भूप दरवाजे। सिंह पौर नरसिंह गराजे।
जटा जूट की लर फटकारें। कधा चीपिया झोली डारें।
जुगल पाण फरसा पर दीन्हें। औज मौज नैना रंग भीने।
बल कल चीर काठ कौ पीना। मूज मेखला म्रदुल नवीना।
पीत जनेउ पुनीत सुहाबे। रूंद्र माल कंठा उर लाबे।
भाल विभूत त्रिपुंढ विराजै। मृग छाला कर दाहिन राजै।
अरूण नैन भ्रकुटी रिष बंका। डाहन चहत मनहुॅ यक लंका।
फरकत अधर कोप कर कंपे। जिमि शशि सूर्य राहु ग्रह झंपै।
तेज निधान क्रशानू समाना। बोले वचन क्रोध युत नाना।
तनक दया मन मे नही आनी। अपर कौन तुम सौ अभिमानी।
जो बल शेष बाहरे आवहु। करतब अपने आन दिखा वाहु।
नहिं तो गऊ हमारी दीजे। नाहक वैर न भूपत कीजे।
डाट डपट ललकार सुनाई। सन मुख ह्वै फटकार बताई।
यह सुन कार्तवीर्य सुत आयो। सो प्रथमहिं यमलोक पठायो।
लपट झपट भुंडा से काटे। साहस बाहु अर्जुन के छाॅटे।
भगी बिडर अर्जुन की फौजे। देखत परसराम की औजे।
फरसा मार नीव धर काटी। भूम डरे न्रप चाटत माटी।
दोहाः- टोर द्वार भीतर गये, गाय दुर्ग से छोर।
भ्रगुनंदन तप तेज बल, बहुरे गाय बहोर।।
चैपाईः- क्षत्री पुन बैरी पुन राजा। मान गलान मान हिय लाजा।
पिता वैर की जब सुद आई। पहुॅचे अर्जुन सुत सत भाई।
मार भूम जमदग्र गिराये। अग्न कुंड मे मुंड सिराये।
तितर वितर कर मख की सामा। पूर्णाहुत कर बहुरे धामा।
परसराम वन ईधन हेता। गये रहे आश्रम के नेता।
बहुर हाल देखे माता के। पिता देख तन पर गये ताते।
पितु की क्रिया यथोचित कीन्ही। क्रोध कुठार बहुर कर लीन्ही।
सुन उपदेश वीर माता के। करत विलाप कलाप छता के।
सिर धुन कूटी निज छाती। पुन-पुन सुध कर-कर बिलपाती।
हाय नाथ हा नाथ पुकारी। नदी धार द्रग मोचतवारी।
विधना विधवापन मोह दीन्हों। सहस बाहु पुन अपयश लीन्हो।
दोहाः- परसराम धीरज दियो, निज मातहिं समुझाय।
क्रोध अघं प्रज्वलत भई, चढ़े दुर्ग पुन जाय।।
चैपाईः- विवर छोड़ अहिं धावत जैसे। तड़ित शैल पर छूटज जैसे।
झपट बाज जस लबा दिखाबै। करियहु देख सिंह जिमि धाबै।
जो जहॅ मिले तहाॅ सो मारै। तकत फिरे कोउ पोंर उसारे।
कंठ कुठार धार से काटे। डाबर भरे रूधिर सब पाटे।
दल बल सह अर्जुन संहारा। बचो न कुल कौउ रोवन द्वारा।
पुन दारूण प्रण प्रभु ने कीन्हा। मही करों सब क्षत्र विहीना।
गर्भक अर्भक मार गिराये। क्षत्री सुने तहाॅ चढ़ धाये।
़क्षत्री वंस भरे के नाते। पुतरा बचो न येकहु पाते।
वार इकीस वार भो सपनो। ताड़ित कियो मातु उर अपनो।
परसराम बल वीर प्रचंड़ा। बार इकीस किये रिपु खंड़ा।
टोर फोर गिर विवर समानी। पश्चिम दिसि पर चली भुमानी।
मधुर मनोहर अंबा नारे। सरित सरोवर पग-तर डारे।
रूप पसार धार समुहानी। पहुॅची सहस बाहु रजधानी।
मड़ला नगर अनूप सुहाये। पर्ण कुटीर तीर मुनि छाये।
आश्रम तपसिन विविध बनाये। सहस बाहु न्रप घाट बनाये।
मंदिर संुदर कंदर जानो। रेवा कंकर शंकर मानो।
ब्रम्ह्म घाट ग्वारी के नीके। भेड़ाघाट मनोहर जीके।
भ्रगु मुनि के आश्रम सुख दाई। वान गंग के संगम भाई।
भेड़ा पर गो नाम धरायो। यातें भेड़ा घाट कहायो।
कपिल धार उदगम अस्थाना। कपिल तपस्या के परमाना।
क्षीर धार रीमा की सीमा। चालिस मील नीर बह धीमा।
संगमरमर के महल समीपा। सरस धार ह्वै बहत महीपा।
टोर फोर कीन्हे तहॅ माई। धुवाॅधार सी प्रगट दिखाई।
शैल संगमरमर के फोरे। तट बट बृच्छ अनेकन टोरे।
मदन महल गिर सिविर सुहाये। मदन महीपत रूचिर बनाये।
दोहाः- मदन महीपत के चरित,येक शिला पर देख।
बने आठ सौ बरस के, लिखे सिला पर लेख।।
चैपाईः- चैरागढ़ के दुर्ग बनाये। गाड़रवारे नगर बसाये।
पन्द्रा सौ के सतक महीपा। भये संग्रामशाह कुलदीपा।
दलपत शाह तनय तिन केरे। ते चंदेली वीर बड़ेरे।
व्याही दलपत दुर्गा देवी। वीर नरायण सुत भये सेवी।
तिन सिंगौर मठ दुर्ग बनाये। रानीताल जबलपुर छाये।
तिनके राज्य प्रजा सुख पाई। बसै स्वबस आनंद से भाई।
खेती उध्यम करहिं किसाना। मुहरन के वे देहिं लगाना।
कीन्ही अकबर फौज चढ़ाई। दुर्गा देवी सनमुख आई।
सिधुर उठे सहस्त्र सजाये। अष्ट सहस्त्र सवार गिनाये।
पैदल गौड़ चले रणधीरा। तीर कमान लिये कर वीरा।
श्री दुर्गा की जय-जय बोले। वाने हाथ लिये छित डोले।
कारे भेष नयन रतनारे। कसें कमर असि लिये दुधारे।
तीर कमान बान हन मारंे। सरितन वहीं रूधिर की धारे।
पुन भॅडोच के पुर मैदाना। खेलत फिरी खेल चैगाना।
सरिता पति संभात मुहाने। संगम कीन्हों खोल दहाने।
गौर हिरन बंजर सुखदाई। शेर तवा शंकर देव बाई।
जंजालन जुर करी सहाई। सरिता पति के संगम भाई।
पुल अंगरेजन नये बॅधाये। झूॅसी घाट भड़ोच सुहाये।
मीर तकी कर टका लगायो। येक दूसरौ काव्य बनायो।
दोहाः- यह विधि भ्रगु अस्थान की, कथा कही रिषिराज।
रेवा की सेवा करें, मेवा मिलै स्वराज।।
इति श्री भीम पुराणे महाभारतन्तर्गत नर्मदा माहात्मये उत्पत्ति भ्रगु मुनि परसराम अवतार,दुर्गादेवी संग्राम वर्णनो नाम द्वितीयोध्यायः-2
दोहाः- कहों त्रतिय अध्याय में, साधुचरित सानंद।
साॅई खेड़ा मे भये, संत केशवानंद।।
चैपाईः- महाराज चलिये अब आगे। वर्ष त्रयोदश के दिन लागे।
गोड़ी देश भूप ग्रह नोने। रमा वास हर ग्रह-ग्रह सोने।
नगर देखिये गाड़र वारे। ताल विशाल भरे नद नारे।
गोधन ठाट विराट रजा के। हरित चरत त्रन हरिन मजा के।
है सुहागपुर भूप मनोहर। नीर क्षीर चाॅवर अति सोहर।
अस सुन भूप किये रूज नाना। माॅजे अस्त्र सस्त्र विध नाना।
अब लग सो लुहॅगा सम पानी। जल की महिमा प्रगट दिखानी।
गोंड़ी कौसन साॅई खेरा। संत केशवानंद बसेरा।
चरित अनंत येक दो कहिये। साधु चरित सुन पातक दहिये।
दादाजी के चरित अलेखा। कहहुॅ सुनहुॅ निज नैनन देखा।
रहो कूर्म वंसी यक बालक। गोधन अन धन धन प्रतिपालक।
येक अकेला सुत उन जायो। सम्भु प्रसाद भाग बड़ पायो।
विधि बस भयो काल कर ग्रासा। दंपत कुर्मी भये निरासा।
दादा जी को हाल सुनायो। तिनको मृतक उठाय दिखायो।
त्रोटक सौं कछु दादा कीन्हों। तुर्त जिवाय तासुसुत दीन्हों।
कुर्मी करामात जब जानी। भये दादा जाहर बर्दानी।
कुर्मी सर बस अर्पण कीन्हो। मंदिर अंदर ड़ेरा दीन्हो।
जग जाहर बगरी प्रभु ताई। दर्शनहित गये लोग लुगाई।
बजी दुहत्तन से तरवारै। वीर चीर से चीर उतारें।
कुध्य युद्ध बस भई भुमानी। वीरन जोश देत मरदानी।
मारत गोंड़ तीर तक छाती। तनी सुतनियन की खुल जाती।
अल्ला कहत मुसल्ला भाजें। हल्ला देत गोंड़ रण गाजें।
दुर्गा दुर्गा रूप बनायो। वाहन सिंह गजेन्द्र सजायो।
दोहाः- ह्वै सवार आगे चली, पाछें गोंड़ी फौज।
प्रावट रितु उमड़ी मनहु, यमुन धार की मौज।।
चैपाईः- ओढ़ चुनरिया तन कुसमानी। चोली हरी कसी मुलतानी।
कर कंजन कंचन की चुरियाॅ। जूरे कसी रेशमी डुरियाॅ।
माथे कौं बेंदा चटकीलो। चिवुकन गुदना अधिक रंगीलो।
कसी समर हित कमर भुमानी। भई सनमुख लै तीर कमानी।
वीर चंदेल महुविया पानी। वीर अंगना पुन क्षत्रानी।
खेंच कमान वान संधाने। बादशाह के वीर पराने।
सैनिक चार चतुर तक मारे। गोंडन हिन्दू तुरक विगारे।
भरे रूधिर कुंडा गज सुुंडा। गह मुंडा नाचहिं चामुंडा।
विछुआ गुरज कुठार लुहाॅगी। तोमर सिंघर असि साॅगी।
बोड़ादार तुवक गज खाती। मारत दाव दाब कर छाती।
तोप लोप कर देत पहारा। छर्रा करत हृदे के छारा।
दोहाः- परसा पंजा शेर कें, हने ठाल तरवार।
मुक्का ठुस्सा दाव सें, चोट करत है मार।।
चैपाईः- मुगलन ने जब मुॅह की खाई। रजपूती रजपूत बताई।
मान सिंह सैनापति आये। निज बल जौहर प्रगट दिखाये।
जेई हैं वे हिन्दू राजा। जा निवाज परहिं नमाजा।
अकबर सुत सलीम के सारे। सेनापति अकबर के प्यारे।
सवा पहर लोहा सन लोहा। बाजे करे येक के दोहा।
भागे गोंड़ छोड़ रणधीरा। सहे न जाॅय वीर के तीरा।
दस पच्चीस तीस रहे साथी। दुर्गा चढ़ी अकेली हाथी।
सैनक सेन तीर तक मारे। चले द्रगन वह रूधिर पनारे।
करनी करी जगत ने जानी। गिरी धरन करिनी से रानी।
फौज अस्थी के ढेर लगाये। वारे गाॅव बरेला जाये।
रूधिर सने कंकर चमकीले। डेढ़ मील तक भये रंगीले।
बने चैंतरा बनो विसाला। गज चालीस मनोहर ताला।
जे तीरथ कें यात्री जावें। तापर कंकर उठा चढावें।
दोहाः- जबलपुर से फिर चली, पहुॅची लखनादौन।
सघन विपिन विजना नही, विंध्याचल की कौन।।
मिली छपरहा सतपुड़ा, बेनु गंग मंे जाय।
किला शिला गिरि बेनु के, सिवनी पहुॅची माय।।
चैपाईः- बालाघाट गोंदिया प्यारी। सरित कन्हान कामठी न्यारी।
दक्षिण सिंधु हैदराबादी। नाग वंस की घनी अवादी।
ते पाताल लोक सें आये। नाम नागपुर शहर बसाये।
नाग नदी तहॅ बहै अनूपा। जम्बाताल मनोहर भूपा।
महाराज शुभ बाग लगाये। अमित जानवर विपिन रखाये।
हौज मौज लवरेज भरायो। सिंधुर सिल को तहाॅ बनायो।
संुडधार नल कल ज्यों पानी। नागराज की बनी निशानी।
गोंडी किला बने प्राचीना। पता बताबत जड़े नगीना।
सीता बरही किले बनाये। तहॅ अंगरेज छावनी छाये।
यह सुन कथा भूप अनुरागे। लोमस रिषि सों पूछन लागे।
संगम सरिता पत के कहिये। जाके सुनत मगन मन रहिये।
सुनहु भूप हम कहत बखानी। चली अग्र तब धार भुमानी।
तीर-तीर शुभ आश्रम नाना। ऋषि मुनि तपसिन के अस्थाना।
दोहाः- विंध्याचल के बीच में, छेद सतपुड़ा सैल।
गई मान धाता निकट, अचल विचल कर गैल।।
चैपाईः- तप बल देस दिये वरदाना। संम्भू जल मे वीर समाना।
ओंकार हंुकार लगाई। काबेरी तन दो भये भाई।
विमल साल विमलेश्वर दीन्हों। भूप मनोरथ पूरण कीन्हो।
गौरी शंकर नाम शैल के। सुंदर तीरथ बने गैल के।
परकरमा में सम्भु समाजा। ब्रम्ह्मपुरी शिवपुरी स्वराजा।
गोपीनाथ सनावद वारे। रेवा तट शुभ सदन सम्हारे।
मंडलेश्वर से माहेश्वर लों। धूनी रत्न सार के पुरलौं।
माहेश्वर मंदिर बनवाये। माई अहिल्या के यस छाये।
मन में जो मनोर्थ जिन्ह कीन्हा। दादा जी मन बांछित दीन्हा।
दोहाः- दीनन कों धन-धन दिये, बंध्यन दीन्हें पूत।
लाभ दियो व्योपार मे, लगे भगाये भूत।।
चैपाईः- सेठ रामपुर कौ यक आयो। दंपत सुखी भयो सुत पायो।
तहाॅ धर्मशाला बनबाई। तामें सदा समाज बिठाई।
भेष दिगम्बर अंबर धारी। दर्शन हित जावै सिंसारी।
मगन नगन शिव मंगल भेषा। जटा लटा नहिं लुंचित केशा।
सदा येक रस रहत उदासी। भेष दिगम्बर ब्रम्ह्म विलासी।
पूरित नीर घड़ा माटी कौ। धूनी धरी कमंडल नीकौ।
डंड़ा वाॅस पास मे राखे। अट सट कछु मुख से भाखें।
भोजन थार लिये कर चेला। लगो रहत जनता कौ मेला।
जापर तनक कृपा कर हेरे। भोजन लेत शीस कर फेरे।
जातन डंड़ा तनक छुवायो। वाने मन वांछित फल पायो।
सकल वस्तु धूनी मह ड़ारे। हो प्रसन्न डं़डा जब मारे।
जो इच्छा कर ग्रह से आवें। जन के मन की प्रगट बतावे।
जा की होने होय भलाई। देत असीस ताह मन आई।
येक समय यक दुजवर आयो। धन हित लैं पुराण मन भायो।
ता ग्रह सुता किशोरी क्वाॅरी। धन विन क्वाॅरी रही विचारी।
दोहाः- लै पुराण गे विप्रवर, जहाॅ केशवानंद।
मत गत जानी आप, जो बैठारे सानंद।।
चैपाईः- पूरण भई भागवत जबहीं। चढ़े पंचसत मुद्रा तबही।
पूरण भई विप्र मन चाही। आकर सुता आपनी व्याही।
ऐसे संत चरित्र अनेका। सत्य मान हिय करहु विवेका।
संतन की महिमा अस भाई। करहिं सहाय सदा सघुराई।
अकथनीय संतन के चरिता। आगे सुनहु द्रोपदी भरता।
वेणु नदी वह पावन गंगा। प्रगटी वेणु राज के अंगा।
प्रथु के अंग मथे गये जवहीं। वेणु गंध से प्रगटी तबहीं।
यह हरिवंस पुराण बताये। उनके सुयश कहाॅ हम गायें।
यही वेणु के दुर्ग दिखावे। उनके जसके पता बतावे।
आगे राम टेक कुरूराई। वनो वास निवसे रघुराई।
भूपत जाय निमज्जन कीन्हा। विविध दान महि देवन दीन्हा।
पूॅछत भये भूप इतहासा। कहन लगे दुज सहित हुलासा।
गौतम ऋषि जानत सिंसारी। जिनकी सती अहल्या नारी।
परम सुंदरी नार अनूपा। देख रूप मोहे सुर भूपा।
अर्धरात्रि धर तमचर भेषा। दई गुहार दुआर सुरेसा।
दोहाः- ब्रम्ह्म महूरत जानकें, जप पूजन समान।
नित्य कर्म के धर्म जो, करन गये असनान।।
चैपाईः- गौतम भेष सुरेश बनायो। सती अहल्या के ढिंग आयो।
बोली परम सती रिष नारी। किहि कारण बहुरे श्रुतधारी।
अर्धरात्रि नहिं भयो विहाना। सोवत वरूण देव अस जाना।
उस कह प्रेम सहित रतिठानी। तिहिं अवसर आये मुनिज्ञानी।
देख सुरेश श्राप रिष दीन्हा। होंय सहस भग अंग अधीन्हा।
पति वंचक तू नार हमारी। उपल देह अब होय तिहारी।
अभय जोर कर दुहुॅ रिष आगे। श्राप अनु ग्रह के वर मागे।
विहॅस वचन बोले मुनिज्ञानी। नहिं सुरेश जिय मान गलानी।
त्रेता मनुज रूप हरि धरिहॅ। अवध भुआल अवध अवतर है।
कौशिक मुनि मखकी रखवारी। करहे दशरथ अजिर विहारी।
तिरहुत देश जनकपुर माही। धनुष जज्ञ न्रप जनक कराहिं।
सुता स्वयंवर भूपत करहैं। तिनको श्री रघुनंदन बरहें।
दोहाः- यह मग जब प्रभु आवहीं, पुण्य पुरातन भूर।
तर जैहो यैही सुगत, देहि छुआ पगधूर।।
सोरठाः-
छवि देखन के काज,सहस नयन हूहें सुभग।
मगन भयो सुरराज,गमन कियो निज भवन तज।
चैपाईः- उपल रूप भई गौतम नारी। त्रेता रामरूप ह्व तारी।
ब्याह उछाह अनंद अपारा। सुभग भये भग नयन हजारा।
गौतम रिषि तप करन सिधाये। ब्रम्ह्म नील गिर पर सुख पाये।
आसन मार ब्राज कमलासन। शिव-शिव नाम लगे आराधन।
नील ब्रम्ह्म गिर ब्रम्ह्मा आये। प्रगट भये करतार सुनाये।
बरम्वूह विधि बोले वानी। सुन मुन देख वेद सिर वानी।
सुंदर भूम सरोवर नीकौ। अंवारा शुभ नाम उसी कौ।
भोगवती गंगा सुखदाई। संगम हित महितल से आई।
न्रप सूरज वंसी इत आयो। कुष्ट गयो कंचन तन पायो।
सीताराम चन्द्र सुखरासी। दंडक वन निवसे मुदरासी।
यक्ष श्राप बस कियो निवासा। जाकौ मेद्यदूत इतहासा।
प्रथम गोंड़यानी रजधानी। भये शिवा जी पुन बर्दानी।
निज विक्रम से उन महिं जीती। भयो मरहठी राज्य सुनीती।
रामदास गुरू की कर सेवा। सेवा से सेवा कौ मेवा।
रामदास पवनात्मज जानो। हनुमान अवतार बखानो।
श्लोकः- क्रतेतुं मारूत्वा-ख्याश्च, त्रेता याम पवनात्मजः।
द्वापरे भीम संज्ञश्च, रामदास कलौयुगे।।
चैपाईः- दास वोध शुभ ग्रंथ बनायो। गुरू चेला सम्बाद सुहायो।
तामें यह शुभ कथा बखानी। तिनकी महिमा प्रगट दिखानी।
पंचबटी में मठ जिन केरे। पंढरपुर मे देखे मेरे।
राम सुयस के भये पताके। बगरे देशन शाकै जाके।
दोहाः- नाग वंस के जानिये, यही मरहठा लोग।
शेष महेश प्रताप से, करत अबै सुख भोग।।
बंवई से छत्तीसगढ़ जिला नागपुर जान।
राज्य शिवाजी कौ भयो, लिखो मिलो परमान।।
इनके चरित अनेक विध, लिखे कविन के नाह।
जिनके बल विक्रम सुने,कंपै दिल्ली शाह।।
भये शिवाजी वंस मे, राजा रघुवाराव।
रजधानी उनकी यही, देखौ वंस प्रभाव।।
चैपाईः- सरित सरोवर के जल ढरिये। रामचन्द्र के दर्शन करिये।
कंचन मणि सिंहासन नोने। वे ब्राजे घनस्याम सलोने।
घन-घन संुदर कंदर राजे। मंदर अंदर राम विराजे।
छवि श्रंगार को कहै बखानी। गिरा अनयन नयन विनु वानी।
नदी कन्हाय देखिये भूपा। शहर नागपुर वनो अनूपा।
फल रसाल छीता फल नाना। नामी होत यहाॅ के पाना।
सार सेतु सरिता के नोने। अंगरेजी सेना हर कोने।
सोभा कही प्रथम जो जानी। अब आगे पुन कहत बखानी।
तक्षक वंस नाग की पूजा। हिन्दू धरम अपर नहिं दूजा।
आन वान दुर्गा की माने। धरंे जवारे छेदे वानें।
दक्षिण सिंध सिंध के वासी। मानत नाग नाग अबनासी।
ये पाताल लोक सें आये। नागपुर मे दुर्ग बनाये।
चील्हा चाॅबर इमली चुरूवा। मिरचा दीन मीन के सुरूवा।
भोजन देश भेष के कारे। अंग अभूषण है मन यारे।
कुकरा बुकरा के बलिदाना। भाव बैठ के ग्रह-ग्रह नाना।
दोहाः- गढ़ा जिला छत्तीसगढ़, जुगल नर्मदा तीर।
मड़ला अरू सागर किला, राज्य गोड़िया तीर।।
सभ्य भये हर देश के, पढ़-पढ़ विद्या लोग।
जात-जात मे हो गये, भांत-भांत के भोग।।
जाय वसे जिहि देश मे, नाग देस से वंस।
महाराष्ट्र के देश मे, महाराष्ट्र अबतंस।।
अमरपुरी अमरावती, अमर नाग के वंस।
कोल अकोला में बसे, कोल गोंड़ उप वंस।।
येक सिखर गिर पर धरी, भीम सेन की लाठ।
अब लग मग से देखिये, वरषे बीसी साठ।।
चैपाईः- पंचबटी देखहु कुरूराई। पंचबटी छाया सुखदाई।
शैल विशाल मनोहर कंदर। पांडव यहाॅ बनाये मंदर।
पांडव गुफा नाम है भाई। सुख प्रद करन विचित्र सुहाई।
फूले फूल दूव मुसक्यानी। झिरत झील से झिरना पानी।
राम वास थल सुथल निहारे। गिरवर राम सेज के प्यारे।
ग्रद्ध राज के कुंड अनूपा। सिया सरोवर देखे भूपा।
गोदावरी तीर सिल मंदर। सियाराम झाॅकी अति सुंदर।
तपो भूम रज भूम सुधासी। संत समाज देख मुदरासी।
सिया हरण की कुटी निहारहु। पर्ण कुटी इत रही विचारहु।
जैनी मंदिर बने विशाला। शैल सिखर पर भूम सु ढाला।
त्रिमुख नाथ शिव दर्शन कीन्हे। ब्रम्ह्म नील गिर स्वागत दीन्हे।
गौतम रिषि तप बल जो आनी। प्रगटी गोदावरीह भुमानी।
चार सीसपर मुकुट विराजें। आनन जोत ओप रवि लाजें।
मकराकत कंुडल कानन के। स्वच्छ त्रिपुंड सुभ्र आनन के।
सुमन माल रूद्राक्ष विशाला। हीरन हार कंठ मणि माला।
अंगद चारू चार भुजधारी। चार वेद कर हंस सवारी।
हाथ कमंडल गंगा जल के। चरणामृत अघ नासन कलि के।
ब्रम्ह्म तेज लखि मुनि सिर नायो। पाण जौर जुग वचन सुनायो।
पापनाशनी सुससरि धारा। दीजे नाथ करै अघ छारा।
हॅस बोले विधि गिरा सुहाई। जग तारन धारन कों भाई।
ऐसे नीलकण्ठ बर्दानी। कियो पान विष इम्रत जानी।
शिव प्रसन्न जो हो परिकेशा। मेट सकहिं जो कठिन कलेसा।
मुनिवर सुनी ब्रम्ह्म कर बानी। जपन लगे शिव औघड़ दानी।
दोहाः- महादेव सम देव नहिं, प्रगट भये तत काल।
अस्तुत करत बजाय मुख, गाल और करताल।।
चैपाईः- मुनिवर अपनी व्यथा सुनाई। यथा कथा विधि की समुझाई।
इतनी कृपा करहु अब स्वामी। जा मेहोय न जगबदनामी।
भल ब्रम्ह्मा अस मंत्र विचारा। धर हों सीस गंग की धारा।
अस कह सम्भु जटा छुट कारे। बाघांम्बर अंबर फटकारे।
अटपट कटि सें कसी लॅगोटी। झट पट भंग रंग धर घोंटी।
मुंड माल रूद्राक्ष नियारे। झलकें कानन कुुंडल प्यारे।
बाजूबंद नाग फन प्यारे। चंद्र लिलाट करहिं उजयारे।
चरन पेंतरा बदल धरे हैं। लै त्रिशुल हर बदल परे है।
सवैयाः-
विखराई जटा शिवशंकर ने,जनुकारी घटा छितपै छहरानी।
हृद बेंकटि नागिन से कसकें,हॅस के किये लेत मानो नभ पानी।
विधि बूॅद तजी जो कमंडल से,कर कोप हॅसी सरिता पत रानी।
तन चीर कें धार जु तीन भई,तब छार कछार में धार भुलानी।
दोहाः- तीन विन्दु लख ईस ने, तीन बनाये शीस।
त्रिमुख नाथ त्रिवंक भये, पारवतीके ईस
चैपाईः- तीन बिन्दु विधि कर सन छूटी। सुर सरि धार स्वर्ग से टूटी।
कियो कोप गंगा हिय भारी। धॅसे अवनि गिर सहित पुरारी।
सुरभी तन धार पुकार उठी,प्रभुदीन दयाल करौ गरूआई।
दुख दूर करे न सुने विनती,यह औसर कोई न होत सहाई।
घनस्याम न देर अबेर करौ,अब काटो कलेश रमेश गुसाई।
दोहाः- सुन पुकार सुरधेनु की,विनय न वारिद मेह।
गगन गिरा गंभीर भई,हरण शोक संदेह।।
सवैयाः-
सुनकें करूणा करूणा निधि की,घन घोर गराज भई नभ वानी।
प्रगटें नर भूषण चार जने,सरजू तट औध करें रजधानी।
भुव मंडल मे नभई प्रगटे,तब वानर भालु धरौ हित मानी।
धर धीरज क्लेश निवारिये जू,जग रेहै न रावण राज निशानी।
चैपाईः- जग हित धरहों मनुज शरीरा। दनुज निधन कर हरहों पीरा।
अंसन सहित अवध अव तरहों। विश्व विमोहन लीला करहों।
मनु महाराज सती सतरूपा। जिनसे भइ नर सृष्टि अनूपा।
सुत सुख रूप ब्राम्ह अनुरागी। अति तप करे सुभग वर मागी।
सरजू तीर अवध रजधानी। दशरथ भये कौशला रानी।
सुत के हित न्रप जग्ग कराई। श्रंगी रिषि गुरू लिये बुलाई।
जब सोई जग भई परपूरण। दियो हुतासन पायस चूरण।
अभय भाग न्रप ताके कीन्हे। कौशिल्या कैकई कर दीन्हे।
अपने-अपने हीसन मे से। दिये सुमित्रा के दो येसे।
गर्भवती भई तीनो हुॅ रानी। प्रसव काल विधि देवन जानी।
अस्तुत कर विधि भवन सिधारे। प्रगट भये जग के रखवारे।
सवैयाः-
(1) चैत्र सुदी नममी दिन की,ग्रह योग महूरत धन्न धरी है।
सूरज वंस के हंस भये,महराजन की शुभ गोद भरी है।
दान दिये महि देवन को,सुत के हित पूरण जग्ग करी है।
मेटन हेत कलेश अहो,अवधेश नरेश की गोद भरी है।
(2) किनके ग्रह नौवद साज रही,किनके ग्रह बाजत आज बधाई।
किन कूॅखन से उपजे ललुवा,किनकी हरी दूव खुआसन लाई।
गज मोतिन के अजु चैक पुरे,किनके ग्रह आगन देत दिखाई।
अवधेश गणेश पुजाय रहे,सुत लैकर गोद पुजावती माई।
नील शिखर के शिखर बहाऊॅ।सम्भु सहित न तो गंग कहाऊॅ।
गरज तरज अररा अर्रानी। जोर सोर से धार दिखानी।
जटा जूट में धार समानी। छार कछार दिखात न पानी।
गोतम रिष पुन अस्तुत ठानी। भये बरम्बू अंतर ध्यानी।
तब ह्य सम्भू जटा फटकारे। सिल शैलन पर बहै पनारे।
गौ मुख हो गौतम ढिंग आई। गंग गौतमी वहाॅ कहाई।
गौतम मोद गोद मे लीन्हीं। गौदावरी गुप्त पुन कीन्हीं।
गंगा गोदावरी पुनीता। निवसे यहाॅ राम अरू सीता।
दंडक वन मंगल मुदरासी। राजाराम भय वन वासी।
इत मारीचहा म्रगा बन आयो। सिया हरण रावण छल पायो।
सूपनखा भई प्रभु पर आशिक। खरदषण बध त्रिसरा नासक।
कल मल हरण सम्भु प्रभुताई। गंग गोमेती कथा सुनाई।
दोहाः- यहीं नीलगिर पर भयो, गरूड़ काग सम्बाद।
रामायण की शुभ कथा, कही सुनी उरगाद।।
इति श्री भीम पुराणे महाभारतान्तर्गत केशवानंद चरित्र, गौतम रिषि आहल्य का श्राप,रामटेक व्याख्या वर्णनो नाम त्रतियोध्यायः 3
दोहाः- शुभ चैथे अध्याय में,कैहो राम चरित्र।
जा सुन अति पातिक नसे, जिह्वा होय पवित्र।।
चैपाईः- जुग कर जोर चरण धर माता। बोले धर्मराज कुरू नाथा।
लोमस रिष हॅस बोले वानी। राम कथा पर प्रीत दिखानी।
सुनहु भूप तुम परम सयाने। रामकृष्ण मधु मधुप लुभाने।
राम कथाम्रत पान करा वहॅु। मधुरे-मधुरे वचन सुना बहॅु।
जग हित हित तुम्हरे कुरूराई। कह हो सकल प्रसंग बनाई।
बालमीक मन महिमा जानी। जीवन मुक्त भये गुणखानी।
उलटा नाम जप्यो निजमुख से। भव के पार भये ते सुख से।
प्राकृत गिरा न समझे वर्षन। स्वन्प समय कीन्हे गुरू दर्शन।
रामायण भाषा जिन बरनी। सुगम अगम रघुपति की करनी।
बालमीक तुलसी रामायण। जग जाहर वर्णी सुखदायन।
चन्द्र सूर्य इमि करत प्रकाशा। सुंदर ललित मनोहर भाषा।
यातें सकुच लगत मन माही। रवि सनमुख खद्योत कि जाहीं।
दोहाः- निज मत के अनुसार सो, कथा प्रसंग बखान।
चरित सुखद रघुवीर के, सुनिये भूप सुजान।।
होय सनातल धर्म की जग मे, जब-जब हान।
तब-तब प्रभु अवतार धर, प्रगट होई भगवान।।
चैपाईः- जब-जब सुर भु सुर दुख पावहिं। दनुज रूप धर मनुज सतावहि।
वाढहिं असुर जगत अभिमानी। घोर अनीत करहि मन मानी।
परधन हरहिं-हरहिं पर दारा। हिंसक जीऊ निरत परवारा।
गुरू गोविन्द्र धेनु दुज द्रोही। अघी छली दम्भी अति कोही।
कोल्ह किरात भिल्ल अरू बानर। असुर निशाचर लंपट लाबर।
वन मानुष राच्छस नर भक्षी। नाना जाती असुर विपक्षी।
रावण नाम निशाचर राजा। वीस भुजा दश मुख खर ताजा।
दुज कुल रिषि पुलस्त कर नाती। तप बल सुर भुपुर परतापी।
ब्रम्ह्मसन पाये वरदाना। विजई पुष्पक असुर विमाना।
जीते तीन लोक दिगपाला। इन्द्र आदि जीते यम काला।
व्याकुल भये देवता जबही। गाय स्वरूप धरण भई तबही।
ते ब्रम्ह्म के लोक सिधारे। ब्रम्ह्म सुर मिल मंत्र विचारे।
चले क्षीर सागर तट आये। वेदस्तुत के मंत्र सुनाये।
सह नही सकै भूमि अघ भारा। बल असुरन हर लीन्ह हमारा।
दोहाः- सुन पुकार सुर धेनु की, दिवस न वारिध मेह।
गगन गिरा गंभीर भई, हरण मोह संदेह।।
सवैयाः-
(1) कछु जोर चलैं न गुनी जनकौ, हरि भक्तिन कौ जग घोर महाॅ है।
मख होम सिराध नही सुनिये। श्रुत भारग जाने बिलानो कहाॅ है।
भरपूर निशाचर राज्य करै,दुख देत दिखात सुधर्म जहाॅ है।
वसुधा तल हालत काल डरै,द्रग पाल भयातुर रीत जहाॅ है।
(2) जीत कुवेर विमान लियो तप के,बल लंक करी रजधानी।
पान करै मदिरा सुख सों,सुख सोवत पाय मॅदोदर रानी।
तेज दिनेश के मंद परे,अमरेश हमेश भरै सुर पानी।
रावण राज न धर्म रहो,जग केवल घोर अनीत दिखानी।
(3) धरनी तरनी सम डोल रही,अघ भार पहार से देत दिखाई।
(3) अलकें झलकें झुक आनन पै,कल कानन कुंडल की छब छाई।
किलकें पुलकें लखकें हॅसके,कन्हियाॅ चढ़ झूमत चूमत माई।
झंगुली तन पीत उलसे अंग में,नख केहर के कठुला सुखदाई।
मन मंदर सुंदर मे विहरे,घनस्याम स्वरूप सदा रघुराई।
दोहाः- मणि मंदर कंचन आंगन मे,जननी सुख मोद सों गोद विठावें।
दधि ओदन मालपुआ हॅसके, कर पै धर के रूच भोग लगावें।।
उड काग भुसुडि चुने किनका, परसाद को पाय महासुख पावें।
’दुज’ काग के भाग कहाॅ कहिये, कर कंजन से रघुनाथ लिखाबें।।
बालरूप मणिमय अजिर, खेलत बाल मकुंद।
बसहिं सम्भु उर-सर सदा,ब्रम्ह्म सच्चिदा नंद।।
चैपाईः- कुंचित केश मनोहर प्यारे। विहरत अलिगण जनु गभुआरे।
पूरण शरद चंद्र यम आनन। सोहत सुंदर कुंडल कानन।
रतनारे नैना कजरारे। भाल दिठोना मातु सम्हारे।
सुंदर नाक बुलाक मनी कौ। अधर अरूण त्रैलोक धनी कौ।
कठला कंठ मनोहर जीके। पदिक हार बघ नखा मनी के।
अंगद ललित भुजन पर सो है। चूडा मणिन जड़ित कर दोहें।
कटि करधनी पगन विच नूपुर। कंचन तोड़र चूरन ऊपर।
तन घनस्याम सलोने नोने। नीलम विंव देखिये सोने।
पीत झगुलिया तन मे राजै। कालित ललित धुन नुपूर बाजै।
जानु पाणि विहरें रघुराई। घुटनन के बल चारहुॅ भाई।
मातु मोद से गोदी लीन्हे। किलक रहे पय मुख मे दीन्हे।
करिये बाल रूप के ध्याना। अपर कथा सुन भूप सुजाना।
बाल खेल कीन्हे हर भाॅती। जात न जाने दिन अरूराती।
पौढ़ भये परिजन सुख दाई। विद्या निधि पुन विद्या पाई।
सवैयाः-
अवतार लियो जग तारन जू,सुन के मुनि कोशिक याचन आये।
हन घोर निशाचर मारग मे,मख की रखवारी करी वर पाये।
रिषि के संग आॅनद कंद चले,मिथलापति आकर शीश नवाये।
रच व्याह सुचारहु भ्रातन के,जग मे जिन के जस वेदन गाये।
(2) सिल देखी पड़ी यक मारग में,उसका बतलाते भये मुनि कारन
(9) कटि मूंज जनेऊ जटा सिर पै,लख आनन कोटिन सूरज लाजे।
मुनि चीर सरीर विभूत लसे,शशि भाल पै चंदन खौर सुराजै।
सिय जू अपने कर वेंदी रची,तुलसी तरू मालन की की छव छाजै।
मुनि मंड़ली कुंड़ली मध्य लखौ,मंदाकिन के तट राम बिराजें।(इति अयोध्याकंड़)
(10) कर कंजन से रघुनंदन जू,गुह हार चमेलिन के गजरे।
पहरे सिय आदर सादर से,थल पंकज देख गये लजरे।
सुत वासव वायस रूप धरे,पग मार के चोंच गयो भजरे।
यक वान कमानसे तान हनो,विनती कर नैन गयौ तजरै।
(11) कट में पट पीत व सीस जटा,लख स्यामल अंग अनंगहु लाजें।
ससि आनन कानन मे मुदरी,गुदरी कर वाण सरासन साजे।
’दुज’ भाल मे सुभ्र त्रिपंुड लसै,उर चिन्ह प्रभू म्रगराज के राजै।
वनवासी स्वरूप अनूप सदा,प्रिय सानुज संग हिये मे विराजे।
(12) साॅवरे अंग विभूत लसै,कटि मूॅज जनेऊ गरे म्रग छाला।
सीस जटा मुदरी गुदरी उर,सेली मनोहर है वन माला।
तीर कमान लिये कर में,पदत्रान विना संग कोमल बाला
पंचवटी वनमे विहरे,हम देखे अहो अवधेश के लाला।
(13) वन दंड़क मे रघुनंदन जू,निज हाथन पर्ण कुटीर बनाई।
समुझावत ज्ञान विरादर को,इतहास पुराण कथा सुख दाई।
अति सुन्दर रूप बनाये तहाॅ,उत रावण की भगनी तहॅ आई।
नकटी करके प्रभु ने उसको,मनो धूर दई पुन फेर पठाई।
(14) त्रिसरा खर्दूषण आदिक जे,वन दंड़क मे ये करे वर थाने।
रघुनंदन से लड़ने को चले,दस चार हजार बटोर के दाने।
फिर लौट न येक गये ग्रह कों,घनस्याम सरासन वान के वाने।
मुनि मंडली आय करी विनती,करता धरता हरता पहॅचाने।
(15) मृग रूप कहै दस कंध सुनो,जु रकार सुने डर लागत मोई।
रिषि की मख वाण हनो उर में,निधि तीर वसों भय व्यापत सोई।
घनस्याम न चैन परै पल येक,जिय काॅप रहो फिन आवत ओई।
तिहि ते समजावन बाद कहे,अब राम कहें आराम न होई।
(16) मृग रूप निशाचर आकर के,चरने को लगा जहें जानकी माई।
इस नर्म सी चर्म को ल्याइये जू,यह धर्म अहै अपना रघुराई।
निज रूप छिपाय सची पत जू,यक रोज चले इनका प्रण हारन।
यह गौतम नार सती जो रही,पति की इन श्राप करी सिर धारन।
पद पंकज की रज चाहती जे,घनस्याम करो मरजी जग तारन।
दोहाः- मख रखवारी करन हित, कोशिक मुनि के संग।
कर आदर सादर दिये,भूपत सहित उमंग।।
चैपाईः- कोशिक मुनि संग भूप पठाये। मख रखाय गंगा तट आये।
हनी ताड़का खल मारीचा। वारिध तीर परयो सो नीचा।
गौतम रिष की पत्नी तारी। कही कथा जो सुनी तुम्हारी।
धनुष जज्ञ मिथिलापुर होने। जनक लली के व्याह सलोने।
अस कह सो मिथलापुर आये। धनुष भंगकर श्री जय पाये।
परसराम मुनि आॅख दिखाई। जिनकी करनी प्रथम सुनाई।
सवैयाः-
भाल विशाल त्रिपुंड लसै,कट मूॅज जनेऊ गरे शिव माला।
केश दिनेश से आनन पै,झलकें तप तेज मनो लफ ज्वाला।
कंध कुठार सुधार धरो,जिय भूप ड़रे लख रूप कराला।
भगन पिनाक सुनो गुरू कौ,तब अग्न भये जम दग्न के लाला।
(2) टूट पुरानो पिनाक गयो,सुन के भ्रगु नंदन कोप कियो है।
न्रप लाल के तेज निहार थके,गमने वन को निज तेज दिये है।
दूलह श्री रघुनाथ वने,यह रूप कभी जिन देख लियह।
जीवन मुक्त वही नर है,जिसने निज मातु को दूध पियो है।
(3) अलकें झलकें घुॅघराली मनो,अलि संगम लेत पराग सुहाई।
द्रग दीरघ है उनमें कजरा,गजरा कर कंजन में सुखदाई।
सिर मौर लसै अरू चंदन खौर,सु कानन कुंद लडी छव छाई।
इन नैनन देख दुरी रजनी,घनस्याम बने वनरा रघुराई।
(4) इन बाजन आज सुने सजनी,इत आये अजू अवधेश दुलारे।
वर साॅवरे गात सलोने भले,द्रग दीरघ है जिनके रतनारे।
चल देखिये देखन जोग अहै,सब लोग कहे मिथलापुर वारे।
’दुज’ गांठ जुरै इनकी उनकी,विधि से कहिये धन भाग हमारे।(इति बालकंड)
(1) कोई समें वरदान दिये हित मान,नरेश धरे वह थाती।
कैकई आज मगाय रही,सुत राज करे हॅस के मुसक्याती।
सानुज राम सिया संग मे,वनवास करे यह बात सुहाती।
भूपर भूप परे तलपे डरवासब,के कर वज्र की छाती।
(2) रचकें पचकें गुरू मंत्र दियो,घर फोरू ने भोरी सी पाकर रानी।
कह कोटिन सौत कथा उसने,रसमें विष घोर करी मनमानी।
विनती कर जोर कहें महराज,न मानत है पुन जाय रिसानी।
’घनस्याम’ कृपानिध की मरजी,वन दीनदयाल चले हित मानी।
(3) पितु आयुस मान चले वन को,सिय सानुज संग सुभेष बनाई।
वरसा हिम आतप बात सहें,सुख सेज विहाय मही तल भाई।
नहिं कर्म की रेख मिटाई मिटी,अहो भावी बड़ी बलवान बनाई।
उनको भी मुसीवत आन पड़ी,जिनके ग्रह मे घनस्याम गुसाई।
(4) तज हाय बुढ़ापे मे मोय गये,न गये संग प्रान कठोर हमारे।
कर औध विहीन गये वन कों,मिलने न अहो अब प्राण पियारे।
तुम जाय सुमंत उपाय करौ,मन मूर सजीवन देव दिखारे।
’घनस्याम’ सिया रघुनंदन जू,कहके दसस्यंदन स्वर्ग सिधारे।
(5) वट क्षीर मगाय बनाय जटा,मुनि चीर सरीर किये प्रभु धारन।
लख भेष निखाद विषाद करै,समुझाय दिया उसको सब कारन।
तब नाॅव लिआय चढाय लिया,गुह ज्ञात लगा उसपार उतारन।
पुरखा पहले उस पार किये,फिर पार किये उसने जग तारन।
(6) मुनि भेष कहौ तुम को हो अजू,किन देश आप इतै पग धारे।
जलजात से गात सलौने भले,पद पंकज मंजुल अंग तुम्हारे।
द्रग नाथ सनाथ करे हमरे,अब जात किते मन मोहनी ड़ारे।
वन वासिन के अस वैन सुने,मुसक्यान लगे अवधेश दुलारे।
(7) जोगीश पिता दुहिता जिनकी,रघुनंदन से पतहे जिन केरे।
अंत अनंत न पाय सके,त्रैलोक डुगे जिनके रूख फेरे।
ते वन मे विन प्रान फिरे,अहो कर्म प्रधान भये विधि डेरे।
पाहन तें जो कठोर हियो,नहिं फाटत देख रहे द्रग मेरे।
(8) सखि ऐसे न नोने सलोने कहॅू,नहिं देखे सुने जग आज सो आई।
धन भाग कढे इन गैलन हो,हम देख सनाथ भये रघुराई।
वन वास दियो इनको जिन्हने,अजु कैसे कठोर पिता अरू माई।
’घनस्याम’ मनावन जात उन्हे,जग होने न नौने भरथ्थ से भाई।
कसकें कटि बाॅध जटा सिर के,शर तान कमान चले सुखदाई।
करकें छल दूर गयो प्रभु लै,वध ताह मिले पग में लघु भाई।
(17) इत लंक पती कर भेष जती,जस चोर गली सो सती को हरो है।
कुररी सम रोवत हाय चली,मग गीध जटायू सो आन गिरो है।
असि काट के पक्ष निपक्ष कियो,गढ़ लंक गयो अध छांड़ भरो है।
तरू सीसम के तर वास दियो,सुख सोवत सो मुख सेज करो है।
(18) वन ढूडत सानुज राम चले,मिथलेस लली जू किसी को दिखानी।
हम खेलन आज अहेर गये,मम जीवन मूर इतै से हिरानी।
तज प्रीतम संग अकेली दुरी,कोई देव पता न वताय निशानी।
विरही हम खोजत हाय फिरे,अजु कर्म प्रधान सही कवि वानी।
(19) ग्रह देहरा लीप प्रसून धरे,नव दूव हरे-हरे पाॅवड़े डारे।
शुभ चैक सिला कि पखार धरी,जल सींच भरे फल सों पनवारे।
शबरी अभिलाख हुलास भरी अजहू ह्वै,कवै धन भाग हमारे।
अजू फूली समात न अंगन में,रघुनंदन आज सुने पग धारे।
(20) चहुॅ ओर से जोर पहार धरे,शिल टोर प्रवालन पैरी बनी।
जल जन्हु सुता रब घोर करें,सिखी सोर करे लख रामधनी।
तरू झूमत चूमत भूम लता,पद पंकज से अति प्रीत धनी।
सुच सुंदर तीर सरोवर के,जल-जात को देख लजात मनी।
(21) गिर ऊपर बाली की त्रास बसै,प्रभु देख के बात कहै कपिराई।
अजु बात के जात लखौ इतहो,कोई आवयत सो मुह देत दिखाई।
तुम जाव वहाॅ कर से न यहाॅ,फिर जाय जहाॅ जिसके मन आई।
जयराम कही कपिराय मिले,निज कंध चढाय लिये दोई भाई।
(22) कंठ सुकंठ लगाय लिये,अपनी-अपनी कह बात सुनाई।
हरि डार स पल्ल्व आसन दै,उर बीच हुतासन प्रीत कराई।
कपि फौज बटोर कें जोर दाई,कछु खोजन गे कोउ जानकी माई।
महिमा ’घनस्याम’ कहाॅ लौ कहो,जब हेरे कृपा करकें रघुराई।
(23) यक वाण मे बालि के प्राण हरे,सुत अंगद को जुवराज बनायो।
करूणा कर राज सुकंठ दियो,पुन अंगद माई को ज्ञान सिखायो।
यह देह अनित्त है तत्त नही,न बची जु नची विध नाच नचायो।
यह जीऊ विनास न होत कभी,न जरै न वरै न मरै श्रुत गायो।
जलने से मकान बचा न कोई,पर येक विभीषण का घर ना।
(14) जानकी जी का सुदेशा दिया,वन रोंद दिया फिर मारी फलंगा।
लाॅघ समुद्र पलौं मे गये,वन जार उजार करी गढ़ लंका।
अंगद वारिधि पार मिले,मिल भेंट सभी फल खाये अशंका।
हाल कहयो रघुनंदन से,रण रावण जीत बजाइये डंका।
दोहाः- प्रभु के सकल संदेश कह,करकी मुॅदरी दीन्ह।
चूड़ामणि मुखमेल कपि,शब्द किलकिला कीन्ह।। (इति सुंदर कंाठ)
सवैयाः-
घनस्याम सुजान वयान किया,दल साज लिया कपि राज गराजे।
जब सैन चली धरनी सी हली,न मिली ती गली खल जीउ पराने।
घन घोर गराजें दराजे करे,न डरे जब बाजत जूझ के बाजे।
अति हेत सो फौज समेत प्रभु,रघुवीर जू सागर तीर विराजे।
(2) निधि नीर अपार न पार अहो,जल रास अकाश कों देत है बोरे।
अति जोर सों घोर गराजैं करें,टकराती जबैं चहॅु हिलोरे।
किलकें पुलकें मगरा कछुवा,अहि मीन अधीन उन्हें झक झोरे।
घनस्याम जू मारग मांग रहें,उत से उस पार अडे प्रभु दोरे।
(3) कर जोर विभीषण रावण से,समुझाय इन्हे न्रप नीत की बाते।
रजनी चर रावण बात सुनी,मन ही मन सोचत राम से घातें।
चल सोंप प्रिया उनकी सुनके,तत काल हनी उसने उर लाते।
हट जाय न आॅखन सामने से,घनस्याम के पास अरे अब जा ते।
(4) पद पंन्नग आज निहार हो जू,जिनका धर ध्यान सुरे सुर ध्यावें।
जिनके हित जोग मुनीश करें,जग जीवन मुक्त हुये यश गावें।
दीनदयाल दया करहें,सर्नागत आरत देख बुलावें।
चित मे अपराध न येक धरे,जग हेत धरे तन नाथ कहावें।
(5) नल नील ने बाॅध समुद्र लिया,उतरी उस पर कपीश की सेना।
युवराज को भेज संदेश दिया,अब जानकी दे नतु युद्ध को लैना।
पग रोपन कोप सभा मे कहो,हरि सें गर वैर किया तो बचैना।
इसमें नहिं झूठ जरा सा सुना,रघुनायक शायक है अति पैना।
(6) करजोर निहोर करै विनती,पग लाग दोऊ अपने भरता के।
उनकी सिय देव मिलौ उनसे,तिरलोक धनी करता धरता के।
(24) उमड़ी घुमड़ी चहुॅ ओर घटा,वन नाचत मोर सुहावन नीकी।
गरजै वर्षे चपला चमकें,सरिता उतहीं अभिलाख पती की।
झुक झूमती चूमती भूम लता,भुज मेलती येकन येक अली की।
लख भ्रात सदा सुध आवत है,घनस्याम कहे श्री जानकी जी की।
(25) रति और बसंत लता सणदा,लख रूप लजाय कें शीस नवाये।
तहरें लख गंग की अंगन मे,सुत लेकर गोद मे दूध पिलाये।
शिशु खेलत छोड़ गुफा लै गई,फल लाल निहार के लाल सिधाये।
इत अंजनी माय जू ढूढ रही,उत सूरन माल में दाव ले आये।
इति किष्किंधा कांडः-
(1) मुदरी सुख मेल सु खेल किये,चित माह सु खेल दियो कपि राई।
गिर पै चढ़ वाण समान उड़े,सुरसा मुह माह धसे जसुहाई।
रघुनंदन काज करोगे सभी,बल की वुध की हम थाह जु पाई।
मरजी घनस्याम कृपा निधकी,निधि नीर के तीर गये हर षाई।
(2) गिर श्रंग उतंग उमंग चढ़े,तहॅ बैठ लखी नगरी अधिकाई।
पहरै दुहरै दरबाजन पै,सहजोर निशाचर देत दिखाई।
छवि जोत झिलामिल होय रही,जल कोट कॅगूरन की परछाॅई।
घनस्याम दसानन राज्य उतै,अनु सोने की लंक समुद्र की खाई।
(3) लघु रूप बनाय प्रवेश किया,नहिं जान परे कपि लंक घनी है।
हनुमान ने बज्र समान मुठी,यक लंकनी के उर माझ हनी है।
तरनी सम डोल रही धरनी,मुॅह बीच मुठी भर धूर सनी है।
कर जोर निहोर करै विनती,अब रावण राज की रैहे न नी है।
(4) कर जान चिन्हार विभीष्ज्ञण से,दस कंधर अंदर देखो हरी है।
मिथलेश लली न मिली कितहॅु,धुकयाने मंदोदरि सेज परी है।
कछु सोच असोच बगीचा गये,तहॅ जानकी देख प्रणाम करी है।
मुॅदरी प्रिय प्रीतम की करमे,कपि छोड़ दई सिय शीस धरी है।
(5) अति दूवरी देह उसाॅसे भरें,वरसें द्रग मेह लगायो झरी है।
घनस्याम के रावरै नाम रटे,तलफैं जिय नीर बिना मछली है।
कपि दीन भयो लख जानकी जू,तरू बैठ अशोक के शोक हरी है।
पहॅचाने बिना कर की मुॅदरी,मिथलेश लली हिय चोक परी है।
(6) रघुवंसन के यश गान किये,सुनके परतीत कछु उर आई।
पहॅचाने विना कर की मुॅदरी,हिय हर्ष विषाद कहाॅ कित पाई।
सुख दैनये वैन कहे जिसने,वह सामने आवत काहे न भाई।
तरू डारनसे कपि कूॅद पड़े,मुख ओर निहारती जानकी माई।
(7) सिय के पद पंकज शीस नवा,धर धीर संदेसे कहे म्रदुवानी।
कर जोर रई मुॅदरी पिय की,हिय की सुख दैन ये मातु निसानी।
पुन शीतल वैन भये हिय चेन,सनेह सी नैन उघारे सियानी।
कह देऊॅ न उरन पूरन हो,श्री राघव भक्त कहयो महरानी।
(8) दस कंध कहै सिय को समुझाय,न त्रास करे जग मे सब कोई।
हमकों स्वीकार करो तुम जो,पट रानी करों पुन मालक तोई।
घनस्याम न राम इतै अैहे,सुन भूल गये मन में वह दोई।
राम रटो न सुनो अवलो,अरी राम कहें आराम न होई।
(9) फल खाऊॅ जो आयुस पाऊॅ,यहाॅ रजनीचर फौज करे रखवारी।
इनकों भय मोय न मातु कछु,अपने पद पंकज की बलहारी।
फल खाय अघाय के आय मिलो,अब दीजे संदेशव दीजे चिन्हारी।
श्री राम से जाय सुनाऊॅ सभी,निज नैनन देखी कथा विसतारी।
(10) तरू टोर मरोर करोर दिये,ग्रह फोर फरे फल बाग उजारे।
रख वारन मार सॅहार कियो,कछु जाय पुकार उठे अधमारे।
दस कंधर कोप किया सुनके,पठुवाये कुमार अछै भट मारे।
यक खंभ उखार हनो सिर पै,उर चीर के वीर शरीर विदारे।
(11) कर कोप चला घननाॅद जवै,कपि नाग के फाॅस से बाॅध लिया है।
तब रावण बाद-विबाद किया,सच बात यही दे सोप सिया है।
त्रिलोक धनी से बनी न बनी,अपनी कहना अघ माफ किया है।
गर मानो न मानो हमार कहा,नुकसान बड़ा उपदेश दिया है।
(12) इसकी देव पूॅछ मे आग जला,गढ़ लंक के चारहुॅ ओर घुमाना।
अपना मनका कर लेना सभी,मिलके पुन ढोल बजा के भगाना।
यह रावण का कहना सुनके,कपड़ा पुन तेल लगे सो मगाना।
दुम को हनुमान पसार दिया,झुक कीश कुजा की समान दिखाना।
(13) जलती दुम देख प्रचंड़ उदंड़,दवा वरबंड़ लगी भरना।
महलों पर मार छलांग चढे़,तब कोट कॅगूरे लगे गिरना।
चहुॅ ओर दवार पहार लगी,घिर दानव दैत्य हुये हिरना।
जग व्यापक ब्रम्ह्म अखंड़ वही,चरणोदक पी पग की सरिता के।
तज राज भजो रघुराज पिया,पहचान,अरे पति सिधुसुता के।
(7) दखसीस कि नार कहै करजोर,सु पाहुन जीत लई जू मही को।
हर आनसि चोर गती सिय को,नहिं मानी हनू युवराज कही को।
अब राम से बैर बढ़ाय लिया,मनमानी न सीख कही जो सही को।
घनस्याम चढ़े गढ़ देव सिया,जो गई सो गई अब राख रही को।
(8) कपि भालु निशाचर युद्ध ठनो,कर युद्ध विरूद्व जुझाऊ जू बाजै।
इत राम की जै उत रावण की,दुहूॅ ओर से मची रणधीर गराजै।
नख पाद प्रभु धर आयुध है,सिर ऊपर श्री रघुवीर विराजैं।
तन भार विहार संघार करे,रजनी चर सैन छिके दरवाजें।
(9) ललकार के फौज तयार करी,विधि के विपरीत है कात विचारी।
मचके तरवार मनो बिजुरी,उत वानर भालुन लंक उजारी।
सुर वृन्द विमान चढ़े नभ मे निरखें,अजु युद्ध परो रणभारी।
वर्षे असि वान मघा वर्षे मग से,चहुॅ ओर झुकी अंधयारी।
(10) छल से घननाद आकाश चढ़ा,सर ओले से गोले लगा वर्षाने।
असि तोप दनादन मार करै,कमरा से विछे कपि रीछ दिखाने।
तन छेदन भेद मिला उसका,वन वानर लै कर जोऊ पराने।
उर लाखन के रिपु शक्ति हनी,मुर्झाने दई सर सेज घराने।
(11) मूर सजीवन लेन गये,गिर द्रोण समेत उखाड़ लियाये।
वैद सुखेन बुलाय तभी,अहि नाथ के सेष कलेश छुडाये।
संकट दूर भरो छिन मे,भरपूर निशाचर मार गिराये।
दीनन के दुख भंजन जू,घनस्याम प्रभंजन अंजन जाये।
(12) अहिनाथ प्रकोप चले रण मे,घननाद से वीर के सामने आये।
ललकार भिरे गजराज मनो,सम युद्ध हुआ अति तीर चलाये।
निज तेज सम्हार अनंत प्रभू,रघुनंदन के पद पंकज ध्याये।
शर तान कमान हने सिर पै,तब रावण-नंदन मार गिराये।
(13) कट सीस भुजा धरनी मे गिरे,करनी लख रावण पीटत छाती।
भट भीर वहाॅ रणधीर भरे,रण भूम परे लड़का अरू नाती।
सुत बंधु मरे जल सिंधु परे,जग कोई बचे नहिं येक संघाती।
कुल वोरन आज कहेगे सभी,पर वान तजे न भायो कुल घाती।
(9) सुख छाय रहे चहुॅ ओर घने,वर्षे जल अन्न पजे मुॅह मागे।
दुख कोल कलेश रहो न कहॅू,नर नार अनंद भरे रस पाते।
न्रप नीत सौं राज्य धरापैं करें,अघ भूर महाॅ कलकाल के भागे।
घनस्याम के राज भये जब से,तब से अनुराग भरे दिन जागे।
(10) येक समय महराज सुनो,पुर बाहर आकर भ्रात बुलाये।
भूसुर वृन्द महाजन जे,मुन नारद और वसिष्ठ जू आये।
नीत बखान गियान कहो,समुझाय सुधर्म जो वेद न भाये।
आनॅद होत भयो सुनकें,प्रभु जो जिहिं लायक शीस नवाये।
(11) नाग की फाॅस बॅधे प्रभु थे,खगराज ने जाकर फंद छुडाये।
मोह भयो हिय मे उनके,तब कागभसुंड़ी के पास सिधाये।
हालत खोल कही दिल की,तब राम चरित्र विचित्र सुनाये।
दीपक ज्ञान सुजान कहों,अपनी उतपत्ति के हेतु बताये।
(12) पावत अंत अनंद नही,सन कादिक आदिक पार न पायो।
शुक शारद नारद हार थके,उपनेत करे जस वेदन गायो।
आद कवीश्वर गं्रथ रचो,तुलसी सरमानस ताल बनाओ।
थाह न पाय सके फिर भी,मति मंद कछू घनस्याम सुनाओ। (इति उत्तर कंठ)
चैपाईः- राम राज्य आनंद अपारा। वरन सके नहिं शीस हजारा।
जग जीवन मर्यादा भापी। मारे दनुज मनुज संतापी।
अवध सहित साकेत सिधारे। कीरत धबल विमल उजयारे।
बालमीक रामायण गाई। सो समस्त न्रप तुमहिं सुनाई।
पंचवटी पर गे कुरूराई। गोदावरी तीर सुखदाई।
संुदर घाट मनोहर नीके,राम धाम मंदर तुलसी के।
तपो भूम की रज सुखदाई। भक्त भय जिन अंग लगाई।
पग-पग सिंची सुगंध बसाई। चैक जवाहर लाल सुहाई।
मोती चैक मालवी जी के। बल्लभ तिलक गोखले जी के।
जहाॅ सुजात विराजत नोेने। संत समाज देख हर कोने।
देखत पंचवटी वन नाना। पाॅडव आगे कियो पयाना।
निवसे पाॅडव गुफा बनाई। विद्यमान अव लग सो भाई।
लोमश धोम्य दुजन के साथा। पंढरपुर पहुॅचे कुरू नाथा।
श्लोकः-
बन्देहं रामनाथं, गन्धमादन पर्वते।
नमस्ते सर्व तीर्थाय, लिंग रूपं सदाॅ शिवं।।
बन्दे रामेश्वरं देवं, जटा मुकुट मण्डितम।
कामघ्नं लिंग रूप च, ब्राजते जल धीस्त दे।।
सवैयाः-
शशि भाल विशाल त्रिपुण्ड लसै,अहि सोह जटान कौ जूट सुहाबै।
सिर गंग शिवा अर्धंग लसै’’दुज’’,अंग विभूत महा छावै।
डमरू कर शूल नसावत शूल,हिये पद पंकज ध्यान जो लाबै।
सरिता पति तीर पै ब्राजै प्रभू,शिव रूप अहो मन काहे ना गावै।
दोहाः- सुमर गजानन शारदा,शुक शौनक मुनि व्यास।
बालमीक हनुमंत पद,बन्दहॅु तुलसी दास।।
कहांे प्रथम अध्याय मे,परशुराम अवतार।
पिता बचन प्रतिपाल पुन,सहस बाहु संहार।।
भीम कुंड वनवास कर,धर्मराज मग लीन्ह।
चाहुॅ दिसि बरसत घन सघन,सत सरगा पग दीन्ह।।
चैपाईः- नदी सुनाड़ आड़ हॅस लीना। सुगम सोध निज मारग दीना।
नदी सुनाड़ की और कहानी। त्रतिय खंड मे कहों बखानी।
सम-सत सूमर डार निहोरी। तदपि थाह पाई नहिं थोरी।
चक्राकार भाॅवर गंभीरा। समझ परहिं नहिं तीर सुतीरा।
लोमस रिषि कह कथा पुरानी। सुनहु भूप यह अकथ कहानी।
है यह सुंदर देश हवेली। गोहुन की खेती अलवेली।
सुखी यहाॅ के चतुर किसाना। चलहिं सनातन धर्म सुजाना।
बाॅदकपुर जिला सागर के। निवसहिं सुखद नगर नागर के।
कुंडलपुर अरू नगर बनेरा। रिषभ कूट जैनन के डेरा।
जागेश्वर की प्रभुता भारी। दर्सन हित आवहिं नर नारी।
सवा लाख काॅवर चढ़जावंे। शिवशंकर के दर्सन पावें।
सिव रात्री को यात्री आवें। काॅवर चढ़ा अमित सुख पावें।
तहॅ मंदिर है पारवती कौ। नंदी गण कैलाश पती कौविप्र निधन हित शूल उपाई।
भ्रगु भग गये विस्नु के धामा। अंकुर हिये क्रोधकर जामा।
जय अरू विजय परे पद दोई। खड़े रहे पहरे पर सोई।
दुज वानी मानी नहिं रोकी। बरवस भीतर गये विशोकी।
दोहाः- पीताम्वर ओढ़े हरीं, सुंदर सेज अनंत।
मृदुल चरण चापत रमा, सोवहिं कमलाकंत।।
चैपाईः- रिषि रिस आन कही दिन खोते। सदा क्षीर सागर में सोते।
अस कह भ्रगु उर लात हनी है। जाग उठे त्रैलोक धनी है।
विहैस वचन बोले श्री कंता। कमल चरण चापत भगवंता।
कहॅ कोमल भ्रगु लात तुम्हारी। छाती कुलिश कठोर हमारी।
पीर भई हिय धीरज धरिये। सुधा सनेह लगी दुख हरिये।
सो भ्रगु लता विराजत छाती। रमानाथ की रमा सुहाती।
जय अरू विजय पार्षद डोले। तिनसो भ्रगुनायक जी बोले।
राक्षस कुल जनमों दुहु भाई। तीन जन्म जग महिं दुख दाई।
जब प्रभु धरहिं धरण अवतारा। निधन करें हरहे महिं भारा।
अस कहॅ भ्रगु मुनि पहुॅचे तहैवा। राजत ब्रम्ह्म मंडली जहेवा।
सकल कथा भ्रगु रिषिन सुनाई। विस्नु बड़े देवन मे भाई।
दोहाः- धीर वीर गम्भीर प्रभु, चिदानंद घनश्याम।
पार ब्रम्ह्म परमात्मा,सकल लोक अभिराम।।
वेही भ्रगु जिनके तनय, गाधि भये मति धीर।
गाधि सुवन कौशिक भये, ज्ञान वान रणधीर।।
जिनकी कथा अनेक विधि, फैल रही जग माॅह।
विश्वामित्र वशिष्ठ की, लिखी कवित के माह।।
चैपाईः- कीरत ललित चरित सुखदाई। जिनकी मख रघुनाथ रखाई।
भये तनय जिनके जम दग्नी। तेज पुज ज्वाला जिमि अग्नी।
अहम भाव रेवा तट वासी। करहिं यज्ञ तप ब्रम्ह्म विलासी।
क्षत्री वर्ण धर्म अनुसरही। तप बल ब्रम्ह्म कर्म सब करहीं।
क्षत्री तन ब्रम्ह्मर्षि कहाये। कान कुव्ज कुल सूत्र बनाये।
रेणुक रहे तहॅा कर राजा। हिय विचार कीन्हे शुभ काजा।
सुता रेणुका तिन्हको व्याही। दिये दायजन राजा शाही।
रेवा जल अति स्वच्छ इमरती। पाप ताप संताप सुहरती।
सुंदर वहै करोदी व्यारी। स्वच्छ घट सरिता बलहारी।
कर प्रणाम न्रप गये सकारे। रेवा तट कहॅ पुन पग धारे।
जबलपुर है नगर समीपा। देखहुं संम्भु समाज महीपा।
अस कह चले वीर अनुरागे। नव तीरथ शुभ देखे आगे।
दोहाः- लोमस रिष बोले विहंस, सुनहु भूप इतिहास।
तपो भूम पर सिध्य भई, भ्रगु मुनि कियो निवास।।
चैपाईः- वांडु सुवन बोले म्रदु वानी। वर्णन करौ कथा सुखदानी।
सुन बोले लोमस रिषी वानी। आदि सृष्टि की कथा बखानी।
ब्रम्ह्मा आदि सृष्टि के करता। स्वायंभू मनु जग के भरता।
कन्व रिषि म्रगु आदि मुनीशा। मनुबंतर छिति के अबनीशा।
येक ब्रम्ह्म विभु स्ववस विहारन। परब्रम्ह सोई जग के कारन।
अज अद्वेत अकल अविनाशी। अजर अमर विधि छीर विलासी।
महा प्रलय जग जलमय होवैं। तब अनंद धन सुख मय सोवै।
जय अरू विजय पारषद दोई। खड़े रहत सेवा कर ओई।
सहस मणिन के जहॅ उजयारे। कर कंकण कमला पर वारे।
अंगद मुकुट तड़ित आनन के। रवि शशि जोत ओप कारण के।
सेज समीप प्रभा बगरी सी। कोमल सरस सुभग नगरी सी।
फणि मणि शेष छत्र सिर ताने। ब्रम्ह्म पद्मासन शुभ जाने।
संख चक्र कर अम्बुज राजें। चारू चार भुज अंगद भ्राजे।
कटि किकणी मनोहर दमके। ससिमुख चारू चंद्रिका का चमके।
उर मणि माल पद्म दल लोचन। ललित तिलक झलके गौरोचन।
को कवि कह सक छवि आनन की। बरनि न होय सुनी कानन की।
कोटिन मारतंड शशि लाजन। महिमा किनंर लगे सु भाखन।
दोहाः- पुरूषोतम परमातमा,परम परेश पुराण।
सृष्टि सम्रष्टि समेट प्रभु, सावत्सल भगवान।।
चैपाईः- हरि इच्छा माया प्रभु केरी। प्रकृति स्वतंत्र प्रकृति मन केरी।
कमलनाभ कमलापति स्वामी। जान सकल ह्रद अंतर जामी।
पुरूष स्वरूप व्यक्ति यक नोने। जाॅचत भे का हम चहुॅ कोने।
पाॅच सीस के ईश भये जू। चार वेद के वेद नये जू।
सों वेदन की वानी रानी। प्रगट शारदा मातु भवानी।
नेत नेत सोई वेद बखाने। पाॅवर अंध जीऊ का जाने।
अंवर पीतांवर दामिन कों। नीलाम्वर झलके स्वामिन कों।
जलज माल घनश्याम सरीरा। जलज नाल सम कटि गम्भीरा।
जिमि ऐरावत गज के सुंडा। बाहु विशाल सुभाव अखंडा।
उर कौस्तुभ श्री तुलसी माला। कुंडल कानन नैन विशाला।
भ्रकुटि विलास जासु लय होई। प्रभु की प्रकट छाॅहरी सोई।
सो ब्रम्ह्मा हिय क्रोध अपारा। को मैं को है सिरजन हारा।
तब ब्रम्ह्मा ने लई जमुहाई। शक्ति शक्तिधर शक्ति बनाई।
रूद्र रूप ह्व रूद्र दिखाने। रूद्र देवता शंकर माने।
विषम गरल विषपान कराये। तदपि रूद्र नहिं मरे मराये।
महादेव देवन के देवा। ईशमीश की कीजे सेवा।
तीन देवता येक बरावर। भेद कहै सो मो सम पाॅवर।
सृष्टि हेत तिन्ह कियो उपाई। प्रकत रूप यक शक्ति बनाई।
प्रगट भई भुज मे लपटानी। सरस मेह जिमि गोरस पानी।
ब्रम्ह्मा सष्टि तनय उपजाये। सप्त रिषीश्वर पिता कहाये।
भ्रगु वंसी म्रगुजी पहचानी। परसराम अवतार बखानी।
यह शुभ कथा ललित प्रिय लागी। आगे कहत प्रसंगहि त्यागी।
दोहाः- ब्रम्ह्म ब्रम्ह्म की ब्रम्ह्म मे, लागी ब्रम्ह्म समाज।
तीन देव मे कौन बड़, निर्णय कीजे आज।।
चैपाईः- ब्रम्ह्मा बड़े सष्टि उपजाई। रूद्र देव सम देव न भाई।
सबसे बड़े विष्नु भगवाना। उन से परे देव नहिं आना।
भ्रगु ऋषिवर यह मने विचारे। लैन परीक्षा हेत सिधारे।
प्रथमहिं गये ब्रम्ह्म के लोका। देखे ब्रम्ह्मा विगत विशोका।
बोले भ्रगु मुनि सुनहु विधाता। करहु कुचाल कर्म दिन राता।
निज पुत्री पर नियत विगारी। ताते चैमुख भये अनारी।
सुन विरंचि तब उठे रिसाई। पिता पुत्र की ठनी लराई।
पुन भ्रगु रिषी कैलास सिधारे। रूद्र देव सन वचन उचारे।
शक्ति संग में वदन उघारे। तुम्हे न लोक लाज भय नाही।
शंका नहीं निशंक सदा ही। सुनतन कोप कियो मदनारी
तिनके तनय भये श्रुत धारी। परसुराम तिन्ह में अवतारी।
अब सुनिये न्रप कथा रसाला। परसराम के चरित विशाला।
दोहाः- वैसाख सुदी दितिया दिवस, मातृ रेणुका कूॅख।
त्रेता युग वीसी सुभग,इकतिस अस्सी मूख।।
वीर मातु ने वीर को, दियो वीर उपदेस।
वीर धीर रणधीर,सुत धरोवीर को भेस।।
चैपाईः- वेद पाठ नित करहिं सुजाना। तेज पुंज तन तेज निधाना।
सदा मातु पितु सेवा करहीं। वचन प्रमान मान अनुसर हीं।
अशुभ देख हिय परी खटाई। पिता मातु से गये रिसाई।
क्रोध क्रसानु ज्वाल हिय वाढी। चोटी धर ग्रह बाहर काढ़ी।
आश्रम परसुराम जब आये। पिता बिहाल देख दुख पाये।
मातु पिता सुत आज्ञाकारी। परसुराम सुन बात हमारी।
मातु मंुड काटो अब लाला। सुनो गुनो पुन पीछे हाला।
पितु आज्ञा जे पालन करही। विन प्रयास भवसागर तरहीं।
पितु आज्ञा रघुनंदन मानी। वनोवास की अकथ कहानी।
पितु के वचन मान सुख पाये। मातु मुंड लै पितु ढिंग आये।
फरसा परसराम धर दीन्हो। पिता वचन परपूरण कीन्हो।
दोहाः- अति प्रसन्न जमदग्न भे,देख पूत करतूत।
वरंब्रूहि दैहों तुरत, तू है पूत सपूत।।
चैपाईः- तीर्थ रेणुका भयो अनूपा। भ्रगु आश्रम यह लख नर भूपा।
परसुराम बोले मुसकाई। देहु पिता मम मातु जिवाई।
क्रोध शांत कीन्हे जम दग्नी। पानी परत बुझे जस अग्नी।
तुरत जिबाय रेणुका तबही। सुत की प्रेम परीक्षा लीन्ही।
होय ब्रम्ह्म कुल ऐसे बालक। माता पिता आज्ञा प्रतिपालक।
धरा धरम की लाल बचावे। जिनके सुयस केतु फहरावे।
संपत दंपत देख सुखारे। परसराम तप करन सिधारे।
रेवा तट यक परम अनूपा। मडला नगर तहाॅ कर भूपा।
सहस वाहु अर्जुन रणधीरा। आयो रिषि आश्रम बलवीरा।
जमदग्नी कर साडू सोई। रेणुक सुत कर सो बहनोई।
अतिथि जान रिषि पूजा कीन्ही। कुश व्रष संग जाय शुभ दीन्ही।
झीले पाॅच रूधिर की भारी। पंज आब के देश मझारी।
वही पंचनंद तीर्थ कहायो। परसराम निज तीर्थ बनायो।
पृथ्वी-राज दुजन कर दीन्हा। सकल भूम कर क्षत्र बिहीना।
ऐसे परसराम अवतारी। कीरत विमल चन्द्र उजयारी।
क्षत्री रहे प्रथम बरयाने। गुरू ब्राम्ह्मण गौ संत न माने।
करहिं अनीत प्रजा धन लूटे। बिन अपराध दस्यु सम कूटै।
प्रजा मार ग्रह लेत छुडाई। दुगुण लेहिं कर तजहिं न पाई।
दोहाः- सकल विधरमी निधन कर, दुजकर दीन्हो राज।
परसराम अवतार की, कथा कही महाराज।।
इति श्री भीम पुराणे दुतिय खंडे महाभारतान्तर्गत भुगुआश्रम परसुराम अवतार कथा वर्णनोनाम प्रथमोध्यायः-1
दोहाः- कहों दुतिय अध्याय मे,महिकल सुता चरित्र।
दुर्गा देवी रण लिखों, जा सुन होय पवित्र।।
कौशिक मुनि के संग, प्रभु धनुष भंग जब कीन्ह।
भगे जनकपुर आपही, धनुष राम कन्हॅ दीन।।
परसराम श्रीराम कौ, परौ विविध सम्वाद।
रामायण मे सोइ कथा, कहों राख मर्याद।।
चैपाईः- कर अस्तुत तप करन सिधारे। गये महेन्द्र अचल पर प्यारे।
गिर महेन्द्र महॅ कपि दल छायो। जहाॅ सेतु श्रीराम बॅधायो।
द्रबिड देश रामेश्वर द्वीपा। गिर तीरथ बैताल समीपा।
कस्यप रिषि तिहिं अबसर आये। कोप शांत दुज के करवाये।
शैल विशाल मनोहर जीकौ। अमर-अमरकंटक है नीकौ।
चहुॅ दिस महिकल शिविर सुहावन। तरूवर चुम्बत नभ मन भावन।
रेवा तट बट बृच्छ घनेरे। आश्रम सुखद तहाॅ मुनि केरे।
घाट मनोहर निर्मल नीरा। सम्भु समाज विराजत तीरा।
सकल सपक्षक सुमन मनोहर। सघन विपिन गंुजे उड़ मधुकर।
वाघ,बराह,सिंह,गज माते। कलरव खग मृग करहिं सुहाते।
दोहाः- वंस मूल महिकल सुता, प्रगटी बाल स्वरूप।
क्षीर धार पय पान कर, भई कन्यका रूप।।
चैपाईः- टोर फोर कर गिरवर बाॅके। पद पखार उत बहुर न झाॅके।
कंचन ग्रह शीतल अमराई। उप बहरा अरू सेज तुराई।
षट रस विजन सुधा समाना। भोग विलास मनोहर नाना।
नहिं श्रुत सुने द्रगन नहिं देखे। कामधेनु दुह दिये अलेखे।
देख भूप रिषि की प्रभुताई। हिये डाह मन माह समाई।
दोहाः- सहस बाहु कर जोरकर, बोले वचन प्रतीत।
नाथ गाय यह दीजिये, जो ऋषियन की रीत।।
चैपाईः- मुनिवर विहंस कहिं म्रदुवानी। राजन राजनीत नाहिं जानी।
महाराज तुम इन्द्र समाना। भवन भरे सुख संपत नाना।
दुज वनवासी सदा भिखारी। प्राणन प्यारी गाय हमारी।
आश्रम वासन की गौ माता। गोरस प्राण दान की दाता।
करत सदा गोधन निर्वाहू। दई न जाय सुनिय नर नाहू।
सहस बाहु बल के अभिमानी। बरबस गाय छीन ग्रह आनी।
थकत रहे थांडे़ दोऊ प्राणी। लोचन नलिन धार बहॅ पानी।
दंपत बिना विसूरत गैया। जैसे विहिन बिना यक भैया।
दुखी भये लख आश्रम वासी। गौ माता बिन भये उदासी।
परसराम पहुॅचे तिहिं काला। कहयो जनक जननी सबहाला।
दोहाः- कसी कमर हित समर के,फरसा लीन्हो हाथ।
सुमर गजानन को चले,कोई लगो ना साथ।।
चैपाईः- पहुॅचे जाय भूप दरवाजे। सिंह पौर नरसिंह गराजे।
जटा जूट की लर फटकारें। कधा चीपिया झोली डारें।
जुगल पाण फरसा पर दीन्हें। औज मौज नैना रंग भीने।
बल कल चीर काठ कौ पीना। मूज मेखला म्रदुल नवीना।
पीत जनेउ पुनीत सुहाबे। रूंद्र माल कंठा उर लाबे।
भाल विभूत त्रिपुंढ विराजै। मृग छाला कर दाहिन राजै।
अरूण नैन भ्रकुटी रिष बंका। डाहन चहत मनहुॅ यक लंका।
फरकत अधर कोप कर कंपे। जिमि शशि सूर्य राहु ग्रह झंपै।
तेज निधान क्रशानू समाना। बोले वचन क्रोध युत नाना।
तनक दया मन मे नही आनी। अपर कौन तुम सौ अभिमानी।
जो बल शेष बाहरे आवहु। करतब अपने आन दिखा वाहु।
नहिं तो गऊ हमारी दीजे। नाहक वैर न भूपत कीजे।
डाट डपट ललकार सुनाई। सन मुख ह्वै फटकार बताई।
यह सुन कार्तवीर्य सुत आयो। सो प्रथमहिं यमलोक पठायो।
लपट झपट भुंडा से काटे। साहस बाहु अर्जुन के छाॅटे।
भगी बिडर अर्जुन की फौजे। देखत परसराम की औजे।
फरसा मार नीव धर काटी। भूम डरे न्रप चाटत माटी।
दोहाः- टोर द्वार भीतर गये, गाय दुर्ग से छोर।
भ्रगुनंदन तप तेज बल, बहुरे गाय बहोर।।
चैपाईः- क्षत्री पुन बैरी पुन राजा। मान गलान मान हिय लाजा।
पिता वैर की जब सुद आई। पहुॅचे अर्जुन सुत सत भाई।
मार भूम जमदग्र गिराये। अग्न कुंड मे मुंड सिराये।
तितर वितर कर मख की सामा। पूर्णाहुत कर बहुरे धामा।
परसराम वन ईधन हेता। गये रहे आश्रम के नेता।
बहुर हाल देखे माता के। पिता देख तन पर गये ताते।
पितु की क्रिया यथोचित कीन्ही। क्रोध कुठार बहुर कर लीन्ही।
सुन उपदेश वीर माता के। करत विलाप कलाप छता के।
सिर धुन कूटी निज छाती। पुन-पुन सुध कर-कर बिलपाती।
हाय नाथ हा नाथ पुकारी। नदी धार द्रग मोचतवारी।
विधना विधवापन मोह दीन्हों। सहस बाहु पुन अपयश लीन्हो।
दोहाः- परसराम धीरज दियो, निज मातहिं समुझाय।
क्रोध अघं प्रज्वलत भई, चढ़े दुर्ग पुन जाय।।
चैपाईः- विवर छोड़ अहिं धावत जैसे। तड़ित शैल पर छूटज जैसे।
झपट बाज जस लबा दिखाबै। करियहु देख सिंह जिमि धाबै।
जो जहॅ मिले तहाॅ सो मारै। तकत फिरे कोउ पोंर उसारे।
कंठ कुठार धार से काटे। डाबर भरे रूधिर सब पाटे।
दल बल सह अर्जुन संहारा। बचो न कुल कौउ रोवन द्वारा।
पुन दारूण प्रण प्रभु ने कीन्हा। मही करों सब क्षत्र विहीना।
गर्भक अर्भक मार गिराये। क्षत्री सुने तहाॅ चढ़ धाये।
़क्षत्री वंस भरे के नाते। पुतरा बचो न येकहु पाते।
वार इकीस वार भो सपनो। ताड़ित कियो मातु उर अपनो।
परसराम बल वीर प्रचंड़ा। बार इकीस किये रिपु खंड़ा।
टोर फोर गिर विवर समानी। पश्चिम दिसि पर चली भुमानी।
मधुर मनोहर अंबा नारे। सरित सरोवर पग-तर डारे।
रूप पसार धार समुहानी। पहुॅची सहस बाहु रजधानी।
मड़ला नगर अनूप सुहाये। पर्ण कुटीर तीर मुनि छाये।
आश्रम तपसिन विविध बनाये। सहस बाहु न्रप घाट बनाये।
मंदिर संुदर कंदर जानो। रेवा कंकर शंकर मानो।
ब्रम्ह्म घाट ग्वारी के नीके। भेड़ाघाट मनोहर जीके।
भ्रगु मुनि के आश्रम सुख दाई। वान गंग के संगम भाई।
भेड़ा पर गो नाम धरायो। यातें भेड़ा घाट कहायो।
कपिल धार उदगम अस्थाना। कपिल तपस्या के परमाना।
क्षीर धार रीमा की सीमा। चालिस मील नीर बह धीमा।
संगमरमर के महल समीपा। सरस धार ह्वै बहत महीपा।
टोर फोर कीन्हे तहॅ माई। धुवाॅधार सी प्रगट दिखाई।
शैल संगमरमर के फोरे। तट बट बृच्छ अनेकन टोरे।
मदन महल गिर सिविर सुहाये। मदन महीपत रूचिर बनाये।
दोहाः- मदन महीपत के चरित,येक शिला पर देख।
बने आठ सौ बरस के, लिखे सिला पर लेख।।
चैपाईः- चैरागढ़ के दुर्ग बनाये। गाड़रवारे नगर बसाये।
पन्द्रा सौ के सतक महीपा। भये संग्रामशाह कुलदीपा।
दलपत शाह तनय तिन केरे। ते चंदेली वीर बड़ेरे।
व्याही दलपत दुर्गा देवी। वीर नरायण सुत भये सेवी।
तिन सिंगौर मठ दुर्ग बनाये। रानीताल जबलपुर छाये।
तिनके राज्य प्रजा सुख पाई। बसै स्वबस आनंद से भाई।
खेती उध्यम करहिं किसाना। मुहरन के वे देहिं लगाना।
कीन्ही अकबर फौज चढ़ाई। दुर्गा देवी सनमुख आई।
सिधुर उठे सहस्त्र सजाये। अष्ट सहस्त्र सवार गिनाये।
पैदल गौड़ चले रणधीरा। तीर कमान लिये कर वीरा।
श्री दुर्गा की जय-जय बोले। वाने हाथ लिये छित डोले।
कारे भेष नयन रतनारे। कसें कमर असि लिये दुधारे।
तीर कमान बान हन मारंे। सरितन वहीं रूधिर की धारे।
पुन भॅडोच के पुर मैदाना। खेलत फिरी खेल चैगाना।
सरिता पति संभात मुहाने। संगम कीन्हों खोल दहाने।
गौर हिरन बंजर सुखदाई। शेर तवा शंकर देव बाई।
जंजालन जुर करी सहाई। सरिता पति के संगम भाई।
पुल अंगरेजन नये बॅधाये। झूॅसी घाट भड़ोच सुहाये।
मीर तकी कर टका लगायो। येक दूसरौ काव्य बनायो।
दोहाः- यह विधि भ्रगु अस्थान की, कथा कही रिषिराज।
रेवा की सेवा करें, मेवा मिलै स्वराज।।
इति श्री भीम पुराणे महाभारतन्तर्गत नर्मदा माहात्मये उत्पत्ति भ्रगु मुनि परसराम अवतार,दुर्गादेवी संग्राम वर्णनो नाम द्वितीयोध्यायः-2
दोहाः- कहों त्रतिय अध्याय में, साधुचरित सानंद।
साॅई खेड़ा मे भये, संत केशवानंद।।
चैपाईः- महाराज चलिये अब आगे। वर्ष त्रयोदश के दिन लागे।
गोड़ी देश भूप ग्रह नोने। रमा वास हर ग्रह-ग्रह सोने।
नगर देखिये गाड़र वारे। ताल विशाल भरे नद नारे।
गोधन ठाट विराट रजा के। हरित चरत त्रन हरिन मजा के।
है सुहागपुर भूप मनोहर। नीर क्षीर चाॅवर अति सोहर।
अस सुन भूप किये रूज नाना। माॅजे अस्त्र सस्त्र विध नाना।
अब लग सो लुहॅगा सम पानी। जल की महिमा प्रगट दिखानी।
गोंड़ी कौसन साॅई खेरा। संत केशवानंद बसेरा।
चरित अनंत येक दो कहिये। साधु चरित सुन पातक दहिये।
दादाजी के चरित अलेखा। कहहुॅ सुनहुॅ निज नैनन देखा।
रहो कूर्म वंसी यक बालक। गोधन अन धन धन प्रतिपालक।
येक अकेला सुत उन जायो। सम्भु प्रसाद भाग बड़ पायो।
विधि बस भयो काल कर ग्रासा। दंपत कुर्मी भये निरासा।
दादा जी को हाल सुनायो। तिनको मृतक उठाय दिखायो।
त्रोटक सौं कछु दादा कीन्हों। तुर्त जिवाय तासुसुत दीन्हों।
कुर्मी करामात जब जानी। भये दादा जाहर बर्दानी।
कुर्मी सर बस अर्पण कीन्हो। मंदिर अंदर ड़ेरा दीन्हो।
जग जाहर बगरी प्रभु ताई। दर्शनहित गये लोग लुगाई।
बजी दुहत्तन से तरवारै। वीर चीर से चीर उतारें।
कुध्य युद्ध बस भई भुमानी। वीरन जोश देत मरदानी।
मारत गोंड़ तीर तक छाती। तनी सुतनियन की खुल जाती।
अल्ला कहत मुसल्ला भाजें। हल्ला देत गोंड़ रण गाजें।
दुर्गा दुर्गा रूप बनायो। वाहन सिंह गजेन्द्र सजायो।
दोहाः- ह्वै सवार आगे चली, पाछें गोंड़ी फौज।
प्रावट रितु उमड़ी मनहु, यमुन धार की मौज।।
चैपाईः- ओढ़ चुनरिया तन कुसमानी। चोली हरी कसी मुलतानी।
कर कंजन कंचन की चुरियाॅ। जूरे कसी रेशमी डुरियाॅ।
माथे कौं बेंदा चटकीलो। चिवुकन गुदना अधिक रंगीलो।
कसी समर हित कमर भुमानी। भई सनमुख लै तीर कमानी।
वीर चंदेल महुविया पानी। वीर अंगना पुन क्षत्रानी।
खेंच कमान वान संधाने। बादशाह के वीर पराने।
सैनिक चार चतुर तक मारे। गोंडन हिन्दू तुरक विगारे।
भरे रूधिर कुंडा गज सुुंडा। गह मुंडा नाचहिं चामुंडा।
विछुआ गुरज कुठार लुहाॅगी। तोमर सिंघर असि साॅगी।
बोड़ादार तुवक गज खाती। मारत दाव दाब कर छाती।
तोप लोप कर देत पहारा। छर्रा करत हृदे के छारा।
दोहाः- परसा पंजा शेर कें, हने ठाल तरवार।
मुक्का ठुस्सा दाव सें, चोट करत है मार।।
चैपाईः- मुगलन ने जब मुॅह की खाई। रजपूती रजपूत बताई।
मान सिंह सैनापति आये। निज बल जौहर प्रगट दिखाये।
जेई हैं वे हिन्दू राजा। जा निवाज परहिं नमाजा।
अकबर सुत सलीम के सारे। सेनापति अकबर के प्यारे।
सवा पहर लोहा सन लोहा। बाजे करे येक के दोहा।
भागे गोंड़ छोड़ रणधीरा। सहे न जाॅय वीर के तीरा।
दस पच्चीस तीस रहे साथी। दुर्गा चढ़ी अकेली हाथी।
सैनक सेन तीर तक मारे। चले द्रगन वह रूधिर पनारे।
करनी करी जगत ने जानी। गिरी धरन करिनी से रानी।
फौज अस्थी के ढेर लगाये। वारे गाॅव बरेला जाये।
रूधिर सने कंकर चमकीले। डेढ़ मील तक भये रंगीले।
बने चैंतरा बनो विसाला। गज चालीस मनोहर ताला।
जे तीरथ कें यात्री जावें। तापर कंकर उठा चढावें।
दोहाः- जबलपुर से फिर चली, पहुॅची लखनादौन।
सघन विपिन विजना नही, विंध्याचल की कौन।।
मिली छपरहा सतपुड़ा, बेनु गंग मंे जाय।
किला शिला गिरि बेनु के, सिवनी पहुॅची माय।।
चैपाईः- बालाघाट गोंदिया प्यारी। सरित कन्हान कामठी न्यारी।
दक्षिण सिंधु हैदराबादी। नाग वंस की घनी अवादी।
ते पाताल लोक सें आये। नाम नागपुर शहर बसाये।
नाग नदी तहॅ बहै अनूपा। जम्बाताल मनोहर भूपा।
महाराज शुभ बाग लगाये। अमित जानवर विपिन रखाये।
हौज मौज लवरेज भरायो। सिंधुर सिल को तहाॅ बनायो।
संुडधार नल कल ज्यों पानी। नागराज की बनी निशानी।
गोंडी किला बने प्राचीना। पता बताबत जड़े नगीना।
सीता बरही किले बनाये। तहॅ अंगरेज छावनी छाये।
यह सुन कथा भूप अनुरागे। लोमस रिषि सों पूछन लागे।
संगम सरिता पत के कहिये। जाके सुनत मगन मन रहिये।
सुनहु भूप हम कहत बखानी। चली अग्र तब धार भुमानी।
तीर-तीर शुभ आश्रम नाना। ऋषि मुनि तपसिन के अस्थाना।
दोहाः- विंध्याचल के बीच में, छेद सतपुड़ा सैल।
गई मान धाता निकट, अचल विचल कर गैल।।
चैपाईः- तप बल देस दिये वरदाना। संम्भू जल मे वीर समाना।
ओंकार हंुकार लगाई। काबेरी तन दो भये भाई।
विमल साल विमलेश्वर दीन्हों। भूप मनोरथ पूरण कीन्हो।
गौरी शंकर नाम शैल के। सुंदर तीरथ बने गैल के।
परकरमा में सम्भु समाजा। ब्रम्ह्मपुरी शिवपुरी स्वराजा।
गोपीनाथ सनावद वारे। रेवा तट शुभ सदन सम्हारे।
मंडलेश्वर से माहेश्वर लों। धूनी रत्न सार के पुरलौं।
माहेश्वर मंदिर बनवाये। माई अहिल्या के यस छाये।
मन में जो मनोर्थ जिन्ह कीन्हा। दादा जी मन बांछित दीन्हा।
दोहाः- दीनन कों धन-धन दिये, बंध्यन दीन्हें पूत।
लाभ दियो व्योपार मे, लगे भगाये भूत।।
चैपाईः- सेठ रामपुर कौ यक आयो। दंपत सुखी भयो सुत पायो।
तहाॅ धर्मशाला बनबाई। तामें सदा समाज बिठाई।
भेष दिगम्बर अंबर धारी। दर्शन हित जावै सिंसारी।
मगन नगन शिव मंगल भेषा। जटा लटा नहिं लुंचित केशा।
सदा येक रस रहत उदासी। भेष दिगम्बर ब्रम्ह्म विलासी।
पूरित नीर घड़ा माटी कौ। धूनी धरी कमंडल नीकौ।
डंड़ा वाॅस पास मे राखे। अट सट कछु मुख से भाखें।
भोजन थार लिये कर चेला। लगो रहत जनता कौ मेला।
जापर तनक कृपा कर हेरे। भोजन लेत शीस कर फेरे।
जातन डंड़ा तनक छुवायो। वाने मन वांछित फल पायो।
सकल वस्तु धूनी मह ड़ारे। हो प्रसन्न डं़डा जब मारे।
जो इच्छा कर ग्रह से आवें। जन के मन की प्रगट बतावे।
जा की होने होय भलाई। देत असीस ताह मन आई।
येक समय यक दुजवर आयो। धन हित लैं पुराण मन भायो।
ता ग्रह सुता किशोरी क्वाॅरी। धन विन क्वाॅरी रही विचारी।
दोहाः- लै पुराण गे विप्रवर, जहाॅ केशवानंद।
मत गत जानी आप, जो बैठारे सानंद।।
चैपाईः- पूरण भई भागवत जबहीं। चढ़े पंचसत मुद्रा तबही।
पूरण भई विप्र मन चाही। आकर सुता आपनी व्याही।
ऐसे संत चरित्र अनेका। सत्य मान हिय करहु विवेका।
संतन की महिमा अस भाई। करहिं सहाय सदा सघुराई।
अकथनीय संतन के चरिता। आगे सुनहु द्रोपदी भरता।
वेणु नदी वह पावन गंगा। प्रगटी वेणु राज के अंगा।
प्रथु के अंग मथे गये जवहीं। वेणु गंध से प्रगटी तबहीं।
यह हरिवंस पुराण बताये। उनके सुयश कहाॅ हम गायें।
यही वेणु के दुर्ग दिखावे। उनके जसके पता बतावे।
आगे राम टेक कुरूराई। वनो वास निवसे रघुराई।
भूपत जाय निमज्जन कीन्हा। विविध दान महि देवन दीन्हा।
पूॅछत भये भूप इतहासा। कहन लगे दुज सहित हुलासा।
गौतम ऋषि जानत सिंसारी। जिनकी सती अहल्या नारी।
परम सुंदरी नार अनूपा। देख रूप मोहे सुर भूपा।
अर्धरात्रि धर तमचर भेषा। दई गुहार दुआर सुरेसा।
दोहाः- ब्रम्ह्म महूरत जानकें, जप पूजन समान।
नित्य कर्म के धर्म जो, करन गये असनान।।
चैपाईः- गौतम भेष सुरेश बनायो। सती अहल्या के ढिंग आयो।
बोली परम सती रिष नारी। किहि कारण बहुरे श्रुतधारी।
अर्धरात्रि नहिं भयो विहाना। सोवत वरूण देव अस जाना।
उस कह प्रेम सहित रतिठानी। तिहिं अवसर आये मुनिज्ञानी।
देख सुरेश श्राप रिष दीन्हा। होंय सहस भग अंग अधीन्हा।
पति वंचक तू नार हमारी। उपल देह अब होय तिहारी।
अभय जोर कर दुहुॅ रिष आगे। श्राप अनु ग्रह के वर मागे।
विहॅस वचन बोले मुनिज्ञानी। नहिं सुरेश जिय मान गलानी।
त्रेता मनुज रूप हरि धरिहॅ। अवध भुआल अवध अवतर है।
कौशिक मुनि मखकी रखवारी। करहे दशरथ अजिर विहारी।
तिरहुत देश जनकपुर माही। धनुष जज्ञ न्रप जनक कराहिं।
सुता स्वयंवर भूपत करहैं। तिनको श्री रघुनंदन बरहें।
दोहाः- यह मग जब प्रभु आवहीं, पुण्य पुरातन भूर।
तर जैहो यैही सुगत, देहि छुआ पगधूर।।
सोरठाः-
छवि देखन के काज,सहस नयन हूहें सुभग।
मगन भयो सुरराज,गमन कियो निज भवन तज।
चैपाईः- उपल रूप भई गौतम नारी। त्रेता रामरूप ह्व तारी।
ब्याह उछाह अनंद अपारा। सुभग भये भग नयन हजारा।
गौतम रिषि तप करन सिधाये। ब्रम्ह्म नील गिर पर सुख पाये।
आसन मार ब्राज कमलासन। शिव-शिव नाम लगे आराधन।
नील ब्रम्ह्म गिर ब्रम्ह्मा आये। प्रगट भये करतार सुनाये।
बरम्वूह विधि बोले वानी। सुन मुन देख वेद सिर वानी।
सुंदर भूम सरोवर नीकौ। अंवारा शुभ नाम उसी कौ।
भोगवती गंगा सुखदाई। संगम हित महितल से आई।
न्रप सूरज वंसी इत आयो। कुष्ट गयो कंचन तन पायो।
सीताराम चन्द्र सुखरासी। दंडक वन निवसे मुदरासी।
यक्ष श्राप बस कियो निवासा। जाकौ मेद्यदूत इतहासा।
प्रथम गोंड़यानी रजधानी। भये शिवा जी पुन बर्दानी।
निज विक्रम से उन महिं जीती। भयो मरहठी राज्य सुनीती।
रामदास गुरू की कर सेवा। सेवा से सेवा कौ मेवा।
रामदास पवनात्मज जानो। हनुमान अवतार बखानो।
श्लोकः- क्रतेतुं मारूत्वा-ख्याश्च, त्रेता याम पवनात्मजः।
द्वापरे भीम संज्ञश्च, रामदास कलौयुगे।।
चैपाईः- दास वोध शुभ ग्रंथ बनायो। गुरू चेला सम्बाद सुहायो।
तामें यह शुभ कथा बखानी। तिनकी महिमा प्रगट दिखानी।
पंचबटी में मठ जिन केरे। पंढरपुर मे देखे मेरे।
राम सुयस के भये पताके। बगरे देशन शाकै जाके।
दोहाः- नाग वंस के जानिये, यही मरहठा लोग।
शेष महेश प्रताप से, करत अबै सुख भोग।।
बंवई से छत्तीसगढ़ जिला नागपुर जान।
राज्य शिवाजी कौ भयो, लिखो मिलो परमान।।
इनके चरित अनेक विध, लिखे कविन के नाह।
जिनके बल विक्रम सुने,कंपै दिल्ली शाह।।
भये शिवाजी वंस मे, राजा रघुवाराव।
रजधानी उनकी यही, देखौ वंस प्रभाव।।
चैपाईः- सरित सरोवर के जल ढरिये। रामचन्द्र के दर्शन करिये।
कंचन मणि सिंहासन नोने। वे ब्राजे घनस्याम सलोने।
घन-घन संुदर कंदर राजे। मंदर अंदर राम विराजे।
छवि श्रंगार को कहै बखानी। गिरा अनयन नयन विनु वानी।
नदी कन्हाय देखिये भूपा। शहर नागपुर वनो अनूपा।
फल रसाल छीता फल नाना। नामी होत यहाॅ के पाना।
सार सेतु सरिता के नोने। अंगरेजी सेना हर कोने।
सोभा कही प्रथम जो जानी। अब आगे पुन कहत बखानी।
तक्षक वंस नाग की पूजा। हिन्दू धरम अपर नहिं दूजा।
आन वान दुर्गा की माने। धरंे जवारे छेदे वानें।
दक्षिण सिंध सिंध के वासी। मानत नाग नाग अबनासी।
ये पाताल लोक सें आये। नागपुर मे दुर्ग बनाये।
चील्हा चाॅबर इमली चुरूवा। मिरचा दीन मीन के सुरूवा।
भोजन देश भेष के कारे। अंग अभूषण है मन यारे।
कुकरा बुकरा के बलिदाना। भाव बैठ के ग्रह-ग्रह नाना।
दोहाः- गढ़ा जिला छत्तीसगढ़, जुगल नर्मदा तीर।
मड़ला अरू सागर किला, राज्य गोड़िया तीर।।
सभ्य भये हर देश के, पढ़-पढ़ विद्या लोग।
जात-जात मे हो गये, भांत-भांत के भोग।।
जाय वसे जिहि देश मे, नाग देस से वंस।
महाराष्ट्र के देश मे, महाराष्ट्र अबतंस।।
अमरपुरी अमरावती, अमर नाग के वंस।
कोल अकोला में बसे, कोल गोंड़ उप वंस।।
येक सिखर गिर पर धरी, भीम सेन की लाठ।
अब लग मग से देखिये, वरषे बीसी साठ।।
चैपाईः- पंचबटी देखहु कुरूराई। पंचबटी छाया सुखदाई।
शैल विशाल मनोहर कंदर। पांडव यहाॅ बनाये मंदर।
पांडव गुफा नाम है भाई। सुख प्रद करन विचित्र सुहाई।
फूले फूल दूव मुसक्यानी। झिरत झील से झिरना पानी।
राम वास थल सुथल निहारे। गिरवर राम सेज के प्यारे।
ग्रद्ध राज के कुंड अनूपा। सिया सरोवर देखे भूपा।
गोदावरी तीर सिल मंदर। सियाराम झाॅकी अति सुंदर।
तपो भूम रज भूम सुधासी। संत समाज देख मुदरासी।
सिया हरण की कुटी निहारहु। पर्ण कुटी इत रही विचारहु।
जैनी मंदिर बने विशाला। शैल सिखर पर भूम सु ढाला।
त्रिमुख नाथ शिव दर्शन कीन्हे। ब्रम्ह्म नील गिर स्वागत दीन्हे।
गौतम रिषि तप बल जो आनी। प्रगटी गोदावरीह भुमानी।
चार सीसपर मुकुट विराजें। आनन जोत ओप रवि लाजें।
मकराकत कंुडल कानन के। स्वच्छ त्रिपुंड सुभ्र आनन के।
सुमन माल रूद्राक्ष विशाला। हीरन हार कंठ मणि माला।
अंगद चारू चार भुजधारी। चार वेद कर हंस सवारी।
हाथ कमंडल गंगा जल के। चरणामृत अघ नासन कलि के।
ब्रम्ह्म तेज लखि मुनि सिर नायो। पाण जौर जुग वचन सुनायो।
पापनाशनी सुससरि धारा। दीजे नाथ करै अघ छारा।
हॅस बोले विधि गिरा सुहाई। जग तारन धारन कों भाई।
ऐसे नीलकण्ठ बर्दानी। कियो पान विष इम्रत जानी।
शिव प्रसन्न जो हो परिकेशा। मेट सकहिं जो कठिन कलेसा।
मुनिवर सुनी ब्रम्ह्म कर बानी। जपन लगे शिव औघड़ दानी।
दोहाः- महादेव सम देव नहिं, प्रगट भये तत काल।
अस्तुत करत बजाय मुख, गाल और करताल।।
चैपाईः- मुनिवर अपनी व्यथा सुनाई। यथा कथा विधि की समुझाई।
इतनी कृपा करहु अब स्वामी। जा मेहोय न जगबदनामी।
भल ब्रम्ह्मा अस मंत्र विचारा। धर हों सीस गंग की धारा।
अस कह सम्भु जटा छुट कारे। बाघांम्बर अंबर फटकारे।
अटपट कटि सें कसी लॅगोटी। झट पट भंग रंग धर घोंटी।
मुंड माल रूद्राक्ष नियारे। झलकें कानन कुुंडल प्यारे।
बाजूबंद नाग फन प्यारे। चंद्र लिलाट करहिं उजयारे।
चरन पेंतरा बदल धरे हैं। लै त्रिशुल हर बदल परे है।
सवैयाः-
विखराई जटा शिवशंकर ने,जनुकारी घटा छितपै छहरानी।
हृद बेंकटि नागिन से कसकें,हॅस के किये लेत मानो नभ पानी।
विधि बूॅद तजी जो कमंडल से,कर कोप हॅसी सरिता पत रानी।
तन चीर कें धार जु तीन भई,तब छार कछार में धार भुलानी।
दोहाः- तीन विन्दु लख ईस ने, तीन बनाये शीस।
त्रिमुख नाथ त्रिवंक भये, पारवतीके ईस
चैपाईः- तीन बिन्दु विधि कर सन छूटी। सुर सरि धार स्वर्ग से टूटी।
कियो कोप गंगा हिय भारी। धॅसे अवनि गिर सहित पुरारी।
सुरभी तन धार पुकार उठी,प्रभुदीन दयाल करौ गरूआई।
दुख दूर करे न सुने विनती,यह औसर कोई न होत सहाई।
घनस्याम न देर अबेर करौ,अब काटो कलेश रमेश गुसाई।
दोहाः- सुन पुकार सुरधेनु की,विनय न वारिद मेह।
गगन गिरा गंभीर भई,हरण शोक संदेह।।
सवैयाः-
सुनकें करूणा करूणा निधि की,घन घोर गराज भई नभ वानी।
प्रगटें नर भूषण चार जने,सरजू तट औध करें रजधानी।
भुव मंडल मे नभई प्रगटे,तब वानर भालु धरौ हित मानी।
धर धीरज क्लेश निवारिये जू,जग रेहै न रावण राज निशानी।
चैपाईः- जग हित धरहों मनुज शरीरा। दनुज निधन कर हरहों पीरा।
अंसन सहित अवध अव तरहों। विश्व विमोहन लीला करहों।
मनु महाराज सती सतरूपा। जिनसे भइ नर सृष्टि अनूपा।
सुत सुख रूप ब्राम्ह अनुरागी। अति तप करे सुभग वर मागी।
सरजू तीर अवध रजधानी। दशरथ भये कौशला रानी।
सुत के हित न्रप जग्ग कराई। श्रंगी रिषि गुरू लिये बुलाई।
जब सोई जग भई परपूरण। दियो हुतासन पायस चूरण।
अभय भाग न्रप ताके कीन्हे। कौशिल्या कैकई कर दीन्हे।
अपने-अपने हीसन मे से। दिये सुमित्रा के दो येसे।
गर्भवती भई तीनो हुॅ रानी। प्रसव काल विधि देवन जानी।
अस्तुत कर विधि भवन सिधारे। प्रगट भये जग के रखवारे।
सवैयाः-
(1) चैत्र सुदी नममी दिन की,ग्रह योग महूरत धन्न धरी है।
सूरज वंस के हंस भये,महराजन की शुभ गोद भरी है।
दान दिये महि देवन को,सुत के हित पूरण जग्ग करी है।
मेटन हेत कलेश अहो,अवधेश नरेश की गोद भरी है।
(2) किनके ग्रह नौवद साज रही,किनके ग्रह बाजत आज बधाई।
किन कूॅखन से उपजे ललुवा,किनकी हरी दूव खुआसन लाई।
गज मोतिन के अजु चैक पुरे,किनके ग्रह आगन देत दिखाई।
अवधेश गणेश पुजाय रहे,सुत लैकर गोद पुजावती माई।
नील शिखर के शिखर बहाऊॅ।सम्भु सहित न तो गंग कहाऊॅ।
गरज तरज अररा अर्रानी। जोर सोर से धार दिखानी।
जटा जूट में धार समानी। छार कछार दिखात न पानी।
गोतम रिष पुन अस्तुत ठानी। भये बरम्बू अंतर ध्यानी।
तब ह्य सम्भू जटा फटकारे। सिल शैलन पर बहै पनारे।
गौ मुख हो गौतम ढिंग आई। गंग गौतमी वहाॅ कहाई।
गौतम मोद गोद मे लीन्हीं। गौदावरी गुप्त पुन कीन्हीं।
गंगा गोदावरी पुनीता। निवसे यहाॅ राम अरू सीता।
दंडक वन मंगल मुदरासी। राजाराम भय वन वासी।
इत मारीचहा म्रगा बन आयो। सिया हरण रावण छल पायो।
सूपनखा भई प्रभु पर आशिक। खरदषण बध त्रिसरा नासक।
कल मल हरण सम्भु प्रभुताई। गंग गोमेती कथा सुनाई।
दोहाः- यहीं नीलगिर पर भयो, गरूड़ काग सम्बाद।
रामायण की शुभ कथा, कही सुनी उरगाद।।
इति श्री भीम पुराणे महाभारतान्तर्गत केशवानंद चरित्र, गौतम रिषि आहल्य का श्राप,रामटेक व्याख्या वर्णनो नाम त्रतियोध्यायः 3
दोहाः- शुभ चैथे अध्याय में,कैहो राम चरित्र।
जा सुन अति पातिक नसे, जिह्वा होय पवित्र।।
चैपाईः- जुग कर जोर चरण धर माता। बोले धर्मराज कुरू नाथा।
लोमस रिष हॅस बोले वानी। राम कथा पर प्रीत दिखानी।
सुनहु भूप तुम परम सयाने। रामकृष्ण मधु मधुप लुभाने।
राम कथाम्रत पान करा वहॅु। मधुरे-मधुरे वचन सुना बहॅु।
जग हित हित तुम्हरे कुरूराई। कह हो सकल प्रसंग बनाई।
बालमीक मन महिमा जानी। जीवन मुक्त भये गुणखानी।
उलटा नाम जप्यो निजमुख से। भव के पार भये ते सुख से।
प्राकृत गिरा न समझे वर्षन। स्वन्प समय कीन्हे गुरू दर्शन।
रामायण भाषा जिन बरनी। सुगम अगम रघुपति की करनी।
बालमीक तुलसी रामायण। जग जाहर वर्णी सुखदायन।
चन्द्र सूर्य इमि करत प्रकाशा। सुंदर ललित मनोहर भाषा।
यातें सकुच लगत मन माही। रवि सनमुख खद्योत कि जाहीं।
दोहाः- निज मत के अनुसार सो, कथा प्रसंग बखान।
चरित सुखद रघुवीर के, सुनिये भूप सुजान।।
होय सनातल धर्म की जग मे, जब-जब हान।
तब-तब प्रभु अवतार धर, प्रगट होई भगवान।।
चैपाईः- जब-जब सुर भु सुर दुख पावहिं। दनुज रूप धर मनुज सतावहि।
वाढहिं असुर जगत अभिमानी। घोर अनीत करहि मन मानी।
परधन हरहिं-हरहिं पर दारा। हिंसक जीऊ निरत परवारा।
गुरू गोविन्द्र धेनु दुज द्रोही। अघी छली दम्भी अति कोही।
कोल्ह किरात भिल्ल अरू बानर। असुर निशाचर लंपट लाबर।
वन मानुष राच्छस नर भक्षी। नाना जाती असुर विपक्षी।
रावण नाम निशाचर राजा। वीस भुजा दश मुख खर ताजा।
दुज कुल रिषि पुलस्त कर नाती। तप बल सुर भुपुर परतापी।
ब्रम्ह्मसन पाये वरदाना। विजई पुष्पक असुर विमाना।
जीते तीन लोक दिगपाला। इन्द्र आदि जीते यम काला।
व्याकुल भये देवता जबही। गाय स्वरूप धरण भई तबही।
ते ब्रम्ह्म के लोक सिधारे। ब्रम्ह्म सुर मिल मंत्र विचारे।
चले क्षीर सागर तट आये। वेदस्तुत के मंत्र सुनाये।
सह नही सकै भूमि अघ भारा। बल असुरन हर लीन्ह हमारा।
दोहाः- सुन पुकार सुर धेनु की, दिवस न वारिध मेह।
गगन गिरा गंभीर भई, हरण मोह संदेह।।
सवैयाः-
(1) कछु जोर चलैं न गुनी जनकौ, हरि भक्तिन कौ जग घोर महाॅ है।
मख होम सिराध नही सुनिये। श्रुत भारग जाने बिलानो कहाॅ है।
भरपूर निशाचर राज्य करै,दुख देत दिखात सुधर्म जहाॅ है।
वसुधा तल हालत काल डरै,द्रग पाल भयातुर रीत जहाॅ है।
(2) जीत कुवेर विमान लियो तप के,बल लंक करी रजधानी।
पान करै मदिरा सुख सों,सुख सोवत पाय मॅदोदर रानी।
तेज दिनेश के मंद परे,अमरेश हमेश भरै सुर पानी।
रावण राज न धर्म रहो,जग केवल घोर अनीत दिखानी।
(3) धरनी तरनी सम डोल रही,अघ भार पहार से देत दिखाई।
(3) अलकें झलकें झुक आनन पै,कल कानन कुंडल की छब छाई।
किलकें पुलकें लखकें हॅसके,कन्हियाॅ चढ़ झूमत चूमत माई।
झंगुली तन पीत उलसे अंग में,नख केहर के कठुला सुखदाई।
मन मंदर सुंदर मे विहरे,घनस्याम स्वरूप सदा रघुराई।
दोहाः- मणि मंदर कंचन आंगन मे,जननी सुख मोद सों गोद विठावें।
दधि ओदन मालपुआ हॅसके, कर पै धर के रूच भोग लगावें।।
उड काग भुसुडि चुने किनका, परसाद को पाय महासुख पावें।
’दुज’ काग के भाग कहाॅ कहिये, कर कंजन से रघुनाथ लिखाबें।।
बालरूप मणिमय अजिर, खेलत बाल मकुंद।
बसहिं सम्भु उर-सर सदा,ब्रम्ह्म सच्चिदा नंद।।
चैपाईः- कुंचित केश मनोहर प्यारे। विहरत अलिगण जनु गभुआरे।
पूरण शरद चंद्र यम आनन। सोहत सुंदर कुंडल कानन।
रतनारे नैना कजरारे। भाल दिठोना मातु सम्हारे।
सुंदर नाक बुलाक मनी कौ। अधर अरूण त्रैलोक धनी कौ।
कठला कंठ मनोहर जीके। पदिक हार बघ नखा मनी के।
अंगद ललित भुजन पर सो है। चूडा मणिन जड़ित कर दोहें।
कटि करधनी पगन विच नूपुर। कंचन तोड़र चूरन ऊपर।
तन घनस्याम सलोने नोने। नीलम विंव देखिये सोने।
पीत झगुलिया तन मे राजै। कालित ललित धुन नुपूर बाजै।
जानु पाणि विहरें रघुराई। घुटनन के बल चारहुॅ भाई।
मातु मोद से गोदी लीन्हे। किलक रहे पय मुख मे दीन्हे।
करिये बाल रूप के ध्याना। अपर कथा सुन भूप सुजाना।
बाल खेल कीन्हे हर भाॅती। जात न जाने दिन अरूराती।
पौढ़ भये परिजन सुख दाई। विद्या निधि पुन विद्या पाई।
सवैयाः-
अवतार लियो जग तारन जू,सुन के मुनि कोशिक याचन आये।
हन घोर निशाचर मारग मे,मख की रखवारी करी वर पाये।
रिषि के संग आॅनद कंद चले,मिथलापति आकर शीश नवाये।
रच व्याह सुचारहु भ्रातन के,जग मे जिन के जस वेदन गाये।
(2) सिल देखी पड़ी यक मारग में,उसका बतलाते भये मुनि कारन
(9) कटि मूंज जनेऊ जटा सिर पै,लख आनन कोटिन सूरज लाजे।
मुनि चीर सरीर विभूत लसे,शशि भाल पै चंदन खौर सुराजै।
सिय जू अपने कर वेंदी रची,तुलसी तरू मालन की की छव छाजै।
मुनि मंड़ली कुंड़ली मध्य लखौ,मंदाकिन के तट राम बिराजें।(इति अयोध्याकंड़)
(10) कर कंजन से रघुनंदन जू,गुह हार चमेलिन के गजरे।
पहरे सिय आदर सादर से,थल पंकज देख गये लजरे।
सुत वासव वायस रूप धरे,पग मार के चोंच गयो भजरे।
यक वान कमानसे तान हनो,विनती कर नैन गयौ तजरै।
(11) कट में पट पीत व सीस जटा,लख स्यामल अंग अनंगहु लाजें।
ससि आनन कानन मे मुदरी,गुदरी कर वाण सरासन साजे।
’दुज’ भाल मे सुभ्र त्रिपंुड लसै,उर चिन्ह प्रभू म्रगराज के राजै।
वनवासी स्वरूप अनूप सदा,प्रिय सानुज संग हिये मे विराजे।
(12) साॅवरे अंग विभूत लसै,कटि मूॅज जनेऊ गरे म्रग छाला।
सीस जटा मुदरी गुदरी उर,सेली मनोहर है वन माला।
तीर कमान लिये कर में,पदत्रान विना संग कोमल बाला
पंचवटी वनमे विहरे,हम देखे अहो अवधेश के लाला।
(13) वन दंड़क मे रघुनंदन जू,निज हाथन पर्ण कुटीर बनाई।
समुझावत ज्ञान विरादर को,इतहास पुराण कथा सुख दाई।
अति सुन्दर रूप बनाये तहाॅ,उत रावण की भगनी तहॅ आई।
नकटी करके प्रभु ने उसको,मनो धूर दई पुन फेर पठाई।
(14) त्रिसरा खर्दूषण आदिक जे,वन दंड़क मे ये करे वर थाने।
रघुनंदन से लड़ने को चले,दस चार हजार बटोर के दाने।
फिर लौट न येक गये ग्रह कों,घनस्याम सरासन वान के वाने।
मुनि मंडली आय करी विनती,करता धरता हरता पहॅचाने।
(15) मृग रूप कहै दस कंध सुनो,जु रकार सुने डर लागत मोई।
रिषि की मख वाण हनो उर में,निधि तीर वसों भय व्यापत सोई।
घनस्याम न चैन परै पल येक,जिय काॅप रहो फिन आवत ओई।
तिहि ते समजावन बाद कहे,अब राम कहें आराम न होई।
(16) मृग रूप निशाचर आकर के,चरने को लगा जहें जानकी माई।
इस नर्म सी चर्म को ल्याइये जू,यह धर्म अहै अपना रघुराई।
निज रूप छिपाय सची पत जू,यक रोज चले इनका प्रण हारन।
यह गौतम नार सती जो रही,पति की इन श्राप करी सिर धारन।
पद पंकज की रज चाहती जे,घनस्याम करो मरजी जग तारन।
दोहाः- मख रखवारी करन हित, कोशिक मुनि के संग।
कर आदर सादर दिये,भूपत सहित उमंग।।
चैपाईः- कोशिक मुनि संग भूप पठाये। मख रखाय गंगा तट आये।
हनी ताड़का खल मारीचा। वारिध तीर परयो सो नीचा।
गौतम रिष की पत्नी तारी। कही कथा जो सुनी तुम्हारी।
धनुष जज्ञ मिथिलापुर होने। जनक लली के व्याह सलोने।
अस कह सो मिथलापुर आये। धनुष भंगकर श्री जय पाये।
परसराम मुनि आॅख दिखाई। जिनकी करनी प्रथम सुनाई।
सवैयाः-
भाल विशाल त्रिपुंड लसै,कट मूॅज जनेऊ गरे शिव माला।
केश दिनेश से आनन पै,झलकें तप तेज मनो लफ ज्वाला।
कंध कुठार सुधार धरो,जिय भूप ड़रे लख रूप कराला।
भगन पिनाक सुनो गुरू कौ,तब अग्न भये जम दग्न के लाला।
(2) टूट पुरानो पिनाक गयो,सुन के भ्रगु नंदन कोप कियो है।
न्रप लाल के तेज निहार थके,गमने वन को निज तेज दिये है।
दूलह श्री रघुनाथ वने,यह रूप कभी जिन देख लियह।
जीवन मुक्त वही नर है,जिसने निज मातु को दूध पियो है।
(3) अलकें झलकें घुॅघराली मनो,अलि संगम लेत पराग सुहाई।
द्रग दीरघ है उनमें कजरा,गजरा कर कंजन में सुखदाई।
सिर मौर लसै अरू चंदन खौर,सु कानन कुंद लडी छव छाई।
इन नैनन देख दुरी रजनी,घनस्याम बने वनरा रघुराई।
(4) इन बाजन आज सुने सजनी,इत आये अजू अवधेश दुलारे।
वर साॅवरे गात सलोने भले,द्रग दीरघ है जिनके रतनारे।
चल देखिये देखन जोग अहै,सब लोग कहे मिथलापुर वारे।
’दुज’ गांठ जुरै इनकी उनकी,विधि से कहिये धन भाग हमारे।(इति बालकंड)
(1) कोई समें वरदान दिये हित मान,नरेश धरे वह थाती।
कैकई आज मगाय रही,सुत राज करे हॅस के मुसक्याती।
सानुज राम सिया संग मे,वनवास करे यह बात सुहाती।
भूपर भूप परे तलपे डरवासब,के कर वज्र की छाती।
(2) रचकें पचकें गुरू मंत्र दियो,घर फोरू ने भोरी सी पाकर रानी।
कह कोटिन सौत कथा उसने,रसमें विष घोर करी मनमानी।
विनती कर जोर कहें महराज,न मानत है पुन जाय रिसानी।
’घनस्याम’ कृपानिध की मरजी,वन दीनदयाल चले हित मानी।
(3) पितु आयुस मान चले वन को,सिय सानुज संग सुभेष बनाई।
वरसा हिम आतप बात सहें,सुख सेज विहाय मही तल भाई।
नहिं कर्म की रेख मिटाई मिटी,अहो भावी बड़ी बलवान बनाई।
उनको भी मुसीवत आन पड़ी,जिनके ग्रह मे घनस्याम गुसाई।
(4) तज हाय बुढ़ापे मे मोय गये,न गये संग प्रान कठोर हमारे।
कर औध विहीन गये वन कों,मिलने न अहो अब प्राण पियारे।
तुम जाय सुमंत उपाय करौ,मन मूर सजीवन देव दिखारे।
’घनस्याम’ सिया रघुनंदन जू,कहके दसस्यंदन स्वर्ग सिधारे।
(5) वट क्षीर मगाय बनाय जटा,मुनि चीर सरीर किये प्रभु धारन।
लख भेष निखाद विषाद करै,समुझाय दिया उसको सब कारन।
तब नाॅव लिआय चढाय लिया,गुह ज्ञात लगा उसपार उतारन।
पुरखा पहले उस पार किये,फिर पार किये उसने जग तारन।
(6) मुनि भेष कहौ तुम को हो अजू,किन देश आप इतै पग धारे।
जलजात से गात सलौने भले,पद पंकज मंजुल अंग तुम्हारे।
द्रग नाथ सनाथ करे हमरे,अब जात किते मन मोहनी ड़ारे।
वन वासिन के अस वैन सुने,मुसक्यान लगे अवधेश दुलारे।
(7) जोगीश पिता दुहिता जिनकी,रघुनंदन से पतहे जिन केरे।
अंत अनंत न पाय सके,त्रैलोक डुगे जिनके रूख फेरे।
ते वन मे विन प्रान फिरे,अहो कर्म प्रधान भये विधि डेरे।
पाहन तें जो कठोर हियो,नहिं फाटत देख रहे द्रग मेरे।
(8) सखि ऐसे न नोने सलोने कहॅू,नहिं देखे सुने जग आज सो आई।
धन भाग कढे इन गैलन हो,हम देख सनाथ भये रघुराई।
वन वास दियो इनको जिन्हने,अजु कैसे कठोर पिता अरू माई।
’घनस्याम’ मनावन जात उन्हे,जग होने न नौने भरथ्थ से भाई।
कसकें कटि बाॅध जटा सिर के,शर तान कमान चले सुखदाई।
करकें छल दूर गयो प्रभु लै,वध ताह मिले पग में लघु भाई।
(17) इत लंक पती कर भेष जती,जस चोर गली सो सती को हरो है।
कुररी सम रोवत हाय चली,मग गीध जटायू सो आन गिरो है।
असि काट के पक्ष निपक्ष कियो,गढ़ लंक गयो अध छांड़ भरो है।
तरू सीसम के तर वास दियो,सुख सोवत सो मुख सेज करो है।
(18) वन ढूडत सानुज राम चले,मिथलेस लली जू किसी को दिखानी।
हम खेलन आज अहेर गये,मम जीवन मूर इतै से हिरानी।
तज प्रीतम संग अकेली दुरी,कोई देव पता न वताय निशानी।
विरही हम खोजत हाय फिरे,अजु कर्म प्रधान सही कवि वानी।
(19) ग्रह देहरा लीप प्रसून धरे,नव दूव हरे-हरे पाॅवड़े डारे।
शुभ चैक सिला कि पखार धरी,जल सींच भरे फल सों पनवारे।
शबरी अभिलाख हुलास भरी अजहू ह्वै,कवै धन भाग हमारे।
अजू फूली समात न अंगन में,रघुनंदन आज सुने पग धारे।
(20) चहुॅ ओर से जोर पहार धरे,शिल टोर प्रवालन पैरी बनी।
जल जन्हु सुता रब घोर करें,सिखी सोर करे लख रामधनी।
तरू झूमत चूमत भूम लता,पद पंकज से अति प्रीत धनी।
सुच सुंदर तीर सरोवर के,जल-जात को देख लजात मनी।
(21) गिर ऊपर बाली की त्रास बसै,प्रभु देख के बात कहै कपिराई।
अजु बात के जात लखौ इतहो,कोई आवयत सो मुह देत दिखाई।
तुम जाव वहाॅ कर से न यहाॅ,फिर जाय जहाॅ जिसके मन आई।
जयराम कही कपिराय मिले,निज कंध चढाय लिये दोई भाई।
(22) कंठ सुकंठ लगाय लिये,अपनी-अपनी कह बात सुनाई।
हरि डार स पल्ल्व आसन दै,उर बीच हुतासन प्रीत कराई।
कपि फौज बटोर कें जोर दाई,कछु खोजन गे कोउ जानकी माई।
महिमा ’घनस्याम’ कहाॅ लौ कहो,जब हेरे कृपा करकें रघुराई।
(23) यक वाण मे बालि के प्राण हरे,सुत अंगद को जुवराज बनायो।
करूणा कर राज सुकंठ दियो,पुन अंगद माई को ज्ञान सिखायो।
यह देह अनित्त है तत्त नही,न बची जु नची विध नाच नचायो।
यह जीऊ विनास न होत कभी,न जरै न वरै न मरै श्रुत गायो।
जलने से मकान बचा न कोई,पर येक विभीषण का घर ना।
(14) जानकी जी का सुदेशा दिया,वन रोंद दिया फिर मारी फलंगा।
लाॅघ समुद्र पलौं मे गये,वन जार उजार करी गढ़ लंका।
अंगद वारिधि पार मिले,मिल भेंट सभी फल खाये अशंका।
हाल कहयो रघुनंदन से,रण रावण जीत बजाइये डंका।
दोहाः- प्रभु के सकल संदेश कह,करकी मुॅदरी दीन्ह।
चूड़ामणि मुखमेल कपि,शब्द किलकिला कीन्ह।। (इति सुंदर कंाठ)
सवैयाः-
घनस्याम सुजान वयान किया,दल साज लिया कपि राज गराजे।
जब सैन चली धरनी सी हली,न मिली ती गली खल जीउ पराने।
घन घोर गराजें दराजे करे,न डरे जब बाजत जूझ के बाजे।
अति हेत सो फौज समेत प्रभु,रघुवीर जू सागर तीर विराजे।
(2) निधि नीर अपार न पार अहो,जल रास अकाश कों देत है बोरे।
अति जोर सों घोर गराजैं करें,टकराती जबैं चहॅु हिलोरे।
किलकें पुलकें मगरा कछुवा,अहि मीन अधीन उन्हें झक झोरे।
घनस्याम जू मारग मांग रहें,उत से उस पार अडे प्रभु दोरे।
(3) कर जोर विभीषण रावण से,समुझाय इन्हे न्रप नीत की बाते।
रजनी चर रावण बात सुनी,मन ही मन सोचत राम से घातें।
चल सोंप प्रिया उनकी सुनके,तत काल हनी उसने उर लाते।
हट जाय न आॅखन सामने से,घनस्याम के पास अरे अब जा ते।
(4) पद पंन्नग आज निहार हो जू,जिनका धर ध्यान सुरे सुर ध्यावें।
जिनके हित जोग मुनीश करें,जग जीवन मुक्त हुये यश गावें।
दीनदयाल दया करहें,सर्नागत आरत देख बुलावें।
चित मे अपराध न येक धरे,जग हेत धरे तन नाथ कहावें।
(5) नल नील ने बाॅध समुद्र लिया,उतरी उस पर कपीश की सेना।
युवराज को भेज संदेश दिया,अब जानकी दे नतु युद्ध को लैना।
पग रोपन कोप सभा मे कहो,हरि सें गर वैर किया तो बचैना।
इसमें नहिं झूठ जरा सा सुना,रघुनायक शायक है अति पैना।
(6) करजोर निहोर करै विनती,पग लाग दोऊ अपने भरता के।
उनकी सिय देव मिलौ उनसे,तिरलोक धनी करता धरता के।
(24) उमड़ी घुमड़ी चहुॅ ओर घटा,वन नाचत मोर सुहावन नीकी।
गरजै वर्षे चपला चमकें,सरिता उतहीं अभिलाख पती की।
झुक झूमती चूमती भूम लता,भुज मेलती येकन येक अली की।
लख भ्रात सदा सुध आवत है,घनस्याम कहे श्री जानकी जी की।
(25) रति और बसंत लता सणदा,लख रूप लजाय कें शीस नवाये।
तहरें लख गंग की अंगन मे,सुत लेकर गोद मे दूध पिलाये।
शिशु खेलत छोड़ गुफा लै गई,फल लाल निहार के लाल सिधाये।
इत अंजनी माय जू ढूढ रही,उत सूरन माल में दाव ले आये।
इति किष्किंधा कांडः-
(1) मुदरी सुख मेल सु खेल किये,चित माह सु खेल दियो कपि राई।
गिर पै चढ़ वाण समान उड़े,सुरसा मुह माह धसे जसुहाई।
रघुनंदन काज करोगे सभी,बल की वुध की हम थाह जु पाई।
मरजी घनस्याम कृपा निधकी,निधि नीर के तीर गये हर षाई।
(2) गिर श्रंग उतंग उमंग चढ़े,तहॅ बैठ लखी नगरी अधिकाई।
पहरै दुहरै दरबाजन पै,सहजोर निशाचर देत दिखाई।
छवि जोत झिलामिल होय रही,जल कोट कॅगूरन की परछाॅई।
घनस्याम दसानन राज्य उतै,अनु सोने की लंक समुद्र की खाई।
(3) लघु रूप बनाय प्रवेश किया,नहिं जान परे कपि लंक घनी है।
हनुमान ने बज्र समान मुठी,यक लंकनी के उर माझ हनी है।
तरनी सम डोल रही धरनी,मुॅह बीच मुठी भर धूर सनी है।
कर जोर निहोर करै विनती,अब रावण राज की रैहे न नी है।
(4) कर जान चिन्हार विभीष्ज्ञण से,दस कंधर अंदर देखो हरी है।
मिथलेश लली न मिली कितहॅु,धुकयाने मंदोदरि सेज परी है।
कछु सोच असोच बगीचा गये,तहॅ जानकी देख प्रणाम करी है।
मुॅदरी प्रिय प्रीतम की करमे,कपि छोड़ दई सिय शीस धरी है।
(5) अति दूवरी देह उसाॅसे भरें,वरसें द्रग मेह लगायो झरी है।
घनस्याम के रावरै नाम रटे,तलफैं जिय नीर बिना मछली है।
कपि दीन भयो लख जानकी जू,तरू बैठ अशोक के शोक हरी है।
पहॅचाने बिना कर की मुॅदरी,मिथलेश लली हिय चोक परी है।
(6) रघुवंसन के यश गान किये,सुनके परतीत कछु उर आई।
पहॅचाने विना कर की मुॅदरी,हिय हर्ष विषाद कहाॅ कित पाई।
सुख दैनये वैन कहे जिसने,वह सामने आवत काहे न भाई।
तरू डारनसे कपि कूॅद पड़े,मुख ओर निहारती जानकी माई।
(7) सिय के पद पंकज शीस नवा,धर धीर संदेसे कहे म्रदुवानी।
कर जोर रई मुॅदरी पिय की,हिय की सुख दैन ये मातु निसानी।
पुन शीतल वैन भये हिय चेन,सनेह सी नैन उघारे सियानी।
कह देऊॅ न उरन पूरन हो,श्री राघव भक्त कहयो महरानी।
(8) दस कंध कहै सिय को समुझाय,न त्रास करे जग मे सब कोई।
हमकों स्वीकार करो तुम जो,पट रानी करों पुन मालक तोई।
घनस्याम न राम इतै अैहे,सुन भूल गये मन में वह दोई।
राम रटो न सुनो अवलो,अरी राम कहें आराम न होई।
(9) फल खाऊॅ जो आयुस पाऊॅ,यहाॅ रजनीचर फौज करे रखवारी।
इनकों भय मोय न मातु कछु,अपने पद पंकज की बलहारी।
फल खाय अघाय के आय मिलो,अब दीजे संदेशव दीजे चिन्हारी।
श्री राम से जाय सुनाऊॅ सभी,निज नैनन देखी कथा विसतारी।
(10) तरू टोर मरोर करोर दिये,ग्रह फोर फरे फल बाग उजारे।
रख वारन मार सॅहार कियो,कछु जाय पुकार उठे अधमारे।
दस कंधर कोप किया सुनके,पठुवाये कुमार अछै भट मारे।
यक खंभ उखार हनो सिर पै,उर चीर के वीर शरीर विदारे।
(11) कर कोप चला घननाॅद जवै,कपि नाग के फाॅस से बाॅध लिया है।
तब रावण बाद-विबाद किया,सच बात यही दे सोप सिया है।
त्रिलोक धनी से बनी न बनी,अपनी कहना अघ माफ किया है।
गर मानो न मानो हमार कहा,नुकसान बड़ा उपदेश दिया है।
(12) इसकी देव पूॅछ मे आग जला,गढ़ लंक के चारहुॅ ओर घुमाना।
अपना मनका कर लेना सभी,मिलके पुन ढोल बजा के भगाना।
यह रावण का कहना सुनके,कपड़ा पुन तेल लगे सो मगाना।
दुम को हनुमान पसार दिया,झुक कीश कुजा की समान दिखाना।
(13) जलती दुम देख प्रचंड़ उदंड़,दवा वरबंड़ लगी भरना।
महलों पर मार छलांग चढे़,तब कोट कॅगूरे लगे गिरना।
चहुॅ ओर दवार पहार लगी,घिर दानव दैत्य हुये हिरना।
जग व्यापक ब्रम्ह्म अखंड़ वही,चरणोदक पी पग की सरिता के।
तज राज भजो रघुराज पिया,पहचान,अरे पति सिधुसुता के।
(7) दखसीस कि नार कहै करजोर,सु पाहुन जीत लई जू मही को।
हर आनसि चोर गती सिय को,नहिं मानी हनू युवराज कही को।
अब राम से बैर बढ़ाय लिया,मनमानी न सीख कही जो सही को।
घनस्याम चढ़े गढ़ देव सिया,जो गई सो गई अब राख रही को।
(8) कपि भालु निशाचर युद्ध ठनो,कर युद्ध विरूद्व जुझाऊ जू बाजै।
इत राम की जै उत रावण की,दुहूॅ ओर से मची रणधीर गराजै।
नख पाद प्रभु धर आयुध है,सिर ऊपर श्री रघुवीर विराजैं।
तन भार विहार संघार करे,रजनी चर सैन छिके दरवाजें।
(9) ललकार के फौज तयार करी,विधि के विपरीत है कात विचारी।
मचके तरवार मनो बिजुरी,उत वानर भालुन लंक उजारी।
सुर वृन्द विमान चढ़े नभ मे निरखें,अजु युद्ध परो रणभारी।
वर्षे असि वान मघा वर्षे मग से,चहुॅ ओर झुकी अंधयारी।
(10) छल से घननाद आकाश चढ़ा,सर ओले से गोले लगा वर्षाने।
असि तोप दनादन मार करै,कमरा से विछे कपि रीछ दिखाने।
तन छेदन भेद मिला उसका,वन वानर लै कर जोऊ पराने।
उर लाखन के रिपु शक्ति हनी,मुर्झाने दई सर सेज घराने।
(11) मूर सजीवन लेन गये,गिर द्रोण समेत उखाड़ लियाये।
वैद सुखेन बुलाय तभी,अहि नाथ के सेष कलेश छुडाये।
संकट दूर भरो छिन मे,भरपूर निशाचर मार गिराये।
दीनन के दुख भंजन जू,घनस्याम प्रभंजन अंजन जाये।
(12) अहिनाथ प्रकोप चले रण मे,घननाद से वीर के सामने आये।
ललकार भिरे गजराज मनो,सम युद्ध हुआ अति तीर चलाये।
निज तेज सम्हार अनंत प्रभू,रघुनंदन के पद पंकज ध्याये।
शर तान कमान हने सिर पै,तब रावण-नंदन मार गिराये।
(13) कट सीस भुजा धरनी मे गिरे,करनी लख रावण पीटत छाती।
भट भीर वहाॅ रणधीर भरे,रण भूम परे लड़का अरू नाती।
सुत बंधु मरे जल सिंधु परे,जग कोई बचे नहिं येक संघाती।
कुल वोरन आज कहेगे सभी,पर वान तजे न भायो कुल घाती।
(9) सुख छाय रहे चहुॅ ओर घने,वर्षे जल अन्न पजे मुॅह मागे।
दुख कोल कलेश रहो न कहॅू,नर नार अनंद भरे रस पाते।
न्रप नीत सौं राज्य धरापैं करें,अघ भूर महाॅ कलकाल के भागे।
घनस्याम के राज भये जब से,तब से अनुराग भरे दिन जागे।
(10) येक समय महराज सुनो,पुर बाहर आकर भ्रात बुलाये।
भूसुर वृन्द महाजन जे,मुन नारद और वसिष्ठ जू आये।
नीत बखान गियान कहो,समुझाय सुधर्म जो वेद न भाये।
आनॅद होत भयो सुनकें,प्रभु जो जिहिं लायक शीस नवाये।
(11) नाग की फाॅस बॅधे प्रभु थे,खगराज ने जाकर फंद छुडाये।
मोह भयो हिय मे उनके,तब कागभसुंड़ी के पास सिधाये।
हालत खोल कही दिल की,तब राम चरित्र विचित्र सुनाये।
दीपक ज्ञान सुजान कहों,अपनी उतपत्ति के हेतु बताये।
(12) पावत अंत अनंद नही,सन कादिक आदिक पार न पायो।
शुक शारद नारद हार थके,उपनेत करे जस वेदन गायो।
आद कवीश्वर गं्रथ रचो,तुलसी सरमानस ताल बनाओ।
थाह न पाय सके फिर भी,मति मंद कछू घनस्याम सुनाओ। (इति उत्तर कंठ)
चैपाईः- राम राज्य आनंद अपारा। वरन सके नहिं शीस हजारा।
जग जीवन मर्यादा भापी। मारे दनुज मनुज संतापी।
अवध सहित साकेत सिधारे। कीरत धबल विमल उजयारे।
बालमीक रामायण गाई। सो समस्त न्रप तुमहिं सुनाई।
पंचवटी पर गे कुरूराई। गोदावरी तीर सुखदाई।
संुदर घाट मनोहर नीके,राम धाम मंदर तुलसी के।
तपो भूम की रज सुखदाई। भक्त भय जिन अंग लगाई।
पग-पग सिंची सुगंध बसाई। चैक जवाहर लाल सुहाई।
मोती चैक मालवी जी के। बल्लभ तिलक गोखले जी के।
जहाॅ सुजात विराजत नोेने। संत समाज देख हर कोने।
देखत पंचवटी वन नाना। पाॅडव आगे कियो पयाना।
निवसे पाॅडव गुफा बनाई। विद्यमान अव लग सो भाई।
लोमश धोम्य दुजन के साथा। पंढरपुर पहुॅचे कुरू नाथा।
घननाद की वाम सुलोचन नाम,गई जहॅ राम कहै हरिये।
अब दीन दयाल कृपाल सुनो,विनती प्रभु येक दाहिये धरिये।
सरनागत आई मुहे रघुराई,पती कौ विछोह हरी हरिये।
मरिये संग शीस की कौशलधीस,यही वगशीस कृपा करिये।
(14) अहि रावण को हनुमान हन्यो,कपि वीर सुकंठ नरांतक मारे।
अतिकाय अकंपन आदिक जे,तिनको जुवराज ने मार पछारे।
कछु फौज निशाचर की जो बची,मिल वानर रीछन पेट विदारे।
रण माह तमीचर भूम परे,उवरे कपिराज समुद्र मे डारे।
(15) रण रावण राम गराज रहे,जुर दोनो अनी की ठनी तरवारे।
कपि वीर महा रणधीर लरें,न मुरें न टरंे सो सरीर विदारे।
दशसीस भुजा कट सीस परें,कपि गेंद वनाय करें किलकारें।
धड मंुड कगार के ब्रच्छ भये,अरू श्रोणित की निकसी बहधारें।
(16) गिर खंड से मुंड नियारें डरे,अरू रूंड परै उखटी नकरी सी।
जितनी कछु सैन निशाचर की,उर मीज लई कपि ने मकरी सी।
रथ ऊपर जाय कें लात हनी,जरसी भुज टोर लई ककरी सी।
पुन लूम घुमाय लपेड़ लिया,फिर रावण फेंक दियो चकरी सी।
(17) रघुनंदन चंदन बैठ तवै,निज तान कमान महासर जोरे।
उरशोष सुधा सर येक लिया,पुन येक ने जाय दसो सिर मोरे।
तब श्रोणित धार वही तन से,मनो गेरू भरे रस के घट फोरे।
पिंजरा तज प्राण पखेरू उड़े,रण रावण हाड़ परे अजु कौरे।
(18) लंक कौ राज्य विभीषण को,रघुराज दियो व विमान मंगाये।
हाल कहा समुझा करके,सिय लेने तभी हनुमान पठाये।
संग सहायक नायक जो,उनको अपने प्रभु संग बिठाये।
पंथ चलावत आवन की,रण भूम दिखावत यान उड़ाये।
(19) यह देश सुहावन जन्मपुरी,सरजू सरिता के मनोहर पानी।
तन पाप पहार विनाश करें,अस्नान निवास करें जब प्रानी।
करूणा निध के वर वैन सुने,महिमा श्री औध की नाथ बखानी।
’’घनस्याम’’ विमान उडो उततें,वन वाग मनोहर भूम दिखानी। (इति लंका कंठ)
(1) शेष अहो दिन येक रहो,ुसुध नाथ लई न अबै लौ हमारी।
औध विती तन प्राण तजों,नहि तो सर्नागत की बलहारी।
व्याकुल जौ जड़ जीऊ सहै,इसकी सुध हाय सुकाहे विसारी।
दास कहावत हों प्रभु कौं,दुख दूर करो अवधेस विहारी।
(2) सोचत सोच विमोचन को,दुख मोचन राम भरथ्थ से भाई।
ब्राम्ह्मण के धर भेष तहाॅ,हनुमान ने आकर क्षेम सुनाई।
सानुज राम सिया संग मे,रण रावण जीत लिया रघुराई।
कीरत गाय रहे जिनकी,वह आवत आज महाॅ सुखदाई
(3) बदले मे संदेश के देऊॅ कहा,मन खोज लिया जग मे न दिखानो।
नहिं ऊरण हों रिणियां तुम्हरो,तुम प्राण समान मिले सच जानो।
अब कौशल नाथ कृपा करहें,घनस्याम सदा जन को हित मानो।
रघुराज गरीब नवाज अहो,प्रण तारण दूर करे यह वानो।
(4) हिय आनंद होत भये सब के,सुन के रघुनंदन जू की अवाई।
शुभ कंचन थारन जोत धरी,मन मोद भरी श्री कौशल माई।
प्रभु सादर लेत चले मिलवें,नभ बाजे बजे पुर होत बधाई।
सुरब्रन्द विमान चढ़े हर्षे,वर्षे घन फूल महाॅ सुखदाई।
(5) क्रस गात जटा सिर सोहत हंै,जलजानन मोहत तेज निकाई।
तुलसी दल माल विराज रही,अरू कानन मे मुदरी सुखदाई।
मुन चीर मनोहर खौर लसे,रसना सियाराम रटै लव लाई।
करजोर विनीत खड़े मग मे,यह देखो सखा मम भारत भाई।
(6) भारत भाई प्रणाम करी,प्रभु वाॅह पसार हिये सो लगायो।
मूरत स्याम सलौनी भली,उमगे द्रग आनंद नीर बहायो।
पूॅछत क्षेम भये पुर की,रिपु सूदन सीय समीप पठायो।
मातन जाय प्रणाम करी,गुरू के पद पंकज शीस नवायो।
(7) पुर वासिन से श्री राम मिले,निज धाम चले पद पाॅवडे ड़ारे।
हर दोरन खौरन कलश धरे,शुभ चैक पुरे बंधे बंधन वारे।
मग चंदन केशर सींच रहे,उड़ केतु रहे पुर बीथिन न्यारे।
महाराज धिराज गरीब नवाज,सुराज सिंहासन आज पधारे।
(8) महराज धिराज सिंहासन पै,तिन संग बिराज रही महरानी।
रिपु सूदन चैर डुलाय रहे,अरू लाखन क्षत्र रहे सिर तानी।
विजना कर सोहत भारत के,शुभ चंदन खौर करे मुनि ज्ञानी।
पद पंकज के धर ध्यान रहे,हनुमान सुजान सदा सुख मानी।
दोहाः- शसि भागा सुर सुंदरी,धाम मनोहर तीर।
पंढरपुर देखे सुखद,पाॅडु रंग जदुवीर।।
चैपाईः- मनियागिर के मंदिर सुंदर। पुंडरीक प्रभु ब्राजे अंदर।
नामदेव ब्राजे दरवाजे। गावत भजन बजावत बाजे।
नामदेव के शिष्य प्यारे। हरि भक्तिन मे जेम निहारे।
विठ्ठलेश इठवा भगवंता। गोकुलेश लायो प्रिय संता।
पंढरीक पंढरपुर जासें। आधी कहत द्वारका तासे।
इनकी कथा अलोकिक भाई। हरि भक्तिन हरि कथा बनाई।
स्वामी रामदास के चेला। लगत अषाड़ असाड़ी मेला।
ते भगवा झंड़ा फहरावें। संुदर राग मरेंठी गावें।
भये समर्थ वीर वरवंड़ा। वही शिवा जी के प्रिय झंड़ा।
सोमित सुंदर पुरी बजारू। नीको पुंड़रीक श्रंगारू।
लाल पाग जामा जरतारी। कमल नेन सोहत भुज चारी।
संख चक्र अरू गदा बिराजै। अंबुज भुज अंगद शुभ राजै।
रतन जड़ित सिंहासन सोने। छत्तिस कोट देव हर कोने।
जलज माल तुलसी दल नोने। पीताम्वर कटि सोह सलौने।
दरस परस कर-कर अस्नाना। पुंड़रीक प्रभु के धर ध्याना।
आगे चली निहारी गंगा। सति भाग अस्नान तरंगा।
संगम गोदावरी पुनीता। भीमा कृष्णा कपिला गीता।
दोहाः- तंुग भद्र अस्नान कर,चढ़े प्रवर्षण जाय।
किसकिंधा देखी बहुर,गुफा अंजनी माय।।
सोरठाः- चंकित भये सुन भूप,गुफा अंजनी माय की।
कहिये कथा अनूप,हनुमान के जन्म की।
दोहाः- लोमस ऋषि बोले तवै,धर्म राज सो वैन।
जन्म कथा हनुमान की सुनिये न्रप सुखदेन।।
छंदः-
उद्यानॅ वन यक शैल सुंदर,तंुग भद्रा तीर था।
गिर पास था पंपा सरोवर,स्वच्छ जिसमे नीर था।
स्वेत पंकज खिल रहे कुछ,हिल रहे झुक झुमते।
मधुमन्त मधु कर मधुलोभी,चूमते रस घूमते।
सुन बात निज सुत की कथा,फिर बात करना तज दिया।
उर मेल वायु अपान ते,व्रत मौन धमनी धर लिया।
जड़ जीऊ जीवन के,भरे पुन फूल उठ्ठे थे उदर।
न्रप लोक मृतक समान थे,सुनसान थे जाते किधर।
अमरेश थे बस लेश के,लबलेश लव पर जान थी।
अमरेश थे मरते न थे,पर बात पर कुर्वान थी।
सुर यूथ यूथप जूथ थे,करने लगे विनती सभी।
हनुमान ने वर्दान पा,जग भिक्षु को छोड़ा तभी।
हे बात हे जग तत स्वामी,बात को रख लीजिए।
अपराध जन से जो हुआ,वह माफ प्रभु कर दीजिए।
हे प्रभंजन दुक्खभंजन,प्राण दाता हे विभो।
हे काल भक्षक दीन रक्षक,जग्त व्यापी है प्रमो।
बलबत हो बलवान हो,रणधीर होगा ये तनय।
शुभ अंग हो,बजरंग हो,गंभीर होगा ये तनय।
गुणवान हो,वुधवान हो,श्रीराम भक्त प्रमान हो।
ब्रम्ह्मचारी हो ये बालक,वीर्य तात समान हो।
जग्त जननी जानकी का,जब करे रावण हरण।
उल्लंघ करके नीरनिध सुध,लायगा असरन सरन।
संकट हरैया देस का,हरि नाम सुमरन जो करे।
मेटे अमंगल भक्त का,बजरंग मंगल पुन करे।
वर्दान सुन बजरंग ने,तज गाल से सूरज दिया।
डुल उठी ततकाल सुरभी,परकास दिनकर ने किया।
जगदीश जग उद्या सहित,अवतार धर्नी धर धरंे।
श्रीराम यश के केतु ये,नव सेतु की करनी करंे।
जय बोलिये श्रीराम की,हनुमान की घनस्याम की।
जय बोलिये गुरूदेव की,सुरदेव मर्दन काम की।
इति श्री भीम पुराणे द्वितीय खण्डे महाभारतान्तर्गत श्री राम चरित्रे हनुमत जयंती वर्णनो नाम चतुर्थोध्यायाः-4
दोहाः- शुभ पंचम अध्याय मे,त्रपती बाल गुविद।
बाबा हाथी राम की,कैहो कथा स्वछंद।।
कचनार अंब कदंम के,सिर देखिये सिहरा बॅधा।
कटि वद्धय ताल तमाल किंशुक,फूल कर करते अदा।
पिक कीर कोयल कोकिला मिल,सपृ सुरगाने लगे।
रसरंग बस बारांगना शिखि,नृत्य सुख पाने लगे।
लहलही लहरात ताजी,सुमन बेली भ्रदुलता।
रितुराज स्वागत के अहो मुख,चूम देती ये पता।
त्रिविध सौरभ डोलती,अरू बोलती खग गोल थी।
पूर्ण गंग तरंग थी,कर शब्द क्या कल्लोल थी।
कलित कलियाॅ ललित लेती,मंजु मंगल झूलवी।
भुज मेल करती खेल करणी,देख हिरणी भूलती।
ऋतुराज साजु समाज का,अनुराग पूरण रूप था।
परिधान रस श्रंगार था,सरपंच उसका भूप था।
गिरि तंुग का यक श्रंग था,शिल येक चिकनी चीप थी।
सत पत्र आसन थी बनी,क्या संगमरमर छीप थी।
रितुराज रानी की थली,रितुराज का सुख धाम था।
नाम का आसीन था,शुभ अंजनी क्या नाम था।
प्राण प्यारी केशरी की,मातु श्री हनुमान की।
देव कन्या थी मनोहर,मोचनी रति मान की।
कर कंज गेंद उछालती,करती हुई अठखेलियाॅ।
मुसक्यान जिसकी देखकर,कुरबान होती बेलियाॅ।
पग पान मंजुल पान से,धुन पूर्ण नूपुर बाजही।
म्रदुगात पंकज पात से,कटि खीन किंकणि राजहीं।
तन बसंती चीर अति अनमोली,चोली उर लसे।
लहरात कटि तट लट,मनोहर पन्नगी फणि मणि बसे।
भुज बंद कंद मनोज के,गजसंुड पंकज नाल से।
हिय मालती की माल,सुंदर अधरविदुम लाल से।
कचनार के हिय हार,सोने बाज थी गुलनार की।
जुग जंघ रम्भा सद्रस थी,पद अंगुली थी तार की।
लोल लोलक कर्ण ड़ोले,गोल कुंडल मन हरन।
बंक भ्रकुटी नेत्र नीरज,बंक चितवन बस करन।
नील गिर पर इन्दु अस्थित,पीत पट घन-दामनी।
देख प्राकृत दृष्य अदभुत,काम बस भई कामनी।
देख सुंदर भेष मारूत,लेश मनसिज का हुआ।
धीर से गह चीर अंचल चित्त,चंचल था हुआ।
ज्यो प्रभंजन अंजनी से केल,कर जाने लगे।
भंग पातिव्रत किया,रिस जान समुझाने लगे।
काल बालक होयगा,बलधाम हो बलवान हो।
राम यश का केतु हो,हनुमान इसका नाम हो।
कह प्रभंजन अंजनी से,आप नभ गामी हुये।
पूर्ण गर्भाधान के,दिन मान आगामी हुये।
कार्तिकी सुद पूर्णमासी,वार शुभ शनिवार था।
नक्षत्र सुंदर हस्थ था,ग्रह योग मे अवतार था।
करतूत सुनिये पूत की,मजबूत की सुंदर कथा।
अघ ओघ विन्घ्र विनासनी,दुखभंजनी गंगा यथा।
यक दिवस अंजन माय ने,पय प्याप के परभात ही।
गिर श्रंग की थी साथ चैकी,चैक में पोढ़ायकें।
ग्रह कार्य करने के लिए,ग्रह द्वार फाटक बंद कर।
किलकिला हट बुल बुला हट,बंदरो की बंद कर।
उस वक्त थे षट मास के,मुख क्रांत-क्रांत समान था।
कपि केशरी का केशरी,सम केशरी बलवान था।
किलकिला कर शब्द कर,मुख पान अॅगुठा मेलते।
नभ ओर घूर निहारते,रसरंग मणि से खेलते।
परभात होने से प्रथम था,सूर्य अरूणोदय हुआ।
फल जाने लाल प्रबाल का,धर गाल मे चंपत हुआ।
चहुॅ ओर से घन घोर,तम का रूप छाया लोक मे।
नर, नाग, किन्नर,देव,सुर मुनि आदि बैठे शोक में।
निशि जान निश्चर वंस के,सुख मान सुख पाने लगे।
बलि भाग बिन सुर,क्षीण भागी दीर्घ दुख पाने लगे।
कर कोप बज्री ब्रज से,बजरंग-हनु ताड़ित किया।
हनुमान ऐसा नाम धर,वरदान भी उन्हे दे दिया।
वहिं तरूवर गिर वन गुहा,वन विहार रघुवीर।
फटिक सिला निर्जन वही,तुंग भद्र के तीर।।
गिरजा पति शिव के दरस,कीजे पाॅड़व राय।
जिसके सुमरण के कियें,सकल कार्य बन जाय।।
क्रीडा चल बैंकट अचल,सन्मुख छेव वराह।
कपिल धार नीचे वहै,ऊपर ससि के नाह।।
क्रीडा चल लक्ष्मी बसै,बैंकट अचल हमेश।
कोल्हापुर वासी कहैं, यासे त्रपती कोष।।
चैपाईः- धर्मराज हॅस बोले बानी। कहहु नाथ यह कथा बखानी।
कोल्हापुरी रमा कर वासा। बैंक्टाद्रि पर रमा निवासा।
सुनहु भूप यह अकथ कहानी। सौनक मुन से सूत बखानी।
सो समस्त न्रप तुम्हे सुनाऊ। लीलाधर की लीला गाऊॅ।
यक दिन भ्रगु के मन आई। जग मे बड़ा देव को भाई।
सहजहिं गये विस्नु के लोका। देखे पुर बैकुंठ विशोका।
सोवत सेज अनंत निहारे। क्रोध सहित भ्रगु वचन उचारे।
छाती लात येक हन मारी। जागे लोकनाथ असुरारी।
कमल नैन कमलापत बोले। गह भ्रगु मुन के चरण अमोले।
कुलिश प्रमाण कहाॅ मम छाती। कोमल चरण कमल असपाती।
मीजन लगे चरण सुखदाई। देख रमा उठ चली रिसाई।
हीन दीन पति पास न रहिये। सुनहु विप्र हम तुम से कहिये।
मुन महाराज बड़े निर्ससी। भिक्षुक होय तुम्हारे वंसी।
रमा श्राप दीन्ही मुन जब से। ब्राम्हण भये भिखारी तब से।
कमला पति से चली रिसाई। क्रीडा चल कोल्हापुर आई।
क्रीडा चल जब लक्ष्मी आई। गये मनाबन हेत गुसाई।
दोहाः- गये बैक्टा चल अचल, रहे तहाॅ सुख पाय।
बालक बालाजी भये,बामी रहे समाय।।
चैपाईः- सिध्य गुझय चारण गंधर्वा। अरतुत करहिं देव ऋषि सर्वा।
फूल माल वर्षावहिं देवा। गावहिं सुयश जनावहिं सेवा।
ब्राम्हण को स्वरूप धर आये। क्षीर धार अभिषेक कराये।
चोलराज ग्रह सुरभी स्यामा। श्रवत क्षीर थन आठहु यामा।
चैपाईः- ब्याह उछह कुवेर बुलाये। रिण उधार के पत्र लिखाये।
येक करोड लक्ष सत दूने। सुवरण मुद्रा लये प्रभू ने।
रामराज के समय मुनीसा। रामटेक मे प्रचिलित दीसा।
रिण उधार लै ब्याह कराये। बाला जी रिण फेर चुकाये।
त्रिपती जुर मिल सजी बरातें। ब्रम्ह्मा पढ़े बेद की बाते।
ब्रम्ह्मा विस्नु महेश बराती। हाथी राम सजायो हाथी।
कोल्हापुर से चली बराता। भये सगुण मुद मंगल दाता।
लक्ष्मी सहित इन्द्र इन्द्रानी। नदी नदीश देव देवतानी।
मधुर मनोहर गीत सुनाये। शशि वरणी जुर गारी गावें।
सुंदर तीन दई उन पाॅते। षटरस बिंजन क्षीर सुधा ते।
सुदिन सोध सुभ धरी धराई। भाॅवर ब्रम्ह्मा विप्र पढ़ाई।
अमित दायजे दये नभ राजा। खान पान लख सुखी समाजा।
कर विवाह आये निज धामा। बैकट गिरी ब्राजे घनस्यामा।
पद्मावती रूप धर आई। क्रीडा चल पर ब्राजी माई।
दोहाः- या विधि लक्ष्मी नाथ ने,लक्ष्मी लई मनाय।
महालक्ष्मी की कृपा,कथा कही सुख पाय।।
चैपाईः- यही भूप बाला जी मंदर। यही बैंकटा चल के कंदर।
क्रीडांचल कोल्हापुर जानो। महालक्ष्मी टेशन मानो।
वर्तमन सुंदर यक खाई। महालक्ष्मी कृपा सुहाई।
बाॅमी पय की धार समानी। कपिल धार ह्व प्रगट दिखानी।
पाप नाशनी गंगा माई। कपिलेश्वर के जटन समाई।
दोहाः- पद्म सरोवर के निकट,पद्मावती स्वरूप।
त्रपती सरिता नहर के चरित,कहों सुन भूप।।
पुष्कर्णी के तीर्थ इत,तीरथ बने कदाह।
कपिलेश्वर स्वामी लखो,देखो छेत्र बराह।।
यहाॅ संत यक हो गये,बाबा हाथीराम।
कठिन तपस्या उन करी,करी भक्ति निष्काय।
चैपाईः- द्वादस वर्ष रहे पग ठाड़े। संकट विकट सहे सिर गाढ़े।
हिम वर्षा आतप अरू बाता। सनमुख रहे उघारे गाता।
मगन मस्त डोलें ज्यों हाथी। सदा चरहिं इमली की पाती।
स्यामा गाय अहीर चरावें। चोलराज की नार लगावेें।
कबहूॅ गाय जाय वन चारन। सुरभी रूप धरे जग कारन।
चरन चीर धरनी पर धारे। थन से श्रवहिं दूध की धारें।
क्षीर धार बाॅमी पर जावें। बालक बाला जी को प्यावें।
यक दिन कोलराज की नारी। गाय लगावत रही विचारी।
थौरो दूध देख झुंझलानी। बड़ी वार मे आज पलानी।
दूध अहीर पियत है वन मे। कढ़त पसेवन गैया थन मे।
गई ग्वाल के खिरक सो नारी। गारी दई क्रोध कर भारी।
झिरत दूध के रहे पनारे। रीते दुहना ड़रे हमारे।
अस कह सो निज भवन सिधारी। ग्वाल बाल हिय क्रोध अपारी।
बड़े भोर उठ गोरू छोरे। कोल गाय पर ड़ारे डोरे।
धेनु ग्वाल की नजर बचाकें। बामी ऊपर ठंाड़ी जाके।
दोहाः- श्रवत क्षीर की धार,सो देखी जाय अहीर।
बालक बामी मे परे,किलक पियत तें क्षीर।।
चैपाईः- देख अहीर क्रोध कर भारी। मारन हेतु उठाई कुल्हारी।
लख ग्वाला लाला भये ठांडे। स्यामा पर देखे दुख गाड़े।
गोविन्दा कह ग्वाल पुकारो। गोविद नाम धरो जग न्यारो।
ग्वाल अजान भेद नहिं जानो। बाला जी पर अधिक रिसानों।
लाठी येक सीस तक मारी। रूधिर धार वह चली पनारी।
श्राप दई बाला जी तबहीं। मूर्छा खाय गिरो महि तबहीं।
दियो श्राप वस भयो पिसाचा। प्रेत यौन भुम नाचो नाचा।
मूर्छा गई लाल की जबहीं। चोल नार ढिंग आये तबहीं।
ताने सब ब्रत्तांत सुनायो। गोविंदा का ठाम दिखायो।
चोल राज जब दर्शन पाय। मनके भ्रम के भूत भगाये।
दुर्लभ इन्द्र आदि को दर्शन। रिषि मुनि ध्यान लगावें वरसन।
बाल रूप बाला जी देखे। जीवन जन्म सुफल कर लेखे।
दोहाः- बाॅमी पर बालक परे,देखे बाल गुविंद।
सुरभी पय प्यावत,जिन्हे किककत आनंद कंद।।
चैपाईः- म्रदुल मनोहर झालर झलकै। भाल दिठोना लख मन ललकै।
कमल नैन सुंदर श्रुति नासा। उर भ्रगु लता रमा हिय वासा।
रतन जड़ित चूरा भुज चारी। करिवर कल भसुंड फनयारी।
तुलसी माल विराजत नोनी। कौरतु मणि उर कट कर धोनी।
पंकज वरण चरण अरूणारे। रून झुन नूपुर बाजहिं प्यारे।
पगके अॅगुठा मुख मे मेले। बालमीक पलना पर खेले।
तन घनस्याम कमल दल लोचन। भाल तिलक झलकै गौरोचन।
शेषनाग छाया फन कीन्हे। बाल गुविन्द गोद मे लीन्हे।
चोला चोलराज जब पाये। प्रभु के चरनन शीस नवाये।
सेवक चूक क्षमा प्रभु करिये। उर अपराध न जन के धरिये।
अस सुन विहॅस कही श्री कंता। श्राप अनुग्रह कीन्ह तुरंता।
क्षमा करे अपराध तुमारे। क्रीट मुकट सिर धरौ हमारे।
प्रभु आज्ञा सुन मुकट बनायो। हरि गोविद्र के शीस चढायो।
दोहाः- मणिन जड़ित सुंदर मुकट,शुक्र दिवस सानंद।
सवा पहर धारन करहिं,अब लग बाल गुविंद।।
चैपाईः- अस कह प्रभु भये अंतरध्याना। चोलराज को दैव बरदाना।
बकुल मालिका सुंदर नारी। करहिं सदा सेवा परचारी।
संुदर खीर छीर स्यामा के। नित नये लगे भोग बामा के।
बाल रूप बलि के बाला जी। बकुल मालका के लाला जी।
दिश आग्रेह नगर सुभ धामा। नारायणपुर बाकर नामा।
सो आकाश राज रजधानी। ताग्रह सुता रूप गुण खानी।
पदमावती रमा कर रूपा। लक्ष्मी धारण कियो स्वरूपा।
पदमावती बाग वन नगरी। बाग संुगध चहुॅ दिश बगरी।
यक दिन म्रगया हेतु महीपा। चढ़े बाज गये बाग समीपा।
पद्मावती रही ता बागन। गावत ऋतु व संत के रागन।
सुंदर बाज ताज सिर सोहे। कोटिन मदन बदन लख मोहे।
कटि पट पीत केश घुॅघरारे। पंकज बरन नैन रतनारे।
चिबुक नाशिका म्रदुल कपोला। पदिक हार उर हार अमोला।
श्रुति कुंडल मणि मुंदरी छिगंुरी। सुंदर जलज नार सम अंगुरी।
जुरे चार चरव नजर मिलाई। प्रीत पुरातन प्रकट दिखाई।
दोहाः- सुनी खबर नभ न्रप जवै,देखे बाल गुविंद।
लगन पठाई सोध दिन,मुदित भये सुर वृन्द्र।।
मीठी स्वाददार भई इमली। हाथीराम धाम यह विमली।
चरित अनंत कहां लग कहिये। बाढ़े कथा पारना लहिये।
तासे आगे कहत बहोरी। जैसी कछु लघु बुध है मोरी।
अब चलिये आगे महिपाला। सिव काॅची के सुनिये हाला।
विस्नुपुरी शिवपुरी निहारौ। यह मदिरास देश है प्यारौ।
सपृपुरी विच महिमा भूरी। सिवरात्री माहात्म जरूरी।
श्लोकः- अयोध्या मथुरा माया,काशी कांची अवंतिका।
पुरी द्वारावती ज्ञेया,सप्रै मोक्ष दायकः।।
चैपाईः- शिव पुराण मे महिमा गाई। ब्राजे कुटुम सहित शिव आई।
नासिक त्रिबंकनाथ विराजें। पशुपति पंपापुरी सुराजें।
विश्वनाथ काशी के वासी। सोमनाथ प्रभु क्षेत्र प्रभासी।
महाकाल उज्जैन निहारे। रेवा तट विमलेश्वर प्यारे।
द्वादस जोतिर्लिंग स्वरूपा। वैध्यनाथ तुम देखे भूपा।
बदरी वन केदार स्वामी। रामेश्वर हर अंतरयामी।
दोहाः- करी लिंग की थापना,पूजहि लिंग स्वरूप।
लिंगायती उपासना,मदिरा देश अनूप।।
देश प्रथा यक है भली,बड़े भोर ग्रह दोर।
चैक पूर आक्रत करे,संख चक्र हर खोर।।
पुंगी फल तरूवर घने,घने केल के बाग।
ताड़ ब्रच्छ अरू नारियल,चले देश के भाग।।
चैपाईः- भीमाशंकर अरू नागेश्वर। मल्लिकार्जुन अरू धूमेश्वर।
सिव कांची पशुपति नेपाला। ये है द्वादस लिंग न्रपाला।
इति श्री भीम पुराणे द्वितीय खण्डे महाभारतांतर्गत कथा बाला जी,हाथीराम बाबा चरित्र वर्णनो नाम पंचमोध्यायः 5
दोहाः- रामेश्वर के पंथ के,जे जे तीर्थ अनूप।
कहों छटये अध्याय मे,शहर ग्राम सुन भूप।।
चैपाईः- पंछी तीरथ के परमाना। पंछी रूप धरे भगवाना।
पंछी तिरथ के माहात्तम। बैकटाद्रि क्रत सुन पुरूषोत्तम।
मीनाक्षी देवी के मंदिर। भीमा देवी के अति सुंदर।
भीमा देवी भीम पधारी। महिमा जासु जान त्रिपुरारी।
टेशन अमित भई ईजादे। चिंतरंजन इंजन कल सादें।
चरखा चक्र चलाये मोहन। उत विमान जल कल के जोहन।
रामनाथपुर सिंधु किनारे। मिलत अनेक बसन रंग बारे।
कवित्वः-
हेरत अंगेज दस्तकारी अंगरेजो की,जादू की पूडिया है इनके क्या पासमें।
चारो दिस मुलकों की सैर करें मिनटो में,जंगल गिर द्वारों में थल में जल रास मे।
सर्दी हो गर्मी हो लगी मेह झड़ी हो,रात हो अंधेरी दिन गैस के प्रकाश मे।
जैपिलन चलाई कला अद्भुत दिखाई ’दुज’,जिहान है हवाई उडे़ अधफर अकाश मे।
टोर-टोर फोरकें पहार हार-हार किये,कोल कोल पोल सी बनाय गोल कीन्ही है।
चाटीयों घाटी परपटी ज्यों आगे की,सरितन बाॅध सेतु हेतु चिंत चीन्हीं है।
छोल-छोल पाटी की पटरी बिछाई भग,गिट्टी और मिट्टी की छिटकी गह लीन्ही है।
टेशन बनाय तार सिंगल लगाय दिये,इंजन बनवाय के चलाय रेल दीन्ही है।
कैंधों राम वाण की समान हनुमान जात,कैधों पन्नगार के प्रचंड़ चक्रवात जात।
कैधों गिर्राज जू सपक्ष पक्ष जाय जात,कैधों अहनाथ वेग बल्मी में समात जात।
कैधों पुष्प यान के विमान जात देवन के,रावण कौ रथ कें सवेग नभ मार्ग जात।
कैधों अंगरेजोकी यूरूप की शक्ति जात,बात जात पीछे अॅगाड़ी रेल गाड़ी जात।
दोहाः- देश लखै गुजरात के,शहर अहमदाबाद।
साबरमती अस्नान कर,गाॅधी आश्रम आद।।
चैपाईः- सुंदर चाल मरहठीनी की। खाॅय पराठे वन सु छवी की।
श्री गाॅधी यह देश जगायो। ग्रह-ग्रह चरखा चक्र चलायो।
भई येक ताई हर कोने। तिलक पटैल गोखले नोने।
वस्त्र विदेशी त्याग दिये है। अनसन वृत मुख मौन लिये है।
खादी की सादी पौशाके। रहे विदेशी जै मुंह ढाॅके।
सवैयाः-
इस्टेशन गुंडक मे उतरे,उत येक छटा नई देख परी है।
गज गामनी भामनी सी पट रंग,विरंग तिरंग किनार जरी है।
कटि पेटी सुवर्ण से वर्ण लसें,उर चोली कसें सिर बेदी धरी है।
सटकारे से बार सनेह भरे,सुमराव से बैनी जराव जरी है।
उलटे पहराव की सारी लसैं,भुज चोली के खूब सुबंधन कस्ते।
ससि भाल पै लाल सिरी की धरी,अरविन्द पै विन्दु धरे अल मस्त।
अघनाशन गंगा कावेरी। कस्हुॅ निमज्जन करहुॅ न देरी।
भूप देख कावेरी गंगा। शंभु चिदंबर अरू श्री रंगा।
माया बरं जनार्दन स्वामी। नदी ताम्रपर्णी अघहामी।
तोताद्री पुन मदिरादेवी। देख राम नद नगर सुसेवी।
वेनु लुगाॅत विनायक देखौ। नव पाषाण नव ग्रह लेखो।
धनुष तीर्थ बैताली भेरव। जंवुकेश पंडवन कुरू केरव।
है येकांत तीर्थ निज मंदिर। दूत पठाये इत दशकंधर।
है चैबीस तीर्थ मंदर मे। इनके नाम कहे संुदर मे।
श्री रामेश्वर दर्शन कीजे। देहि स्वराज मांग वर लीजे।
प्रथम कथा रामायण वर्णी।सकल चरित रघुवर की करणी।
जब श्री राम सिंधु पुल बाॅधे। पूरण कार्य हेतु शिव साधे।
त्रेता युग अरू सतक येक दस। निश्शंकेश्वर ब्राजे शिव वृस।
मंदर सुंदर एक बनायो। संभु स्वरूप लिंग पधरायो।
शैल गंध मादन कपि लाये। काशी विश्वनाथ संग आये।
शिव अभिषेक राम जब कीन्ही। रावण आय प्रतिष्ठा कीन्ही।
सेतु बॅध रामेश्वर दीपा। मूंगा गिर पै वसहिं महीपा।
संगम रत्नाकर सागर के। धनुष कोटि तीरथ आगर के।
स्वेत प्रवाल मूर्ति माधव की। मूरत लखहु स्वेत माधव की।
राम कुंड लछमन के देखो। ती संग कुंड जटायू पेखो।
दोहाः- धर्मराज असनान कर, गंगा जल मॅगवाय।
रामेश्वर दर्शन किये,गंगाजली चढ़ाय।।
चैपाईः- जेनर गंगोत्री कहॅ जावै। गंगा जल भर काॅवर लावे।
जो रामेश्वर आन चढावहिं। सो सायुज्य मुक्ति नर पावहिं।
सत्य असत्य जो मन मे लेखो। रामेश्वर माहात्तम देखौ।
फल महात्म अरू कथा अनूपा। इन चैवीस तीर्थ के भूपा।
कहे सकल स्कंध पुराना। रामायण आनंद प्रमाणा।
रामेश्वर मंदिर प्राचीना। त्रेता कल्पांतर कालीना।
रहो रामनद नगर सुराजा। सेतु ब्रती गुहराज विराजा।
पांडु राय अति आदर कीन्हा। सिंधु समीप राज्य तिहिं दीन्हा।
ता के कर मंदिर की सेवा। आप समान मान नहिं मेवा।
लंका जीत राम जब आये। आप सेतुपति तिलक कराये।
चोलराज पर करी चढ़ाई। स्वयं कीन्ह रघुनाथ सहाई।
वेद पुराण इसम्रती नाना। लिखे महात्तम विविध विधाना।
मदुरा लिखत मैनुअल देखो। सोरह सौ यकसठ कौ लेखो।
आदि काव्य रामायण मानो। बालमीक मुन प्रथम बखाना।
व्यास आदि कवि पुंगव नाना। तुलसीदास लिखे परमाना।
सो समस्त न्रप तुम्हें सुनाई। अव निज तीरथ रचहु बनाई।
नाम सुयम कछु रहे तुम्हारे। दान पंुन कर लेहु सम्हारे।
पांडव तीर्थ कियो निर्माणा। रामेश्वर माहात्तम बखाना।
लक्ष्मी तीर्थ किये अस्नाना। राज सूय हित मिले खजाना।
दोहाः- ओही मग बहुरे बहुर, राम लोक पाताल।
कहत हैदराबाद अब,लोग नागपुर हाल।।
चैपाईः- प्रथम नागपुर कर इतहासा। वर्णे फिर हम सहित हुलासा।
शवरी वन पुन जाय निहारे। पूना बम्बई शहर मझारे।
इतै सुराज राज भये देखे। चरखा करघा चले अलेखे।
महाराष्ट्र यह राष्ट्र विजेता। बल्लभ तिलक गोखले नेता।
तिलक गोखले स्वर्ग सिधारे। होम रूल के मंत्र सिखारे।
गीता रहस लिखी शुभ टीका। अंत काल कैलाशपति का।
जिनकी कविता रूचिर बनाई। दो कवित्व मे तुमहिं सुनाई।
इनके जीवन चरित अनेका। मागत रहे स्वराज विवेका।
कवित्वः-
प्रबल प्रचंड मारतंड़ सो प्रताप छायो,जाहर जहान लोकमान भूमि पाना हैं।
सातहुंु विलायत मे कीरत पताका सी,देश भक्ति उदय भई जीवन विताना है।
कवि घनस्याम काम धीरज सपूता का,करके रजपूती के चरचे चलाना है।
लाल बाल गंगाधर तिलक भाल भारत का,हाय-हाय हाल साल काल से छुडाना है।
होल इंडिया में क्यों कुहरा सा छाया है,आया है प्रबल काल कीन्हांे दुख दूना है।
पाला सा पड़ा हाय पल मे वन कमलों पर,विकल विहाल देश कर गो विहूना है।
रोते जन हिन्द के विदेश देश देशन के,हाय-हाय तिलक बिना भारत दुख ऊना है।
स्वर्ग को सिधार गयो,हित कर हमारो ज्यांे,बिना तिलक भाल आज माता का सूना है।
चैपाईः- बंबई कल्यानी पुल झांके। पोले शैल रेल के बाॅके।
झुक छोड़ कछौटन के लपड़े,मनो काम निशान नितंब फिरस्से।
’दुज’ जूरे जराव जरे से भले,गुलदस्तन नाग इसरस्से।
चैपाईः- बंवई से गुजरायत आये। यदुपतिपुरी देख सुख पाये।
पीपा भक्ति गंग सी माई। मूरत चतुर्भुजी पधराई।
माखन मिसरी कांे परसादा। चारहु वरण खिंची मर यादा।
धरे ध्यान रण छोड़ धनी के। पाॅड़व सोच मिटाये जी के।
विनती करी दुहूकर जोरी। विपत निवारण करिये मोरी।
सवैयाः-
मकरा क्रत कंुडल कानन मंे,भुज अंगद क्रीट लसे सिर नीको।
शुभ आयुध चार विराज रहे,दुज राजत लाल बुलाक मनी को।
कटि मे पट पीत खुसी मुरली,लकुटी कर झामा विशाल तनी को।
यह रूप अनूप हमारे हिये,’घनस्याम’ से रण छोड़ धनी को।
इतनी विनती करूणा निधि से,कर जोर करो चित मे धरिये।
भव पीर न होय सरीर विथा,तन की मन की बिपदा हरिये।
जब लौ जग माह जिबाव धनी,सुख मोद की गोद सदा भरिये।
वरदान यही दुज मागत हों प्रभु,द्वारका नाथ कृपा करियो।
चैपाईः- घनी बनी वस्ती अति सुंदर। धवल धाम सतखंडा मंदर।
तहॅ की रूप वंतनर नारी। चपला सी चमकें अति प्यारी
तिनकी आन बान कछु कहिये। रूप सिंगार देख मुद लहिये।
सवैयाः-
शसि आनन कानन में झुमका,जलजात से गात मनोहर सारी।
चटकीले सुहावने कंचुकी के,खन खूब खुले भुज पै जर तारी।
गज गामनी भामनी दामनी सी,चमकंे चहुॅ ओर करै उजयारी।
’दुज’ बाग बंसत के फूल रही,मनो सोन जुही लतिका रसवारी।
सोने से नोने तन चुनरी जरतारी की,जरद किनारी की परत अजूबा है।
मंजु कर कंजन मे कंकण जराव जड़े,आवदार चैली मे कामदार रूवा है।
नीले अरविन्द नैन चंद्र से मुखार विन्द,भाल पर बिन्दी लख चंचल चित ऊवा है।
किन्नरी किशोरी धो गौरी गुजरायत की,ललना लख लालन कौ लालच चित डूबा है।
चैपाईः- बहुर सुदामा पुरी निहारी,विभव दिये जिन को गिरधारी।
नटवर महाराज रजधानी,बंदरगाह सिंधु के पानी।
सुने जहाॅ देवन के धामा। टोर फोर कर देत निकामा।
सोमनाथ पर करी चढ़ाई। गजनी गुरज गाज सी भाई।
लूटे मूरत टोर खजाने। धवल धाम फोरे मनमाने।
सुवरण रतन अनेकन भांती। लिये लदाय अनेकन हाथी।
सप्ररतन जुगसन पहचानो। इमनशाह इतहास प्रमानो।
सवा लक्ष मन कनक तनक ना। लैकर गयो अचेत अटकना।
अधम चरित्र न तुमसन कहिये। जाके सुने कोन फल लहिये।
पंच पंडवा तीर्थ पुनीता। ये प्रख्यात होहिं रिपु जीता।
तर्पण श्राध्य यहाॅ पर कीजे। पुन आगे की मारग लीजे।
दोहाः- राज कोट के कोट लख, जाम नगर भुवनेश।
देश काठिया बाढ यह,मार धाड़ के देश।।
चैपाईः- ये अवंतका पुरी विशाला। देश मालवा अधिक रसाला।
विमल तीर्थ विमलेश्वर दर्शन। ओंकार रेवा जल पर्सन।
भोजपाल भोपाल बसाये। कालिदास कवि शाके गाये।
विक्रम शाके प्रचिलित शाके। गं्रथ अनेकन देखो जाके।
कवित्वः-
जाइयो बलाहक जू मानियो न झाॅकी बिन,सिखर अटान के घटानसे मिली रहे।
स्वागत के हेत खड़ी कामनी विलोकें छव,दामनी मे चोल चीर भामनी हिली रहे।
मालती प्रसून छूट-छूट केश पासन से,रंग की तरंगनसों गंग सी ठिली रहे।
मालवा सुदेश मे अर्वतका निहार जहाॅ,चन्द्रचूड़ चन्द्र की सु चाॅदनी खिली रहे।
घेरदार घाॅघरे रूआवदार चोली अंग,सारी जरतारी की जरद किनारी है।
गोल-गोल उन्नत उरोज गर वीलन के,आनन अरविन्द पै जू नागिन लट कारी है।
लरियाॅ लहराय रहीं कटपै करधोनी की,कंुजन के गुच्छे गजराज चाल प्यारी है।
हॅस-हॅस के मारती नजारे ओट घूॅघट के,सुंदर सलोनी गुजरायत की नारी हंै।
सवैयाः-
लहॅगा कट घूम घूमारो लसे,चुनरी रंग लाल रंगीले से नैना।
महदी कर कंजन राज रही,मुख बोलती जैसे मनोहर मैना।
लहरें हिय हार उरोजन पै,इनकौ कहुॅ रावरी दीठ लगे ना।
अलबेली ये काठिया बाड़ की जू,हॅस घूॅघट मार के मारती सैना।
कवित्वः-
झूनागढ़ गिरनार निहारे। जहाॅ दत्त गुरू रचे अखारे।
कमलकुंड गिर ऊपर राजै। चरण पादुका घंटा बाजै।
बहै पुनीत सुंदरी सरिता,दामोदर कुंडा अघ हरता।
रिषभ देव पारस के दरशन। गुरू गोविन्द गोरख-पद परसन।
संत भये इत नरसी महता। तिनके भक्त माल मे चरिता।
दोहाः- किया सुता कर व्याह प्रभु,लीला करी अपार।
बने स्यामले सेठ बपु,हुंडी दई संकार।।
सवैयाः-
मुख मंडल पै लहराये जटा,मनोकारी घटा ससि के उजयारे।
तपते तप तेज निधान प्रभू,भुज झोली त्रिसूल मनोहर न्यारे।
पद पंकज पादुका पीठ धरे,जिससे दुनिया के लगे सुख सारे।
गिरनार पै जाय भये तपसी,यकलौते जू देवहुती के दुलारे।
गुरू वीस व चार किये जिन्हने,जन की सिवकाई करी अति दूनी।
जगदीश के अंस सुवंस के हंसन,संसत देख भये जग धूनी।
सुरईश नवावत शीस जिन्हे,सोई मात की गोद चले कर सूनी।
तपसी वन बैठे गुरू जग से,गिरनार पै जाय रमाय के धूनी।
रथ सूरज देव न देख परै,वरषे धुवाॅधार कौ सुंदर पानी।
यक श्रंग उतंग बड़ो सबसे,अलकापति की मनो ये रजधानी।
गुरू देव जू आय विराजे यहाॅ,जिनके जसकात लजात भुमानी।
महिमा गिरनार की काॅलौ कहों,मुख येक पै जात न जात बखानी।
गिरनार विराट स्वरूप लखो हिय,नैन जे होय लखे जिनसे।
पद पंकज शीस विराजत है,अबनास तरंग भई तिनसंे।
सनकादिक आदिक ध्यान धरे,जग की सब सृष्टि भई इनसें।
गुरू देव किया तप भूम सोई,दर से अघ ओघ सदा विनसें।
जल चादर बादर तान रहे,’दुज’ मंद समीर सु चैंर डुलावें।
तरू फूल कें फूल चढ़ाय रहे,तपसी गुरू गोरख ध्यान लगावें।
दिगपाल सुरेस दिनेश खड़े,पद पंकज को नित शीस नवावें।
गिरराजन के गिरराज बड़े,महराज बड़े गिरनार कहावें।
पद पंकज की हरदी न छुटी,कर कंजन की महदी रचनारी।
चटकीली रंगीली सी चूनरी के,रंग फीके परे न भये दिन चारी।
तज राजसी ठाट की वाट लई,सुख सोवत राजुल राजदुुलारी।
तपसी गिरनार पै जाय भये,जिनदेव सदां तुम्हरी बलहारी।
विचरों इन कानन बागन मे,तपसी हत होय जो होवे उदासी।
नित प्राकृत दृस्य निहारों यहाॅ,पद पंकज ध्यान धरो अबिनासी।
जिनको लख वैभव इन्द्र डरै,निधनी निध होय रही हरि-दासी।
मन राज करो तो करो इतनों,घनस्याम बने गिरनार के वासी।
दोहाः- दरस परस सुर सुंदरी, पहुॅचे पांडु प्रभास।
सोमनाथ त्रिपुरार लख, अति मन भयो हुलास।।
चैपाईः- हिरणा कपिला सरसुति सरिता। सिंधुराज संगम अघ हरता।
तर्पण श्राध्य कियो दै पिंडा। भोजन दान दिये दुज पंडा।
झाकी देख दैत्य सूदन की। मुख सोभा झलकै बूॅदन की।
मंदर है केदाररेशवर कौ। तुलसी चित्र सुदामापुर कौ।
वन उपवन कुसुमित अमराई। धारागढ़ गढ़ रूचिर बनाई।
सदावृच्छ की प्रीत बखानी। प्रचलित है इतहास कहानी।
ब्रम्ह्म कुंड आदित्य प्रभा के। गौरी सूरज कुंड विभा के।
सिंधु तीर यक मंदर नीको। भिड़िया शिवपति पारवती कौ।
तीर्थ माल का जाय निहारे। हिरणा तट घनस्याम पधारे।
चल दल तरू संुदर लहरावै। हेतु केतु तापर फहरावैं।
बाली कपि व्याधा के रूपा। जनमे जय सुन चरित अनूपा।
त्रेता राम रूप है मारा। द्वापर व्याध रूप सोई तारा।
पिंग तीर्थ पाटन के कहिये। क्षेत्र प्रभास जाय दुख दहिये।
दोहाः- दुर्वासा ऋषि को कियो, यदुवांसिन उपहास।
सो प्रभास के क्षेत्र मे, भई श्राप से नास।।
सवैयाः-
चमकै दमकै पद पंकज पै,म्रग नैन मनो झलकें रतनारें।
हिरणा तट पै हिरणा लखकें,कर तान कें बान कमान से मारे।
निज सृष्ट सम्रष्ट समेट प्रभू,सवसों कर भेंट प्रभास पधारे।
जग नायक लीला करी जग में,घनस्याम अहो ब्रजनाथ हमारे।
चैपाईः- सोमनाथ की प्रभुता भारी। वर्तमान इतहास मझारी।
यमनशाह महमूद कहावै। देव मूर्ति खंड़न करवावै।
उन्नत उरोज वारी आनन सरोज वारी,खीन लंक भोंय बंक सुंदर छव वारी है।
गौरी सी भोरी सी नवल किशोरी सी,थौरी सी बैस की अनूप रूप प्यारी है।
कोकिल पिक बैनी म्रगनैनी सुखदेनी ये,लाॅवी सी बैनी की लटकें लटकारी है।
नीके नितंब वारी पूरण रसरंग वारी,रति की अनुहारी ’दूज’ मालवा की नारी है।
चैपाईः- हर सिध्यी हर सिध्यी देवी। भये भरथरी गोरख सेवी।
मंगलनाथ सिध्य के नाथा। बड़े गणेश नबोऊ माथा।
गंगा कोट अगस्त स्वराजू। राम घाट ब्राजे भू सुर जू।
भैरो गढ़-गढ़ गाढ़ बनाये। महाकाल परसे सुख पाये।
लख शिवपुरी मोक्ष की दाता। क्षिप्रा गंगा जगत की माता।
विंशति तीरथ बने सुभंकर। नब्बै चार लिंग शिवशंकर।
दर्शनीय तिरवेणी संगम। देखु दुर्ग भूलहिं जड़ जंगम।
छिप्रा तीर कालिका माई। शुभ अस्थान दत्त गुरू भाई।
अद्भुत रचना तहाॅ बनाई। सहस धार छिप्रा वह आई।
रतिं देवगढ़ भॅवर विशाला। दान वीर धर्मज्ञ भुआला।
चाहो विवरण पढ़न सुजाना। देख लेहु इतहास पुराना।
सुंदर घाट मनोहर वारी। नभ चुंबत जनु अटा अटारी।
चंद्रमुखी चपला इम चमकें। नगन चड़ित आभूषण दमकें।
जारीदार झरोका नाना। शशि भूषण के रूचिर विधाना।
दोहाः- वीर विक्रमादित्य के, महल बने प्राचीन।
दरवाजे अठ खंभ के, अब लग लखे नवीन।।
कालिदास वर्णन कियो, मेद्यदूत इतहास।
वसहिं नगर देवांगना, रूपवंत परकास।।
कवित्वः-
घेरदार घॅघरे विचित्र रंग सारी तन,कंचुकी अमोल गोल लेसदार गोटे की।
बाजूवंद फुंदन मे जादू छर छंद भरे,पायेजेब पावन की बाजत अनोटे की।
माथे पै बीजा और लिलार आड़ बिंदी की,गढे पर गई गाल लालन के लोटे की।
जाने रस रीत प्रीत राती मदमाती धन,मालवा सुदेश की रंगीली कद छोटे की।
नीलो पट पीरे रंग आसमानी धानी है,सारी जरतारीन पै सुंदर गुलबूटी है।
चोली कम खाव आव तावन के रंग अंग,आनन से कानन पै नागिन लट छूटी है।
कामनी छवीली सी कामनी रंगीली सी,दामनी सी भामनी सुहाग रस लूटी है।
इतने मे चेतन ग्रह आये। सहजो लीपत द्वारे पाये।
मुख रूख देख कहन अस लागे। बहुर देख दुर रिस रस पागे।
गहने धरी जासु ग्रह वारी। तासन प्रीत करी तुम प्यारी।
गहने वारी धर दई मेंने। सो पाई जा कासें तैने।
सहजो सहजई बोली बानी। हॅसी करत का मने समानी।
पहरा गये आय इत वारी। आये फदियत करन हमारी।
लीपतरही अनंत नहिं हेरी। उठी तनक ना भई अवेरी।
बूढ़ी भई उमर नहिं वारी। अबका फदियत करत हमारी।
चेतनदास चेत गये मन में। हरि कै नाम सार जग सपने।
चीर चीर है लई लॅगोटी। चेतनदास मुड़ाई चोटी।
दोहाः- जग सौं नातौ टोर के,लैकर लुटिया ड़ोर।
चेतौ चेतनदास अब,होन चहत निशिभोर।।
राम भजन जग सार है,झूठी नरकी आस।
सहजो को सहजई मिले,चेतौ चेतनदास।।
चैपाईः- अब लग विध्यमान सो मंदिर। टुपिया धरी तासु के अंदर।
चरित अनेक फैल रहे जिनके। भक्त माल मे गुरिया उनके।
राठ विराठ नगर सोई जानो। पता देत इतहास पुरानो।
शमी वृच्छ पर सस्त्र छिपाये। भेष बदल राजा ढिंग आये।
रचना देख भेष की सुंदर। ते विधान सकल गुण मंदर।
भाल त्रिपुंड विराजत नीकी। चोटी गोखुर सहस फनी की।
माला हाथ कमंडल राजै। चरण पादुका चरण विराजै।
कोहें आप कहाॅ ते आये। भूप वैन सुन भूप सुनाये।
पंड़ित कंक हमारे नामा। गजपुर वसहिं सुनहु बलधामा।
धर्मराज जब वनहिं सिधाये। हमहिं आपके पास पठाये।
चैपर खेल खेल हम जाने। काल रूप कर है मन माने।
दोहाः- राजा से राजा कही,रहो आप सुख पाय।
दुजवर आनंद भोगिये,दीजे अवध विताय।
चैपाईः- ड़ेवढीवान बहुर यक आयो। पहलवान कर हाल सुनायो।
लियो बुलाय विराट भुआला। बल्लभ भीम रसोई बाला।
अर्जुन धरे विहंडला रूपा। आये जहाॅ विराजे भूपा।
’घनस्याम’ जू रसीली सी गोरटी सलोनी ये,नोनी सी धनियाॅ कै इन्द्र की बधूटी है।
सवैयाः-
लहॅगा कटि घेर बड़े जिनके,तिन पै जरतार जरी फरियाॅ।
गज दंतन की चुरियाॅ पहरै,लहरें करधौनिन की लरियाॅ।
हॅस घॅूघट ओट मे चोटे करें,करती रसरंग भरी रसियाॅ।
घनस्याम मनो उतरी पुतरी, इंदौर मे इंदर की परियाॅ।
रसरंग अनंगन अंग भरे,चमके दमकें जिम दामनी हैं।
रंगराती सी माती दिखाती सवै,मनको हरती हॅस कामनी है।
झुक झुमत चूमत सी चलती,मतुआरी मनो गज गामनी है।
घनस्याम नजाके मजाके करे,भोपाल की भोरी सी भामनी है।
चैपाईः- यक सी पारसनाथ निहारे। देवल जैन देव के प्यारे।
चालिस चार चतुर्दस मन की। प्रतिमा वनी रही सुवरन की।
सुन महमूद चढ़ाई कीन्ही। गजनी गुरज जाय सुई छीनी।
बादशाह को परचे दीन्हे। भोरं फौज के अंग भंग कीन्हें।
गये ओड़छे की रजधानी। बेत्रवती गंगा सुखदानी।
परकर सह रघुवीर विराजै। अवधपुरी समपुरी सु राजै।
पुष्षखन-पुष्षखन ल्याई रानी। भक्तिन के बस सारंग पानी।
रामचंद्र के दर्शन कीजे। दो कवित्व कह वर शुभ लीजे।
दोहाः-
नगर ओरछा बसत है,गंग वेतवा तीर।
सिंहासन पर कर सहित,इत ब्राजे रघुवीर।।
कवित्वः-
सीस पाग सोहे कुसुमानी रंग पेंचदार,हीरन हिय हार अंग झामा जरतारी कौ।
जामवान हनुमान भरथ सत्रु सूदन जू,लखन येक ओर छोर जनक दुलारी कौ।
चैर क्षत्र ताने कर कंजन कमानें लिये,ढाले तलवारे द्विज हरती हित भारी कौ।
भाखें ’घनस्याम’रूप ऐसो ना देखो कहुॅ,जैसो स्वरूप भूप अवध विहारी कौ।
चैचदार पाग क्रीट कलगी सिर मौतिन की,मकरा क्रत कुंडल की साॅकर छवि छाजा की।
आनन सतभान के समान नील अंबुज से,मुॅदरी कर कंज हार हीरन हिय भ्राजा की।
काॅधे को दंड़ बाण ढाल हाथ सोने की,खंग कौ प्रचंड तेज दामिन द्वित लाजा की।
तीन लोक झाॅकी अस झाॅकी ना झाॅकी कहुॅ,झाॅकी हम झाॅकी की ओंड़छे के रामराजा की।
चैपाईः- कुंडेश्वर के दर्शन कीन्हे। बाणासुर को तिनवर दीन्हे।
ग्राम बानपुर नाम ग्राम के। दंत कथा इतहास धाम के।
ऊषा अनुरूध चरित कहानी। व्यास भागवत माह बखानी।
दोहाः- बीती द्वादस वर्ष की,अवध तुम्हारी तात।
अब दीजे आज्ञा प्रभू,वास करहुॅ अज्ञात।।
इति श्री भीम पुराणे द्वितीय खण्डे महाभारतांतर्गत कथा रामेश्वर पंथ तीर्थ नगर वर्णनोनाम षष्टमोध्यायः 6
दोहाः- अब सप्तम अध्याय में,गुप्त वास न्रप कीन्ह।
गुरिया चेतन दास कौ,पुर विराट पग दीन्ह।।
भेष बदल पांड़व सुवन,मुनि की आयुष पाय।
पहॅुचे राठ विराठपुर,श्री घनस्याम मनाय।।
चैपाईः- अससुन भूप रिषिहिं सिर नायो। देश काल लख भेष बनायो।
गुप्त रूप धर फिरे बहोरी। चले हेत यम सरवर ओरी।
पुन विराटपुर पहुॅचे जाई। जाकर नाम राठ है भाई।
चेतन दास भये अत संता। दिये दरस तिनको श्री कंता।
संत मंड़ली यक दिन आई। भक्त अभक्तन हॅसी कराई।
खर्चा द्रव्यनही इन पासा। बने संत ग्रह भये उदासा।
सती सिरोमन सहजो बाई। भगनी नाम रहे सुख दाई।
लीपत रही द्वार मंदर के। रही दुरनियाॅ मुख संुदर के।
चेतनदास दुरनियाॅ माॅगी। भोजन हेत आये बैरागी।
करो अवार लगाव न बातन। लेहु उतार आपने हाॅतन।
गोबर भरे हाॅथ मम स्वामी। विनय करो तुय चरण नमानी।
चेतनदास उतारी बारी। लै बजार गये आनंद भारी।
गहने धर सामग्री खोजें। सुनहुॅ स्याम सुंदर की मौजे।
चेतनदास रूप धर आये। सहजो के ढिंग सहजई आये।
कही प्रभु यह पहरौ वारी। मनसा पूरन भाई हमारी।
भोजन संतन करे अघाई। दुर वारी घनस्याम बचाई।
दोहाः- वैसी पहराऔ हमें,जैसी लई उतार।
संत पाहुने दर्स हित,लीपत रही दुआ।।
चैपाईः- निज कर प्रभु पहराई वारी। दैकर दरस गये वनवारी।
सुता उत्तरा भूप बुलाई। गीत कला सीखन बैठाई।
गं्रथि के रूप नकुल धर आये। तिन्हे अश्वपति भूप बनाये।
सहदेव तंत्रिपाल के भेषा। आये जहाॅ विराट नरेशा।
सोंपे ठाट तिन्हे गोधन के। बने सकल स्वामी गोधन के।
ठाट वगर गोधन के हाके। जंगलिक देस वसाये बाॅके।
सो सुहागपुर सह डोला। सहदेव शहर बसाये खटोला।
सैरंध्री तै दु्रपत दुलारी। पहुॅची नगर विराट मझारी।
न्रपरानी सेवा हित राखी। बल्लभ विप्र कंक भे साखी।
कही सकल वन पर्व सुहावन। अब शुभ कथा सुनहु जग पावन।
वर्ष त्रयो दश के दिन लेखे। दुयोधन पत्रा पढ देखे।
दोहाः- जहॅ तहॅ पठुआये न्रपत,धावन देश विदेश।
पाॅडु सुवन के सोध विन,पावत हृदय कलेश।।
भीम कुंड वनवास कर,आये नगर विराट।
अवध विताई भूप ग्रह,धर्मराज संम्राट।।
भारत कथा पुनीत अति,कही व्यास भगुवान।
सकल सस्त्र इतहास सो,पंचम वेद समान।।
सो प्रसंग वर्णनो कछु,निजमत के अनुसार।
कहो कथा संक्षेप सुभ,भारत कौ आधार।।
चैपाईः- सुता स्वयंवर भूपत कीन्हा। सकल नरेश निमत्रण दीन्हा।
पहलवान यक आयो भारी। व्याह उछाह अनंद अपारी।
ताकर नाम रहो जीमूता। तन विशाल पीवर अवधूता।
राज समाज विराजत रूरी। नृत्य कला की रंगत पूरी।
तम्बू तहाॅ येक तनवायो। मल्य युद्ध के हेतु सुहायो।
देश-देश के मल्ल घनेरे। सबल देख भे दाहिन डेरे।
सकल मल्ल भूपत के हारे। होत न सुन्मुख कोई अखारे।
भूप भीमसन बोले बानी। राखहुॅ वीर राठ के पानी।
मुख रूख देख कंक भुज केरे। कर हिंय कोप मल्ल तन हेरे।
खैंच लॅगोट ताल चटकाये। चकर दंड भुज दंड लगाये।
रज लपेट पुन बैठक मारी। बदल पैतरा करी जुहारी।
रही बाहरी येक तलाई। धाये वेग सातहू भाई।
द्वंद युद्ध भयो पहर अढ़ाई। भीम सेन सन परी लराई।
भुज पद गह कर भूम पछारे। मुंड कुंड सन भरे पनारे।
पटके रूंड मुंड गह पानी। धोई देह कीच लपटानी।
आये भीमसेन निज धामा। कर विश्राम सुमर घनस्यामा।
कीचक बध सुन रोवत रानी। राजा सोचत अकथ कहानी।
गई द्रोपती रानी पासा। कथा कही मन देख उदासा।
दोहाः- मम संग रानी रहत हैं,देवि पंच गंधर्व।
कीचक बध उन्ही कियो,ये विराट की पर्व।
चैपाईः- मन मे मनसा पाप विचारे। तिन्ह गंधर्वन कीचक मारे।
उनकी कर्नी प्रथम बखानी। मम रक्षक देवता सुन रानी।
कीचक अस्थि कीट भये सोई। कीचर सेन नीर लख ओई।
अब लग समी ब्रच्छ की माटी। युद्ध भूम घाटी है ठांटी।
ग्रह-ग्रह यह जानी जन सर्वा। सैरंध्री रक्षक गंधर्वा।
इति श्री भीम पुराणे महाभारतांन्तर्गत कथा कीचक जीमूत मल्ल वधो विराट पर्वाणी नाम अष्टमोध्यायः8
दोहाः- सुनहु नमम् अध्याय की, कथा अनूप सुजान।
चैपर न्रप संग कंक की,दुर्योधन पहचान।।
चैपाईः- येक दिवस चैपर के खेला। खेलत कंक विराट झमेला।
न्रपत गोट कहॅ जियत हमारी। कंक कहे नहिं जियत हमारी।
बातहिं बात क्रोध बढ़ आयो। पांसा राठ विराट उठायो।
कंक भाल मारो न्रप पांसा। निसरी रूधिर धार की रासा।
रही द्रोपदी रानी संगा। देखत रही खेल रसरंगा।
अंचल छोर दौर ढिंग आई। रकत बॅूद महि गिरन न पाई।
रह गये भूप क्रोध के मारे। कंक विप्र मृदु वचन उचारे।
बरजोरी न्रप आप न करिये। फिर से गोटंे अपनी धरिये।
दोहाः- अंचल सौ पोछे रूधिर,विहॅस मिटाई पीर।
सेनन सो धीरज दियो,सुघर नाह मति धीर।।
सुनहु न्रपत इन कर रूधिर,धरनी गिरै यक बॅूद।
तौ धरनी उपजै नही मरिहं,मनुज मुख मूॅद।।
दोहाः- पद सों पद भुज सो भुजा,सनमुख दृष्टि मिलाय।
कॅधा कॅधा सो जोर पुन,करत जोर अधिकाय।।
चैपाईः- पेंच खेंच के भीम लगायो। ताल ठोक पुन सनमुख आयो।
दै हुॅकार मुक्का उर मारो। गह ताकौ पद चित्त पछारो।
चढ़े ब्रकोदर ताकी छाती। जैसे वज्रपात संपाती।
मुख सौं रूधिर वमन सोई कीन्हो। शिथिल निहार ताह तज दीन्हो।
राज समाज देख बल भारी। लगे प्रसंसन सब नरनारी।
पूजे कंक भीम भुज दंड़ा। नाम जयंत धरायो पंड़ा।
इति श्री भीम पुराणे द्वितीय खंडे महाभारतांर्गत कथा विराट पर्वाणी पुर प्रवेश,जीमूत वाहन मल्ल विनाशनो संत चेतनदास चरित्र वर्णनो नाम सप्तमोध्यायः7
दोहाः- अब अष्टम अध्याय मे,बाॅधो दुरद अलान।
पुन कीचक वध की कथा,कहो सुमर भगवान।।
चैपाईः- सिंधुर येक रहयो मतुआरो। कज्जलगिर सम दुरद दतारौ।
ता सिर मद के श्रवत पनारे। तन विकराल नैन रतनारे।
सार अलान टोर छित डोले। चक्रित चिकारत मुख निज खोले।
टोरे तरूवर वाग उजारे। फोरे धाम मथारे मारे।
करत खीस खीसन सों धामा। चीर-चीर कर देत झुलामा।
झुंड रूंड गह मुंड भ्रमावै। पकर सुंड मुख कुंड सिरावै।
साॅटमार हारे बलवाना। पकरत कोई न बाॅधत थाना।
बल्लभ भीम देख न्रप बोले। पहलवान मम वीर अमोले।
पकर दुरद बाॅधो गह थाना। खावौ बैठ-बैठ पकवाना।
अस सुन भीमसेन भये ठांडे। कसे लॅगोटे नितंवन गाढ़े।
पकर दुरद रद जाय पछेलो। मारयो यक मुक्का पुन झेलो।
दोहाः- भीमसेन गज भीम सो,बाॅधो पकर अलान।
देखत सब ठांड़े रहे। पहलवान बलवान।।
चैपाईः- कीचक रहे भूप के सारे। सत भ्राता रानी के प्यारे।
सौरध्री लख अति छवि भारी। कीचक नीच अनीत विचारी।
करन लगो रंग रस की बाते। झाॅकत रहे दाव की घातें।
भादो निशा निवड़ तम छायो। कीचक पंचाली ढिंग आयो।
द्वारें आय भयातुर झाॅके। अबला पर डारत मनो डाके।
देख द्रोपदी बोली बानी। रह रे नीच कीच अभिमानी।
मेरे संग पंच गंधर्वा। डारहिं मार भेद लख सर्वा।
साम दाम भय दंड दिखायो। अभिमानी मन येक न आयो।
बरजोरी कछु होत दिखानी। द्रुपद सुता हॅस बोली बानी।
आज दिवस निश धीरज धरिये। दया दृष्ट मम ओर नजरिये।
हॅस मुसक्यान रंगीली चितवन। बदल परो लख कीचक कौ मन।
कीचक गयो आपने धामा। द्रुपत सुता सुमरे घनस्यामा।
गई अर्ध निस कंक समीपा। विवस कथन सुन कही महीपा।
सो पुन गइ अर्जुन के पासा। भेष देख सो भई निरासा।
दोहाः- भीम सेन से सब कथा। बरनी कही बुझाय।
प्रगट बात हो वै नही, सोचन लगी उपाय।।
सोरठाः-
रानी दई पठाय,भीम सेन विसवास दै।
सोचन लगे उपाय,कीचक के वध करन कौ।
बीत गई अधरात,कीचक उत कंठा घनी।
कैसे दिवस सिरात,साॅझ होय कब लग घनी।
दोहाः- भीमा देवी सुमर के,भीम बनायो रूप।
भीम सेन आयो वहाॅ,जहाॅ प्रिया सुख रूप।।
चैपाईः- नार स्वरूप भीम ने धारे। दिया दुराय दीप उजयारे।
सेज सम्हार बैठ गई द्वारे। इतने मे कीचक पग धारे।
नबल नार सोहत तन सारी। श्याम वरण द्रग दीरध वारी।
हाव कु भाव भाव सब भूले। देखत मगन भये तन फूले।
सुख सेजन कीचक पग धारे। नार गहन कहॅ भुजा पसारे।
सो भुज पकर भीम गह झटक्यो। पद प्रहार पुन धरनी पटक्यौ।
हा हाकार करन सोई लागो। भुजा छुड़ाय प्राण ले भागो।
भीम सेन समुझी जिय वाता। आवन चाहत सातों भ्राता।
यहाॅ न होय कुलाहल भाई। होय रूप नहिं प्रगट लखाई।
नगन भये सब वदन उघारे। कीच लपेट रूद्र सम कारे।
तरवर येक काॅध धर लीन्हा। देख कीचकन मारग लीन्हा।
चैपाईः- धावन दुर्याेधन पठुआये। चरचा सुन गजपुर कहॅ आये।
मतुआरे हांथी की बाते। वर्णी पहलवान की घाते।
कीचक वध वर्णी दुख दाई। कीच कोट सों भरी तलाई।
धर्मराज नहिं कंक दुजेसा। भीम भीम,नहिं बल्लम भेसा।
सौरंध्री नहिं द्रुपत दुलारी। अर्जुन नहिं विहड़ल नारी।
गं्रथिक रूप नकुल न्रप जानो। तंत्रिपाल सहदेव बखानो।
देखे लक्षण क्षत्रिन कैसे। पाॅडु सुवन सास्त्रन मे जैसे।
सुन धावन के वचन सुहाये। द्रोण पीतामह कर्ण सुनाये।
शकुनी करण बात यों साधे। भीम बिनाको हाथी बाॅधे।
कीचक वीर रहे रणधीरा। मारै भीम विना को वीरा।
श्राप विवस अर्जुन धनुधारी। वर्ष प्रयंत विहंडल नारी।
दोहाः- अवधि त्रयोदस वर्ष में,शेष जुगल सप्ताह।
पता छता लीजे लगा,सुन भूपन के नाह।।
चैपाईः- वन मे जाय गाय दुर हेरौ। राठ विराट भूप के घेरौ।
सैन सजहुॅ न्रप चलहुॅ सकारे। हित के मानहु मंत्र हमारे।
कर सलाह न्रप मंत्र सुुनायो। ड़ेरा नगर विराट चलायो।
चतुर सैनकन सैन चलाई। गोधन घेर लिये कुरूराई।
ग्वाल बाल तब खबर जनाई। तंत्रिपाल को जाय सुनाई।
देखी जायसैन चतुरंगा। वीर धीर रणधीर उमंगा।
तंत्रिपाल यक रच्यौं उपाई। गोधन पीर सरीर बनाई।
चरण चार गौवन के फूटे। हाॅके हॅकें न लठ्ठन कूटे।
पुन विराट को खबर जनाई। चार चमू न्रप ने पठुआई।
विविध भाॅत तहॅ परी लराई। भूप चमू करूवीर भगाई।
तब विराट न्रप तनय बुलाये। तंत्री सनमुख कोई न आये।
दुर्योधन की सैना धावे। तंत्री सनमुख कोई न आवे।
संभय सूर सैना के भागे। तंत्री ग्वाल भये रण आगे।
तीक्षण वान छार कर डारे। विरथी भये रथी हिय हारे।
सैनी सैना सकल हराई। न्रप विराट को लियो छुडाई।
अवध वितीत भई इतने मे। कुरू दल जीत भई जितने मे।
कुरू दल अचल विचल कर डारो। भगे वीर लख करण प्रचारो।
दोहाः- अचल विचल दल बल कियो,चल दल बल सम गात।
डोलत गज सरके लगत,अश्व पुच्छ मड़रात।।
कवित्वः-
बर्छा उर हूल देत सूल देत येकन के,काट लेत मुंड रूंड़ येकन के भुंडा से।
येके भुज दंड को उखार फार आंत देत,मार-मार बोलें गह फोरें दधि कुंडा से।
किरचन सों किरचें कर देत है करेजन की,पेल देत ठेल देत मेल देत मुंडा से।
पारथ रणधीर कुद्ध युद्ध मे विरूध पगे,यके धर भाग खड़े येकें रण गुंडा से।
काटे गज सुंड मंुड काटे न्रप सूरन के,कलगी अरू तुर्रा के भुर्रा कर दीन्ही है।
सम्मर सुभट्ट ठठ्ट झट्ट-झट्ट चट्ट पट्ट,रूंड बिना मुंड मार खंड-खंड कीन्ही है।
पारथ रथ बाज-बाज बाज की समान,उडे बाज-बाज वीरन की साज बाज छीन्ही है।
बाज-बाज भाजे रण बाज-बाज समुखभे,बाज-बाज जमपुर की पंथ धर लीन्ही है।
चैपाईः- जे क्रिरीट के अस्त्र चलाये। द्रोण,पितामह वचन सुनाये।
भेदत बाण सरीर हमारे। मुंड रूंड गज सुंड़ निहारे।
जयति पत्र अब लेहु लिखाई। प्रगट भई सिगरी चतुराई।
सुनअस वचन अनी मुरकाई। अर्जुन वीर सेन विचलाई।
गजपुर को कीन्हों प्रस्थाना। रोपेरथ पारथ मैदाना।
उत्तर संख संख तुतकारे। समर जीत निजपुर पग धारे।
समर विजय सुत कीरत गाई। स्वयं भूप ने आय सुनाई।
विजय केतु विजई फहराई। न्रप सन उत्तर आकर गाई।
समर कथा पारथ की करनी। न्रप सुत आय न्रपत सन वरणी।
द्रोण पितामह करण समेता। दुर्योधन सह जीते खेता।
पांडु पुत्र यह पाॅचो भाई। या में नही अन्यथाराई।
न्रप विराट सुन सुत की बानी। धर्मराज बोले गह पानी।
क्षमहु-क्षमहु अपराध हमारे। बिन पहचान यहे दुख भारे।
पग लागो मागो वर येहूॅ। कृपा दृष्टि कर सहज सनेहूॅ।
दोहाः- राज दुलारी उत्तरा,कन्या मातु सलाह।
अभिमनु को पारथ तनय,दीन्ही भूप विवाह।।
चैपाईः- देश देश के भूपत नाना। वीर धीर रणधीर सुजाना।
विविध भाॅत आदर न्रप कीन्हा। यथा उचित जो जस तस दीन्हा
देश कोश गोधनगज बाजी। समधी धर्मराज भये राजी।
असि तोमर तरवारे झारे। धनुष चढ़ाय वाण यक मारे।
चीर-चीर सम करत दुधारे। सनमुख भये गये ते मारे।
अश्व पॅूछ बिन हिन हिन बोले। सुंड बिना चैदंता डोले।
रूंड मुंड़ बिन असि लै धावहिं। चैमुंड़ा खप्पर भर गावहिं।
आंते लै उड़ भागहिं कागा। ग्रध्य सियार बोले हत भागा।
दोहाः- डाबर वह सरिता वही,सरिता रूधिर अपार।
अनी-अनी दुहुॅ दल जुरी,सुभट न पावहिं पार।।
इति श्री भीम पुराणे द्वितीय खंड़े महाभारतान्तर्गत विराट पर्वाणी कथा वर्णनो नाम अष्टमो नममोध्यायः 8-9
दोहाः- अब दसमे अध्याय मे,अर्जुन कौ संग्राम।
कहो कथा संक्षेप सोई,सुमर राम घनस्याम।।
चैपाईः- पंचाली सो रानी वानी। बोली वचन नैन भर पानी।
कुरूदल अचल विचल दल कीन्हों। भूप हमार बाॅध पुन लीन्हो।
गोधन घेर नगर लै जै है। पानी पति के कैसे रैहंै।
जयति पत्र लिखवा हंै हमसें। दासी कर्म कराहे तुमसे।
सैरंध्री तुम चतुर सियानी। कोउ उपाय रचहुॅ सुखदानी।
सुन रानी बानी मुसक्यानी। द्रुपत सुता बोली गह पानी।
सजनी येक उपाय बताऊँ। जिय के भेद न तुम्हें दुराऊॅ।
सुता उत्तरा के गुरूदेवा। इनके सकल सुनौ तुम भेवा।
जाकै सिर अर्जुन धनुधारी। महारथी पारथ नहिं नारी।
दोहाः- सुता उत्तरा जो कहै,लेवै वचन हराय।
द्रोण,पितामह,आदि सब,क्षण मंे जाॅय पराय।।
सुता उत्तरा को तबे,रानी दियो सिखाय।
गुरू सों अपने रिपुन के,लीजे बसन मगाय।।
चैपाईः- जाय उत्तरा बोली बानी। रिपु के बसन देहु गुरू ज्ञानी।
हम गुड़ियन कौ खेल बसावै। कुरूवंसिन के भूषण पावें।
रार मचाय सुता विरूझानी। तब हॅस कही द्रोपदी रानी।
क्षत्री धर्म राख पति लीजै। सत्रुन को प्रतिउत्तर दीजे।
जर जमीन जोरू के लाने। जन्म लेत छत्री मरदाने।
भूसुर धेनु संत पद-पूजा। क्षत्री धर्म कर्म नहिं दूजा।
सन्मुख रिपु से लेहु लराई। जियत कलंक न लेहु लगाई।
जो सन्मुख बैरी चढ़ आवै। अपने अछित जियत ना जावे।
कैसे अब हारत पुरूषारथ। जग विख्यात वाण तुय पारथ।
कवित्वः-
क्षत्रिन के शीस रहे हाथ की हथेरन पै,रहै बीस अपनी जो खेत जोत पाइये।
कादर संग्राम देख पीठ को दिखाय देत,लाईये निशंक ह्वै कलंक ना लगाईये।
चुरियाॅ कर पहरो औ लॅहगा को पहरों तुम,दीजे तरवार ढाल वीरा फरमाईये।
लाऊॅगी छुडाय वेग गोधन औ राजा को,पारथ मर्दानी कहे रानी बन जाईये।
नारी ना नारी धनुधारी बन विरथ नाम,धुज पै गिरधारी ना डोले समीरन से।
जाके गांडीवसे अतीव तीव्र तीक्षण सर,नोकें तन ताक-ताक फोंके जजीरन से।
कुद्ध युद्ध जोर-जोर,करें शोर चहु ओर,कटे ललकारे रण ठाने हठ वीरन से।
जे हें ये गौवै जीत आज वीर सरना युत,हमें तुमें मारे से पारे हन तीरन से।
दोहाः- कसौ कमर हित समर के,अवध रही गई बीत।
राज भोगिये आपनो,लैये रिपु दल जीत।।
चैपाईः- सुन पारथ रानी की वानी। अवधि वितीत भई अस जानी।
क्षत्री बने वीर रस पागो। सोवत सिंह मनहुॅ उठ जागो।
पुन विराट निज तनय बुलायो। सूत विहंडल संग पठायो।
बाहुक नकुल जयंत सुसैनी। मिथना ग्वाल सकल न्रप सैनी।
लंख संख पुन आय बजायो। कुरूदल देख वीर भय पायो।
भय बस तनय देख कुरू-सैना। कदली सम कंप्यो भर नैना।
ताह बाॅध रथ ऊपर डारो। दंत लगाय थाम रथ भारो।
उत्तर सन बोले हॅस पारथ अब देखहु मेरो पुरूषारथ।
समी वृच्छ पर अस्त्र हमारे। सो उठाय लावहु तुम प्यारे।
अस सुन उत्तर गयो तहाॅ ही। शमी वृच्छ पर अस्त्र जहाॅ ही।
छूतन अस्त्र भुजंग प्रमाना। सुन फुसकार भगो तज बाना।
अर्जुन सन बोल्यो कर जोरी। सस्त्र नहीं उत सर्प करोरी।
समी समीप जाय रणधीरा। लिय गांडीव अछय तूनीरा।
खेंच कमान बान सत जोरे। प्रथम चरण गुरूदेव निहोरे।
सो गुरू जान बान पारथ के। आशिष विजय हेतु भारथ के।
दुर्योधन कहं पत्र पठाये। अवधि मध्य तुम खोज लगाये।
सुई अग्र भर भूम न दैहें। सन्मुख समर आप से लैन्हे।
उपजो क्रोध भूप उरमाही। अभिमानी यासम कोऊ नाही।
रहे निमत्रन मे भगवाना। तिन सों भूपत हाल बखाना।
गजपुर जाहु नाथ मम हेतु। दुर्योधन नहिं करहु चित चेतु।
विहंस वचन बोले असुरारी। धर्मराज सुन बात हमारी।
दुर्योधन न्रप अति अभिमानी। राजत राजनीत नहिं जानी।
समुझवहिं उठ प्रात सकारे। आन हेतु नहि हेत तुम्हारे।
गजपुर विहंस चले श्रीकंता। दुर्योधन ग्रह गये तुरंता।
सभा बीच घनस्याम निहारे। सादर कर प्रणाम बैठारे।
सिहासन आसन धर आगे। दुर्योधन अहमत रस पागे।
कुरू बंसिन की लगी समाजा। ब्राजे रथी वीर महराजा।
द्रोणाचार्य पितामह करणा। अस्वत्थामा और विकरणा।
दोहाः- कृपाचार्य भूरिश्रवा,सकुनी सुत बलवान।
काशिराज पुन जितरथी,कुंतिभोज युजधान।।
इति श्री भीम पुराणे महाभारतान्तर्गत विराट पर्वाणी पारथ दुय्र्योधन संग्राम वरर्णीनो नाम दशमोध्यायः-10
दोहाः- येकादश अध्याय मे,षट रस विंजन त्याग।
दुय्र्योधन के भाये ना,खाये विदुर ग्रह साग।।
चैपाईः- दुर्योधन बैठे सत भाई। सिंहासन सिर क्षत्र सुहाई।
कमल नैन बोले हॅस बानी। सविनय विनय राजनय सानी।
वर्ष त्रयोदश अवध विताई। आये धर्मराज सह भाई।
देव बहोर राज्य उन केरे। वचन मान दुर्योधन मेरे।
देश कोश बहुरो न्रप दीजे। सकल भूम अपने वस कीजे।
बैठक हित दीजे सत ग्रामा। हॅस मुसक्याय कही घनस्यामा।
प्रभु वचनाम्रत सुने ना काना। दुर्योधन न्रप मन मुसक्याना।
भीतर अवधि सकल सुध पाई। पुन वन जाॅये पाॅचहु भाई।
सुई अग्र भर भूम न दैहों। पाछल वैर आपने लैहांे।
बैठी चुप ह्वै सकल समाजा। तब हॅस वचन कहे ब्रजराजा।
चैपाईः- सुंदर महल धवल सत खंडा। गरूड़ ध्वजा के फहरहिं झंडा।
प्रदुल मनोहर सेज अनूपा। सुख निदियन सोवहिं सुर भूपा।
विद्रुम जड़ित पलग कुंदन के। रेशम डोर ललित फुंदन के।
पीताम्बर अम्वर अरूणारे। तकिया हरित रंग के प्यारे।
छीर फेंन सम सेज तुराई। मौतिन की झालर झलकाई।
पीताम्बर के तने चॅदेवा। तिरछे तापर परे सुदेवा।
पीताम्बर ओढे हरि सोवें। दासी दास कमल मुख जोवें।
बैठो दुर्योधन अभिमानी। सिरहाने सोवत सुखदानी।
अर्जुन वीर पाॅयतें ब्राजे। मुख हरि ओर धनुष कर साजे।
तज सुख नीद नैन रतनारे। सन्मुख पारथ वीर निहारे।
कहो क्रिटि आये किहि कारण। कुशल क्षेम पूछी जगतारन।
श्री मुख मोर चितै सिरहाने। दुर्योधन रणधीर दिखाने।
दुर्योधन हॅस हाथ मिलाये। सनमुख उठ अस वचन सुनाये।
महाराज भारत रणरंगा। देखिये चलिये दीजिय संगा।
दोहाः- हो सेवक आयो प्रथम,बैठ रहो चुप चाप।
जगा सको नहिं प्रेम वस,रहे उनीदे आप।।
चैपाईः- भले आगमन भये तुम्हारे। जुगल बधु मम प्राण पियारे।
यासे येक ओर हम रैहें। येक ओर यदु सेना दै है।
जाकौ जौन वस्तु हो प्यारी। सो कहिये मति धीर विचारी।
विन हथयार लरे का भारथ। यह सुन वचन कहे म्रदु पारथ।
तौ प्रभु बनहु सारथी मेरे। होहु समर संग संकट नेरे।
छत्तिस कोट यादवी सैना। दुर्योधन लेकर गये ऐना।
रथी अरू महारथी रणधीरा। क्षत्री वीर धारे धनु तीरा।
भेरी प्रणव दुंदभी बाजै। सूरवीर रण वाज गराजै।
दोहाः- जुरी दुहूॅ दल की अनी,भारत के मैदान।
कथा महाभारत रची,कही व्यास भगुवान।।
खड़ी दोहुदल की अनी,कुरूक्षेत्र मैदान।
भगवत गीता प्रभु कही,अर्जुन से भगुवान।।
इति श्री भीम पुराणे महाभारतांतर्गत विदुर ग्रह साग भोजन,रण निमत्रन कथा वर्णनो नाम येका दशोध्यायः11
दोहाः- ब्रथा वैर नहिं लीजिये,दीजे उन्हे सुराज।
हित अन हित लख कीजिये,हू है बड़ौ अकाल।।
चैपाईः- दुर्योधन तुम हो अभिमानी। हित की कही बात नहिं मानी।
अस कह बहुरे श्री गिरधारी। विदुर धाम पहुॅचे बनवारी।
नग्न स्नान करें विदुरानी। भीतर भवन धरे रहे पानी।
ग्रह आये ब्रजराज निहारे। देह दशा ग्रह काज विसारे।
सुध बुध भूल गई महि डोलै। प्रेम विवस मुख वचन ना बोले।
क्रीट मुकट की लटक विशाला। कटि पट पीत मनोहर माला।
पंकज नैन मदन घनश्यामा। कर धर बेणु लजावत कामा।
सुंदर भेष देख विदुरानी। भई बावरी कढे न वानी।
देह मेह की सुध विसराई। को मै कौन कहाॅ उठ आई।
भूखे प्रेम भाव के हरि है। प्रेमी भक्तन के उर घर है।
दोहाः- भूखे भावी अधिक हम,विहॅस कही व्रजराज।
देव असन जल पान हित,जो कछु होय न लाज।।
चैपाईः- धरी बनाय अमनियाॅ भाजी। बिना राम रस बनी न साजी।
हॅस बोले तब श्री गिरधारी। करौ अवार न परसौ थारी।
भाजी पर परस धरी विदुरानी। भीतर भवन बैठ सकुचानी।
दीनदयाल जानसब कारन। और लाव बोले जगतारन।
केरा पके आय पुन परसे। छिलका छील चार धर कर से।
सार सार धरनी मे डारे। प्रेम मगन तन दशा विसारे।
बिना राम रस मीठी भाजी। आज सनाथ नाथ मन राजी।
खट रस विंजन हमें न भावे। बिना प्रेम कोऊ भोग लगावें।
आय विदुर पद पंकज परसे। देख दसा बोले प्रिय डरसे।
धन्न धन्न प्रभु मौज तुम्हारी। धन्न प्रेम प्रिय करी चिन्हारी।
कहाॅ रहे अस भाग हमारे। जो तुम दीन बन्धु पग धारे।
दुर्योधन की मेवा त्यागी। साग विदुर की मधुरी लागी।
श्री मुख से प्रभु स्वाद बखाने। बहुर विराट नगर नियराने।
कही कथा भूपत के आगे। भारत समर हेतु अनुरागे।
दिये निमंत्रन पत्र पठाई। कुरूक्षेत्र मे ठनी लराई।
दोहाः- कुरू दल नव अक्षौहणी,पांडु पुत्र दल सात।
लैन जुरी चतु रंगनी,भारथ मे विख्यात।।
युद्ध नियंत्रन पत्र ले,चले द्वारका धाम।
दुर्योधन अर्जुन गये, रहे जहाॅ घनस्याम।।
चैपाईः- संुदर महल धवल सतखंडा। गरूड़ चिन्ह के फहरत झंडा।
कवित्वः-
कंचन के हाट बाट घाट बाॅधे कंचन के,कंचन के धौल धाम कंचन अटारी है।
कंचन की देहरी कपाट जड़े कंचन के,कंचन के आॅगन मेसु कंचन गच ढारी है।
कंचन की सेजन पै कंचन तन लीलम से,पौढ़े घनस्याम सत्य भामा सुकमारी है।
विदुके समीप गंग गोमत्री किनारे पै,कंचन की सुंदर शुभ द्वार का निहारी है।
सवैयाः-
मकराक्रत कुंडल क्रीट लसै,कलगी झुक मौतिन कीसह नोनी।
भुज अंगद कंचन के गजरे,हियहार परी कट में कर धौनी।
मुरली मुख हाथ लिये लकुटी,पग नूपुर गूॅजत ज्यौ अलि छौनीं।
छव सुंदर द्वारका नाथ जू की,म्रदु मूरत सूरत स्याम सलोनी।
जिनकी छवि सों छव फैल रही,मुख जोत उदात करे उजयारी।
इनकी सम ये नहिं आन कोऊ,गुण रूप की व्यास करी बडुआरी।
रूख ताकें रहें द्रगपाल सदां,भ्रकुटी लख भोग करै सुख चारी।
महरानी यही सरकार बड़ी,इनके पद पंकज की बलहारी।
शीस नवै पद-पंकज में,कर जोरे तो आपहिं को हम जोरे।
नैनन रावरौ रूप लखैं,यस कान सु नैनन लेत हिलोरें।
जाये तो आपने धामन को,बरसें रसरंग सुगंध की खोरें।
प्राण जे जांय तौ जाॅय भलै,पर जाॅय दुआरका नाथ के दोरें।
भव वारिध बीच जेहाज डरी,करनी झकझोरन सों डरिये।
जप जोग विराग न जानो कछु,दिन भोग कुरोगन मे मरिये।
सरनागत आकर जीउ परो,इसके अपराध हरी हरिये।
वरदान यही ’दुज’ मागत हों,अब द्वारका नाथ कृपा करिये।
दोहाः- मोसम अधम मलीन को,और न दूसरे ठाॅव।
धनी द्वारका नाथ कौ,द्वार छोड़ कहॅ जाॅव।।
गंग गोमती सिंधु तट,वसै द्वारका धाम।
कनक महल रत्नन जड़ित,ब्राज रहे घनस्याम।।
दोहाः- अब द्वादस अध्याय में,गीता के परमाण।
युद्ध हेतु वर्णन किये,अर्जुन प्रति भगुवान।।
प्रश्न करत कर जोर कर,जन मे जय कुरूराज।
गीता वर्णन कीजिये,भाषा मह रिषि राज।।
वैसंपायन मुनि,कही,सुनिये भूप सुजान।
भाषा अरू संक्षेप पुन,गीता करो बखान।।
धर्म क्षेत्र कुरूक्षेत्र में,खड़े युद्ध के हेत।
मम सुत अरू पाॅडव सुवन,करत कहा कुरू खेत।।
देख पांडवन की अनी,रचना व्यूह महान।
युर्योधन गुरू द्रोण सो,बोलो वचन सुजान।।
शिष्य आपके द्रुपत सुत,व्यूह सजाई ऐन।
पाॅडु पुत्र की देखिये,खड़ी गुरू ग्रह सैन।।
चैपाईः- द्रुपत विराट सात्य की पारथ। महारथी प्रचिलित पुरूषारथ।
चेकितान पुरूजित न्रप भोजा। कुंति सैब्य नारोत्तम मौजा।
ध्रष्टकेतु काशी के राजा। युधा मन्यु विक्रांत विराजा।
अभिमन द्रुपत सुता सुत बाचा। हैं अमोघ इन के नाराचा।
सूरवीर रणधीर सुजाना। ये सब अर्जुन भीम समाना।
अब सुनिये सैनापति मेरे। जानन योग अहें गुण तेरे।
स्वयं करण अरू भीष्म पितामह। कृपाचार्य विजई संग्रामहिं।
विकरण भूरीश्रवा न्रपाला। अश्वत्थामा और कृपाला।
अन्य सस्त्र धारी न्रप वीरा। चतुर युद्ध मे अति रणधीरा।
मम हित तजी जियन की आशा। सैनापत मम सहित हुलासा।
रक्षित अजय पितामह सैना। सब प्रकार सुनिये सुख देना।
भीम अनी सब जीतन योगू। रहो सजग मोर्चन पर लोगू।
सब प्रकार से रक्षा कीजे। भीष्म पितामह की सुध लीजे।
यह सुन भीष्म पितामह गर्जे। संख बजाय सिंह रब गर्जे।
दोहाः- संख नगारे ढोल पुन,बजे येक ही साथ।
गो मुख और म्रदंग धुन,तुमुल शब्द भयौ नाथ।।
चैपाईः- सुंदर स्वेत हंस सम घोरे। अति उत्तम रथ आकर जोरे।
भये सारथी श्री गिरधारी। बैठे रथ अर्जुन धनुधारी।
जीतौगे धरनी यश करनी जब फैलेगी,वरणी यह वेदो में तुमको बतलाईये।
प्राण जाॅय प्यारे ये कुंती सुत समर भूमि,द्वार के किवार खुले स्वर्ग धाम पाइये।
गीता के ज्ञान के प्रमाण घनस्याम कहत,पाय कैं शरीर इसे व्यर्थ ना गमाइये।
ठानो रण मानों हित जानो यह सत्य बात,तानकें कमान वान क्षत्री बन जाईये।
दोहाः- शोकाकुल अर्जुन भये,देखे यादवराय।
साॅख्य योग वर्णन कियो,मित्र दियो समुझाय।।
कर्म योग वर्णन कियो,श्री मुख श्री भगुवान।
आत्मशक्ति बल पाय दल,दल दुर्जय बलवान।।
ज्ञान कर्म से सन्यास कौ,योग कहो भगुवान।
ज्ञान रूप तरवार से,छेदन कर अज्ञान।।
प्रभु पंचम अध्याय में,कहयो कर्म सन्यास।
चिदानंद घनस्याम सुख,पूरण ब्रम्ह्म प्रकास।।
संत निंरतर जो भजे,अंतर हिय सों मोय।
आत्म योग संयम यही,योगी अति प्रिय सोय।।
वासुदेव मय जान जग,आत्म सूर्य भगवान।
अंत समय तहॅ चीन सो,ज्ञान योग विज्ञान।।
यह अष्टम अध्याय मे,अक्षर ब्रम्ह्म बखान।
यह रहस्य के तत्व फल,पावें पद निर्वाण।।
आत्म निवेदन जो करै,शरण हमारे आय।
राज गुझूय विद्या यही,कही नमम अध्याय।।
अस्थित मे जग अंस से,माया के आधार।
मम विभूत कौ योग यह,देखो नजर पसार।।
येका दस अध्याय मे,विश्व रूप दरसाय।
वैर भाव से विगत जो,सो अनन्न पद पाय।।
मम गत मत रत भक्त जन,मम मत जगत न आन।
भक्ति योग अध्याय यह,द्वादस कहयो बखान।।
क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ कौ,तत्व भेद कर जान।
दिव्य द्रष्टि देखहि सुजन,पावहिं पद निर्वान।।
हो अखंड अरू येक रस,ब्रम्ह्म सुधा मम नाम।
अब्यय सास्वत धर्म सुख,येक अकेले राम।।
माधव पांडव संख बजाये। जिनके शब्द गगन महिं छाये।
पंच जन्य घनस्याम बजायो। देव दत्त पारथ सुर छायो।
जाकर संख पौंड्र असनामा। दियो बजाय भीम बल धामा।
विजय अनंत युधिष्ठर भूपा। नकुल सुघोष बजायो अनूपा।
मणि पुष्पक सहदेव बजायो। काशीराज सिखंडी गायो।
रथी विराट सात्य की वीरा। ध्रष्टकेतु धुन करी गंभीरा।
द्रपत द्रोपती तनय विजेता। अभिमनु संख बजायो अजेता।
निज-निज सबही संख बजायो। महारथी राजा जुर धाये।
हृदय बिदारक शब्द भयंकर। धार्तराष्ट्र सुत सुमरहि संकर।
नभ पाताल दसहुॅ दिस छाये। संख भयंकर कर शब्द सुनाये।
दोहाः- कपि ध्वज अर्जुन उठ खड़े,देखहु दुहु दल सैन।
गांडिवधारी वीर तब,बोले हरि सन वैन।।
समर हेतु दोनो अनी,घनी जुरी महराज।
अग्र चमूके बीच मे,रोपौरथ ब्रजराज।।
युद्ध करन की कामना,जिनके हिय मे ऐन।
करहु युद्ध के हेतु को,देखहुॅ पंकज नैन।।
चैपाईः- दुर्योधन संग न्रप रणधीरा। विजय हेतु आये सब वीरा।
दुर्योधन की विजय भलाई। को चाहत देखो यदुराई।
अर्जुन वचन सुने वनवारी। रथ रोप्यो दुहु सैन मझारी।
भीषम प्रमुख द्रोण गुरू लेखों। कौरव न्रप अनीत सब देखो।
प्रथा पुत्र तब देखन लागे। तात पिता भ्राता सुत आगे।
पितामहा मातुल सुत नाती। ससुर सुहद गुरू मित्र संघाती।
स्वजन बंधु देखे सब अपने। करूण हृदय देखे जिम सपने।
शोक हृदय अर्जुन जब बोले। स्वजन समूह देख मन डोले।
हे प्रभु युद्ध हेत यह ठाड़े। देखत रोम रोम भये ठाड़े।
शिथिल गात भये शीत हमारे। सूखत वदन अधर अरूणारे।
त्वचा जरहिं मन भ्रमत सरीरा। कंपत हाथ गिरत धनु तीरा।
लक्षण सब देखत विपरीता। भूले न देख स्वजन बुध मिता।
जिनके हिय चाहत सुख भोगा। राजपाट धन धाम सॅयोगा।
ते सब तज जीवन की आसा। ठांड़े युद्ध हेत मम पासा।
राजपाट धन भोग विलासा। विजय न चाहत कर कुल नासा।
दोहाः- आचारज गुरू सुत पितर,मातुल सुसुर दमाद।
स्वजन सुह्द संम्बंध के,नाती पंती आद।।
इनको बध नहिं सुख चहो,तीन लोक कौ राज।
येक अकेली भूम को,कौन प्रयोजन आज।।
सवैयाः-
महभारत पारथ देख कहें,लड़ने की मेरी प्रभु राह नहिं।
घर वार सॅघार के राज्य करों,यह आपकी नेक सलाह नही।
जग जीवन है कितने दिन का,इसको सुख की चाह नही।
घनस्याम तुम्हारे निहारे बिना,मुझको कुछ भी परवाह नही।
चैपाईः- दुर्योधन कुल सहित सॅघारो। पाप पहार सीस निज धारों।
कुल विद्ववंस करों नहिं यातें। कैसे सुख पावहिंगे तातें।
यद्यपि लोभ ह्दे चित चेतू। कुल क्षय द्वेष न मानत हेतु।
ये सब मित्र द्रोह नहिं माने। भ्रष्ट चित्त नहिं पातिक जाने।
जात दोष हम करिये कैसे। होय पाप नहिं वधिये ऐसे।
जो जन जान करहूॅ कुल नाशा। होय सनातन धर्म विनासा।
धर्म विनास हौत कुल जाकों। कुलकौ पाप लगत है वाकों।
पाप अधिक कुल नार नसावें। नार वर्णशंकर सुत जावै।
दोहाः- कुल वोरन कुल घात की,सकुल नर्क लै जाॅय।
पिंड़दान जलदान बिन,पुरखा गिरत दिखाॅय।।
चैपाईः- जाकर नष्ट धर्म कुल होई। बसै नर्क कल्पंातर सोई।
धिक-धिक शोक बुद्धि पर सोई। राज लाभ सुख अघ कुल सोई।
सरधर हित कादर कर माने। धनुधर दुर्योधन रण ठाने।
समर बीच यदि मारे मोहीं। मम कल्याण होय प्रभु सोही।
तहॅ यक हेत सुनहु भूपाला। अस कह पारथ भये विहाला।
शोक नीर हिय निधि मह बाढ़े। रथते उतर भूमि भये ठांड़े।
वान सहित धनु भूम गिरायो। रथ के पिछले भाग बिठायो।
दोहाः- अर्जुन अरू श्री कृष्ण कौ,श्री गीता सम्वाद।
प्रथम सर्ग पूरण भयो,वर्णो योग विषाद।।
कवित्वः-
तीन देव गुण तीन से,गुणातत भगुवान।
यही गुणाजय योग है,गीता ज्ञान प्रमाण।।
नाशवान जड़ वर्ग से,हों अतीत सब काल।
माया मे अस्थित सदा,देख रहो जग हाल।।
अविनाशी जड़ जीऊ से,पुरूषोत्तम मम नाम।
पुरूषोत्तम जन जानही,पुरूषोत्तम के धाम।।
करन जोग करतब्य जो,अकरन के करतव्य।
गीता सार प्रमाण से,नियत कर्म कुरू अव्य।।
देवासुर संपत यही,विविध भांत कर दीन्ह।
नियत कर्म सो कीजिये,गीता वर्णन कीन्ह।।
चरण कमल घनस्याम के,भजन करहु निषकाम।
नियत कर्म सो कीजिये,श्रध्या त्रय शुभ नाम।।
धर्म कर्म आश्रय तजो,भजो सच्चिदानंद।
परम शांति पद पाय हों,परम धाम सानंद।।
यह रहस्य के ज्ञान को,सुचि मन लेहु विचार।
अब चित चाहौ सो करौ,इच्छा के अनुसार।।
गोपनीय अति ये रहस,तुम हित कियो बखान।
अतिसय प्रिय प्रीतम सखा,ध्यान दीजिये ज्ञान।।
वासुदेव परमात्मा,चिदानंद घनस्याम।
नवधा भक्ति अनन्य चित,भजन करो निषकाम।।
मनसा बाचा कर्म से,भक्ति रहित जो होय।
यह गीता के ज्ञान को,सुने कहै जिन कोय।।
भक्ति पूर्वक भक्ति से,गीता पढ़ै पढ़ाय।
ईश्वर मय सोई होयगौ,व्याख्या कहै सुनाय।।
भगवत गीता जो पढै,ईश्वर कों प्रिय सोय।
बिन गीता के ज्ञान शठ,पृथ्वीपत जो होय।।
मम अर्जुन संवाद को,गीता सास्त्र सुजान।
सदा पाठ जो नर करै,ज्ञान यज्ञ परमान।।
दृष्ट दोष से रहत जो,श्रध्या भक्ति समेत।
श्रवण मात्र फल अघ नसै,श्रेष्ठ धाम सो हेत।।
श्रावण कृष्णा कामदा,सुदी पुत्रदा वैन।
अर्थ सिध्य अरू कामना,पुत्र देत सुख दैन।।
भादो की येकादशी, जया करै जयदान।
पद्मासन परमेश्वरी,पद्मा ब्राजी आन।।
क्बाॅर वदी येकादशी,सुंदर नाम विशोक।
क्बाॅर सुदी की इन्दरा,देत इन्द्रके लोक।।
रंभा कार्तिक जानिये,रभा सुक संवाद।
पढ़ो होय तो मानिये,कीजे नहिं विवाद।।
कार्तिक सुदी प्रबोधनी,बोध देत गुरू ज्ञान।
जुआ खेलिये ज्ञान कौ,जीत लेव भगुवान।।
अघन बदी उत्पन्न भई,उतपन्ना है नाम।
सुदी मोक्षदा मोक्ष दे,पहुॅचावै हरि धाम।।
पूस फूस तापै जगत,सफल मनोरथ होय।
सफला तासें दुज कहें,सुदी पुत्रदा होय।।
माघ मास की षटतिला,तिल-तिल दैये दान।
जया सुदी की जानिये,जै जै कृपा निधान।।
फागुन की येकादशी,विजया रहे उपास।
विजई विनई होय दुज,अंत अमरपुर वास।।
आमलकी फागुन सुदी,रहें उपासे लोग।
सुखी होंय भोगंे भगत,भात-भात के भोग।।
पाप मोचनी चैत्र की,नाम यथा रथ काम।
महिमा येकादासि की,वर्णी दुज घनस्याम।।
हीरन की माला बनी,पदम अठारह मोल।
येक दिवस की चाकरी,अमित दिनन कौ मोल।।
महिमा येकादशिन की,ताप हरैं सुख पाय।
सो विचरें या जगत में,जीवन मुक्त कहाय।।
महिमा येकादशिन की,भीषम कही सुनाय।
अब गजेन्द्र के मोक्ष की,कहों कथा समुझाय।।
छंदः-
सुर लोक मे यक समय बैठे,इन्द्र से दिग्गज रहे।
अपछराये नृत्य करती,गंधर्व यश को गा रहे।।
गीता कौ माहत्म कह,पूछत आनंद कंद।
श्रवण कियो येकाग्र ह्वै,नष्ट मोह दुख दंद।।
चैपाईः- अर्जुन कहें सुनहु गिरधारी। गयो माहे मन आनॅद भारी।
संसय तिमिर गयो भज दूरी। मन थिर भयो ज्ञान भर पूरी।
प्रभु आज्ञा अब पालन करहों। समर भूमि नहिं कालहिं डरहों।
संजय कहत सुनहु कुरूराई। यह सम्बाद सर्व सुखदाई।
रस रहस्य अदभुत अति जामें। होत रोम राजी सुन यामें।
योगेश्वर श्री कृष्ण बखानी। पारथ रथ पर सुनत दिखानी।
दिव्य दृष्टि द्वारा सुन पाई। व्यास कृपा से तुम्हे सुनाई।
रस रहस्य अदभुत सुखकारी। सुमरत चित पुन हर्षित भारी।
जाके सुमरण से अघ नासा। श्री हरि भेंटन नाम प्रकासा।
श्री घनस्याम रूप दरसावै। सुमरत चित हर्षित पुल कावे।
जहाॅ धनुर्धर पारथ वीरा। योगेश्वर प्रभु जहॅ यदुवीरा।
विजय विभूत यहीं पर जानो। यही बात मन साॅची मानो।
यह प्रकार गीता समुझाई। अर्जुन सजग किये यदुराई।
पुन भारथ पारथ ने ठानी। भये सारथी सारंगपानी।
वेद व्यास पुराण बनायो। ललित चरित संुदर सुभ गायो।
जाकी भईं अनेकन टीका। भाषा सिंधु भरो रस नीका।
सबल सिंह चैहान बखानी। छंद मनोहर ललित कहानी।
तामें सकल कथा परसंगा। पांडव भीम कियो रणरंगा।
पर्वस युद्ध अठारह कीन्हे। रचना व्यूह रंग भर दीन्हे।
भीषण द्रोण कियो पुरूषारथ। रक्षक भारथ के हरि सारथ।
जग प्रसिद्धसो कथा पुराना। श्री मुख कह्यो व्यास भगुवाना।
दोहाः- सर सैय्या भीषण लई,भारथ के मैदान।
धर्मराज पूॅछन गये,राजनीत सुखदान।।
इती श्री भीम पुराणे महाभारतांतर्गत कथा गीता वर्णनो नाम
द्वादशोध्यायः 12
दोहाः- महिमा येकादशिन की,बॅध मोक्ष गजराज।
कथा त्रियोदशमे कहों,भीषम कहयो सुराज।।
धर्मराज के वचन सुन,बोले भीषम वैन।
काल ज्ञान भक्षक सदा,रक्षक पंकज नैन।।
चैपाईः- अस कह पितामहा हॅस बोले। भेद राजनीतन के खोले।
भूसुर धेनु धरन अरू धरमा। रक्षा हेतु छत्र के करमा।
नर तन धर प्रभु महि पर आवहिं। धर्म सनातन मिटन न पावहिं।
रक्षा कर बाॅधे जग सेतू। भक्त काज दूसर नहिं हेतु।
ते प्रभु तुम निज बस कर राखे। जिनके वेद भनत नित साखे।
मेरौ प्रण राखो भगवाना। चक्र लये भारथ मैदाना।
ग्राह ग्रसो गज दीन पुकारो। नक्र चक्र सों चक्र विदारो।
लाक्षा ग्रह से तुम्हहिं बचायो। पंचाली कौ चीर बढ़ायो।
अस सुन भूप कहीं म्रदुवानी। कहौ नाथ गज-ग्राह कहानी।
येकादशी महात्तम कहिये। जाके सुने घोर अघ दाहिये।
भीष्म पितामह बोले बानी। प्रश्नोत्तर न्रप कहे बखानी।
दोहाः- श्री गणेश श्री सरस्वती,बुध्य देव जन जान।
महिमा येकादशिन की,भाषा कहांे बखान।।
चैत्र शुल्क ग्यारस दिवस,जो नर रहै उपास।
श्री भुक्त मोक्षक महा,भवरूज करै विनास।।
येका दसी बरूथनी,कृष्ण पक्ष बैसाख।
रहे उपासे नार नर,सुख पावें शिव साख।।
माधव सुदि येकादशी,नाम मोहनी जान।
मोहन से मोहे भगत,संकट मिटे महान।।
जेठ बदी येकादशी,जाको अपरा नाम।
अपर मेंट व्यापै जगत,पहुॅचावै शिव धाम।।
जेठ सुदी की कौ कहे,महिमा अमित अपार।
भीमसैन जानी कछू,ज्ञानी भये विचार।।
नाम जोगनी व्यास कौ,होवे जगत असाड़।
हर की लीला देख के,करै जोग की बाड़।।
सुदी देवशयनी शयन,देवन दियो कराय।
सपनौ सौ जग जान कें,अपनो कहत सुनाय।।
नाम हा हा और हू हू,रूप के कंदर्प थे।
गान मे अब तीर्ण दोनो,इन्द्र के गंधर्व थे।।
येक से बढ़कर हुनर मे,गान का अभिमान था।
मोह जाती देव कन्या,ज्ञान गौरव मान था।।
अनुराग के यक राग पर,तकरार उनकी ठन गई।
अनवन हुई तब क्या हुआ,खरसान भ्रकुटी तन गई।।
कौन निकले गान मे,अब तीर्ण दिल में ठान कर।
मध्यस्थ मुनिवर को किया,देवज्ञ रस निधि मानकर।।
राग गाये रागनी, सुर भेद पूरण वेद के।
करहिं नम्बर कर दिया,मुनि पाय वेही खेल के।।
दैवज्ञ को वे अज्ञ समझे,विहस बोले यह वचन।
कौन किस कारण है अच्छा,आप समझे क्या रिचन।।
ज्ञान से सह सून्य हो,अज्ञान बस लड़ते अरे।
ग्राह गज ज्यों गर्जना,गज ग्राहयों लड़ते खरे।।
श्राप दी मुनिवय्र्य ने,तज काल पाकर खुल गया।
दंडवत करने लगे,अभिमानका मल घुल गया।।
दीन पड़ कहने लगे,मुनि श्राप की अवधी कहो।
देवज्ञ ने उत्तर दिया,गज ग्राह हो लड़ते रहो।।
वीय्र्य बल घट जायेगा,अभिमान भी घट जायेगा।
द्वंद भी मिट जायगा,गज फंद भी कट जायगा।।
देख लेगे वो प्रभू,अभिमान का अंकुर घटा।
वे दीनवंधु दयाल है,दिखलाॅयगे अपनी छटा।।
निर्मुक्त बंधन से करे,हर वक्त सुध लेते रहंे।
दीन भक्तन हेतु अपने,सीस संकट हरि सहें।।
दैवज्ञ इतना कह चुके,गज ग्राह वह दोनो हुये।
ग्राह सर में जा छिपा,गजराज वन वासी हुये।।
पथिकवन निर्जन सघन,तरूवर नये पल्लव हरे।
झूलती झूक झुम लतिका,सुमन मन आनॅद भरे।।
क्षेत्र हरि हर का वहाॅ,अवतार हरिका था हुआ।
भूम उसकी है मनोहर,स्वच्छ परवर था हुआ।।
पाप का अपमान का,अभिमान का फल पा चुका।
माफ कीजे हे हरी,दुख दंड पूरण खा चुका।।
दास अपने का हरी,दुख देख सकते न कभी।
भक्त के भजते भगे,तत्काल दुख मेटे सभी।।
लाज रक्खी द्रोपदी,प्रहलाद की जल्लाद से।
नाग से गिरराज से,उसको बचाया खाद से।।
अब देर करते हो प्रभू,नहिं देर का कुछ काम है।
लुटिया डुवोते नाम की,क्या भक्त वत्सल नाम है।।
अब शेष मेरे प्राण है,अरू नीर से तन गर्क है।
अबलंव तेरे नाम का,सुविलंब इतना फर्क है।।
वह वान विसरी क्या प्रभू,अब देर इतनी क्यों करी।
भक्ती अजामिल क्या करी,स्वपचादि गणिका क्यों तरी।।
करतार तारी जाय के,वह जात की भिल्लन अधम।
रघुनाथ खाये बेर थे,ग्रह जाय कर रक्खे कदम।।
नक्र का वह वक्र क्षण मे,चक्र से काटा हरी।
त्रान बिन भगुवान धाये,वान की सुध हरि करी।।
चार भुज थे चारू सुंदर,पीत पट कटि से कसें।
माल उर मे लाल जी के,भाल मे चंदन लसे।।
कर्ण कंुडल मुकट माथे,नैन पंकज करूण से।
नील नीरज मेघ तन,पट पीत चपला वरण से।।
माल तुलसी भ्रगु लता,कटि मूल नूपुर बाजहीं।
शंभु उर सर हंस से,घनस्याम मम हिय राजहीं।।
साथ मे खग नाथ जिनके,हाथ म्रदु गजराज पर।
प्राण धन निज वारिये,’घनस्याम’श्री ब्रजराज पर।।
फूल पंकज का लिया,गज सुंड से हित मान कर।
मंजु कर कर कंज आयुध,दीन का हित मान कर।।
गर्व का था बल उसे,प्रभु चूर्ण यक क्षण मे किया।
दीन दुख भंजन किया,निज शक्ति का परचे दिया।।
दोहाः- भक्ति ज्ञान की यह कथा,भीषम कही सुनाय।
राजनीत सुन सिविर निज,बहुरे पाॅडव राय।।
देव सर क्या स्वच्छ सुंदर,तीर पूरण नीर सों।
हंस कुकुट विहंग कलरव,कंज विकसित तीर लों।।
दूव तट तहरात लोनी,लहलहे फल बेल के।
झील झींगुर शब्द करते,हरित सुंदर केल कें।।
यूथपति करि यूथ लेकर,घूमता पहुॅचा वहाॅ।
लोल लोचन अरूण जाके,भाल मद पूरित महाॅ।।
देख तट वट वृच्छ छाया,साख गह निज सुंड से।
अंत करता दंत से,सुख वंत होता झुंड से।।
गंध से परिपूर्ण वन था,सरित सौरभ डोलती।
स्वच्छ संुदर तीर ऊपर,डोलती बक गोल थी।।
सौदंर्य प्राकृत द्रस्य का,संचार रस का हो गया।
जंग करने के लिये,गज इन्द्र प्रस्तुत हो गया।।
साथ करणी झंुड ले,जल केल करने के लिये।
उच्च सुर से नाद करता,तीर सरवर के पिये।।
मान का अभिमान था, गजराज को बल गर्व था।
कंदर्प का थ दर्प तन में,ज्ञान गौरव सर्व था।।
अंवु भर-भर सुंड से,गज मुंड ऊपर मेलता।
पंक पंकज येक करता,यही उसका खेल था।।
ग्राह का ग्रह हिल गया,दिन हिल गया दुख दर्द से।
युद्ध हित कर कुद्ध उसने,ग्रस लिये मुख जर्द से।।
खीच पग उस नीच ने,गजराज को झटका दिया।
साथ करणी प्रिय तमा के,ग्रीब को लटका दिया।।
यूथ करणी नीर हिल मिल,मिल सहारा दे रही।
प्राण प्यारे कोल पर,वह हाय अंक मले रही।।
संुड से गह सुंड सुंदर,मत्त करिवर गामनी।
ज्यों छपाकर को छिपा लेती,मनो सित यामनी।।
ग्राह था जल ग्रेह मे,अरू देह मे बल जंग था।
जोश था मद होस था,तन होश था रस रंग मे।।
शान मे शानी थे दोनों,युद्ध दोनों का हुआ।
बीत गई कई येक वर्षे,बाल बाॅका नही हुआ।।
चाव विगड़ा देख पड़ता,भाव मे कुछ फर्क था।
चुंगली सो संुड निकली,सिर्फ जल मे गर्क था।।
कंतका दुख देख करणी,तीर बैठी रो रहीं।
नैन अपने अश्रु कण से,प्राण प्यारी धो रही।।
नीर वासी ग्राह ने,कर कोप झटका ज्यों दिया।
हीन बल से गज हुआ,पड़ दीन हरि सुमरण किया।।
नाल पंकज फूल गज ने,फूल हरि अर्पण किया।
डूबने ही को हि था,अबलंब हरि का त्यों लिया।।
शेष सैय्या क्षीर निधि के,थे हरि लेटे हुये।
पार्षद थे अर्दली मे,तीन गुण मे हेतु थे।।
लालती थी चरण पंकज,शक्ति धर की शक्ति थी।
जानकी थी जग्त की,अनुरक्त पूरण भक्त थी।।
नीद प्रभु खुल पड़ी,धुन सुन पड़ी गज दीन की।
हाय सुन असहाय की,तन खीन की मत हीन की।।
छोड़ वाहन बिन उपाहन,चक्र दाहन हाथ लै।
धाय आतुर भक्त का,प्रभु पक्ष अपना साथ लै।।
टेर गज की सुन हरी,नहिं देर इतनी फिर करी।
हो गया सब काम उसका,नाम निकला ज्यों हरी।।
लाचार हो गजराज ने,यक फूल पंकज तोड़कर।
जान ऊपर खेल कर,जुग अंजुली को जोड़कर।।
कंठ गहवर आसु कर से,दीन पड़ रोने लगा।
अश्रुकण से नेत्र नीरज,पूर्णकर धोने लगा।।
हे कृपा सिंधु मकुंद माधव,दीन दुख भय भंजनम्।
हे दीन वंधु दयाल दाता,दुष्ट खल दल गंजनम्।।
हे राम है अभिराम पूरण,कामप्रद छव मंदरम्।
हे चक्रधर बैकंुठ वासी,स्याम घन तन सुन्दरम्।।
ठौरना अब और स्वामी,देख पड़ती दीन को।
दौर मेरी आप तक बस,जानिये इस हीन को।।
ज्ञान का अभिमान था,बल दर्प का कंदर्प था।
जोश का मदहोश था,प्रभु रूप का गंधर्व था।।
चैपाईः- भयो महाभारत कुरू खेता। द्रोण सल्य वध करण समेता।
कुरू बंसी दल भयो सॅघारा। बचो न कोई कुल रोवन हारा।
गदा युद्ध दर्योधन कीन्हा। अभिमानी कुल रहोना चीन्हा।
पांचाली सिर केश अन्हाये। धूसासन कौ रूधिर सुहाये।
पूरण भई प्रतिज्ञा उनकी। ईश्वर रक्षा करी सवन की।
कथा महाभारथ मैं वर्णी। समर चरित्र सविस्तर वर्णी।
रचना चक्र व्यूह की भारी। द्रोण गुरू रूच ताह सम्हारी।
अभिमनु वीर जयद्रथ मारे। करण धुसासन आदि संघारे।
सौणिक ऐषिक पर्व बनाई। वर्णी अति घनघोर लराई।
रिचा पर्व राजी भई न्याई। अश्व मेध की जज्ञ रचाई।
दोहाः- वैनताश्व ने अश्व को,पकर बॅधायो थान।
जहॅ पारथ अस भूप कौ,भयो घोर घमसान।।
बब्भ्रूवाहन से ठनी,अनी जुरी पुन आय।
तहॅ अर्जुन मारे गये,मणि से लियो जिवाय।।
दल षोड़स अक्षौहणी,भारथ के संग्राम।
धरनी भार उतार के,गे प्रभास घनस्याम।।
चैपाईः- धर्मराज ब्राजे सिंहासन। सुख पाये सब आसन बासन।
येक छत्र सब प्रजा सुखारी। धर्म कर्म रति नर अरू नारी।
चहुॅ दिस आनॅद मंगल राजें। ग्रह-ग्रह वेणु चैन हकी बाजें।
अल्प मृत्यु सुनिये नहिं धरनी। डरत काल सुन पारथ करनी।
सब प्रकार सुख पूरन धरनी। सांत भई सांतनु सुत करनी।
लघु पिपीलका सम मति मोरी। नही कछुक जस गत मत मोरी।
पढहिं सुनहिं समुझहिं कवि स्याने। ललित चरित संक्षेप बखाने।
सुकवि विनोद कवित कविताई। बाल विनोद तिन्हे सुखदाई।
नहिं असत्य इतिहास कहानी। वर्तमान भारत रजधानी।
भारत भ्रमण किये जिन नाहीं। ते समुझहिं श्रम कियो वृथाही।
नहिं भूगोल पढ़े इतहासा। तनको सुखद हिन्दवी भाषा।
अपनो सफल परिश्रम लेखों। हरि हर चरित पढ़त तब देखों।
दोहाः- देश भेद से हौंय ये,नाम भेद कछु और।
अपभ्रंस ताके भये,और तौर सब ठौर।।
धीर धरहु मिट गई गिरानी। झंडा भई सुराजी वानी।
विजय जवाहर बिजई भाई। चहॅु दिस विजय केतु फहराई।
भारत गारत होत बचाई। धन-धन मोहन की चतुराई।
धन-धन भारत लाल तुम्हारी। विपत विदारन करी हमारी।
मुक्त भये बंधन से छूटे। तौक गुलामी के सब टूटे।
चन्द्र सूर्य इव करहु प्रकासा। प्रभा कौमदी किरण विकासा।
आनॅद मंगल हो हि। सदाही सुमत सुनीत रहे सब ठांही।
उपजे भूम होय सुख दाई। बसे सुराज प्रजा सुख पाई।
काॅगरेस ब्राजै चहुॅ देशा। सदा सुराजी भये प्रजेसा।
कुंडिलियाः-
होय राष्ट्रपति हिन्द के,वीर जवाहर लाल।
धर्मराज मोहन करे,धर्मराज महिपाल।।
अन धन गोधन धन बढै,बाढ़े कृषी किसान।
कथा विसर्जन होत अब,पत राखें भगुवान।।
पत राखे भगुवान, कथा वरणी सुखदाई।
बाल विनोद न होय,कथा विरची कविताई।
वर्णें दुज घनस्याम,श्रवण करहें नित बुध जन।
गुण गण प्रभु के गाय,तरहिं भव बाढै अन धन।
दोहाः- रिषी देव ग्रह इन्दु,तन शुक्ल भाद्र पद मास।
रूद्र दिवस पूरण भयो,भीम भीम इतिहास।।
इति श्री भीम पुराणे द्वितीय खण्डे महाभारतांतर्गत कथा भीष्म सरसैय्या येकादशो गजेन्द्र मोक्ष स्वराज पाती धर्मराज रीत नीत प्रजा पालन पंडित घनस्याम दास पाण्डेय साहित्य भूषण भाषा कृत त्रयोदशोध्याय समाप्तोयं द्वितीय खंडे शुभ भवतु।
मिति क्वार शुक्ल 11 संवत 1994 -9-77
गंगा जमुना सरस्वती,तीरथ वन गिरराज।
पता देत इतहास के,वर्तमान सोई आज।।
नही बनी प्राचीनता,बनी निशानी हाल।
अपभ्रंस के कारने,भोजपाल भोपाल।।
चैपाईः- भारत भूम मनोहर नीकी। जन्म भूम त्रेलोक धनी की।
गंग यमुन सरितन के नीरा। विन्ध्य हिमालय गिर गंभीरा।
चार धाम तीरथ पुर नाना। हरि लीला के विविध प्रमाना।
व्यास आदि कवि पुंगव नाना। सास्त्र अनेकन रचे पुराना।
भूमपाल राजा रवि वंसी। चंद्र वंस के न्रप अब तंसी।
उपज भूम नहिं प्रजा दुखारी। नहिं दरिद्र नहिं कोउ भिषारी।
नहि अघ लेश कलेश न देखे। प्रजा नरेश पुत्र सम लेखे।
गो ब्राम्ह्मण के रक्षक राजा। चारहुॅ ओर सुराज बिराजा।
देश धरम गो विप्रन हेतु। जीवन यज्ञ कीरत के केतू।
देश धरम के हेत सरीरा। देत रहे भारत वीरा।
दोहाः- सो प्रतक्ष अब देखिये,भारत लाल सपूत।
झंडा लये सुराज के,जग जाहर करतूत।।
देश धरम के हेत जिन,करी जान कुरवान।
देश बंधु त्यागी भये,मोती लाल सुजान।।
चैपाईः- तिलक पटैल गोखले स्वामी। श्रध्यानंद भये सरनानी।
भगत राम फाॅसी पर लटके। लिये सुराज मिटाये खटके।
विद्यार्थी रथी सुत शंकर। कंचन प्राण तजे जिम कंकर।
लाला देश लाज पत राखी। जलयाने वागन अस साॅखी।
चली वार डोली मे गोली। कामयाव वीरन की टोली।
बिन हथयार दीन ह्वै ठाड़े। संकट विकट सहे सिर गाढ़े।
छुआ छूत के भेद मिटाये। दीन अनाथन कष्ट छुडाये।
मोहन भये देश के नेता। वीर जवाहर लाल विजेता।
मिस सरोजनी कमला देवी। तन मन धन जीवन भय सेवी।
वीर अंगना पुन मरदानी। झंडा लिये सुराज दिखानी।
जे हो गये अहे अरू होने। जस जाहर कर भये निरोने।
सविनय विनयकरी तिन पाहीं। देश धरम हित कीजिये नाही।
दोहाः- तन मन धन सों कीजिये,देश धरम हित काज।
मात्र भूम के लाल जी,मात्र भूम की लाज।।
कृष्ण भवन मे गमन सुन,जिन्ह कीन्ही बहुबार।
तन मन धन अर्पन कियो,कियो देश उपकार।।
विलसन हुऐ पताल मे,लिलन जर्मनी देश।
कर्म चन्द्र मोहन धरे,तीन देव के भेष।।
विलसन ब्रम्ह्म जानिये,लिलन रौद्र अवतार।
विस्नु रूप मोहन भये,पालन को सिंसार।।
भारत जननी द्रोपदी,धूसासन सम्राट।
चीर सुराजी कर गहे,जनता बाहर बाट।।
लैकर चरखा चक्र को,प्रगटै मोहन आये।
राबन टेबल पै खड़े,दीन्हो चीर बढ़ाय।।
थकित चकित कुरू वंस के,करन लगे उपयोग।
गीता ज्ञान प्रमाण दै,समुझाये सब लोग।।
वीर जवाहर लाल जी,अर्जुन रूप सुजान।
खड़े युद्ध के हेत,सो भारत के मैदान।।
असहयोग हथयार लै,चरखा चक्र प्रधान।
सप्त क्षौहणी दल लिये,चाकर चतुर किसान।।
चैपाईः- धर्म युद्ध की कीन्हे बहु भाॅती। स्वयं सेवकन खोली पाती।
मोहन दल लूटो वरसाने। नमक खदान लूटी धरसाने।
मोहन की मुरली धुन बाजी। झंडा हाॅथन गहे सुराजी।
चक्र व्यूह गुय लाठ बनाई। कूटनीत की अनी सजाई।
श्री गणेश शंकर की भेरी। टूटी व्यूह लगी नहि देरी।
श्री गणेश अभिमनु गये मारे। करण कानपुर बीच सॅघारे।
अधरम युद्ध देख वरयाई। सर सय्या लइ बल्लभ भाई।
बाॅधी पाग द्रोण चिंतामन। वचन लेख सर लागे छांडन।
भीम मालवी गदा प्रहारा। किये छार सब वचन प्रहारा।
भयो युद्ध घमसान अपारा। आये काम वीर बहु वारा।
दोहाः- क्वाॅर सुदी येकादशी,बिन वारिध विन मेह।
गगन गिरा गंभीर भई,हरन शोक संदेह।।