श्री राधा बल्लभौ विजयतेmanmohan panday tikamgarh
स्मृति शेष पं. घनश्याम पाण्डेय सहित्य-भूषण
निवासी-ग्राम लहर,बिजावर छतरपुर (म.प्र.)
द्वारा विरचित
पाण्डेय मुहल्ला बिजावर जिला छतरपुर (म.प्र.)
(सर्वाधिकार-सुरक्षित)
दोहाः- भीम महाभारत कथा, जूय खेल बनवास।
कहों प्रथम अध्याय में, चीर हरण इतिहास।।
चैपाईः- प्रथम व्यास मुनि चरण मनाऊॅ। पुनि सुखदेव सूतजस गाऊॅ।।
अष्टादस पुराण जिन भाखे। आगम निगम सुगम कर राखे।
भारत बडों पुराण बखानों। भरे रहस्य अनेकन जानो।
कछु लै छांह ताह की भाई। भीम चरित यह लिखांे बनाई।
विनती सुक विनवौं कर जोरी। दूषण देख धरें नहि खोरी।
पिंगल अदिक कोश न जानो। चरित भीम को ललित बखानों।
भूलचूक देखहु कहुॅ संजा। लेहि सुधार सकल गुणकंजा।
दोहाः- गजपुर कहनी जानिये,कुरू वांसिन कौ बास।
दुर्योधन पांडव लडे, भारत मे इतिहास।।
धर्मराज कौ राज लख, दुर्योधन अनखाय।
भाॅत अनेकन दुख दिये, यदुपति करी सहाय।।
चैपाईः- कातिक मास दिवारी होई। पूजत रमा जगत सव कोई।
धर्मराज दुर्योधन खेलें। शकुनी करन भये सब मेले।
धर्मराज संपत सब हारे। बहुरे दाव न पाये सारे।
होनहार का भूप न जानी। धन सह राज हराई रानी।
शकुनी करन करे छल भारे। बोले धर्मराज तुम हारे।
धर्मराज उर लाज अपारी। वदी दाव पै दुपद कुमारी।
दोहाः- हॅस हॅस दुर्योधन कहै, धूसासन इत आव।
जाव वेग रनवास तुम, दुपदसुतै लैआव।।
चैपाईः- हुकुम पाय धूसासन वीरा। पहुॅचे वेग द्रौपदी तीरा।
जूय खेल की कही कहानी। हारे राज न्रपत महारानी।
दुर्याेधन न्रप तुम्हे बुलायो। चलों सवेग लिवावन आयो।
बोली द्रौपदी बाला। हॅसी करत कैसी तुम लाला।
सभा बीच कैसे हम जइये। गुरूजन देखत लाजन मरिये।
हम अबला परदा विच रहिये। कौरवपति सें जाकर कहिये।
करके गुसा दुसासन धायो। गहकर केश वाहि ले आयो।
सभा बीच रानी की वानी। बोलो दुर्योधन अभिमानी।
अब तुम भई हमारी रानी। बैठौ जाॅघ बनो पटरानी।
दौहाः- सभा बीच हॅसके कही, दुर्योधन जब बात।
द्रोण आदि भीषम पिता, बैठे अति सकुचात।।
चैपाईः- बोल न सकहिं नहिं भूप के डर संे। पांडव वीर मनहिं मन करसे।
दुर्योधन कह धूसासन सें। बसन हीन तन करौ जतन सै।
अथ भीम पुराण प्रथम खण्ड
मंगलाचरण
श्लोकः- ललित तिलकभालं, शुभ्र नेत्रम विशालं
ससि-मुख-छवि बालं,वेणु अधरं रसालं।।
तरूण तुलसि मालं,वृन्द वृन्दैक बालं।
वृजपति-नंदलालं,नौमि घनस्यामं लालं।।
महेश बंदनाः-
जयति जय महेशं,ज्ञान गम्यम सुरेशं। हिम गिरि सम गात्रम,पंच वक्त्रम त्रिनेत्रम्।।
मदन दहन कारी,शैलजा प्राण-प्यारी। भज मन सुखराशी,नौमि कैलाशवासी।।
कवित्वः- गणेश वंदनाः-
गिरजा के लाल भाल,तिलक विशाल,मुक्तन की माल,कंठ शोभित जू प्यारे के।
लम्बोदर एक दन्त,रिद्धि सिद्धि गुण भनंत। पावत न शेष अन्त,हरत क्लेश द्वारे के।
आनन गजानन के,माथें सिन्दूर लसै,जै गणेश विघ्रेश्वर,विघ्र हरण वारे के।
गाऊॅ घनस्याम,सुजस नाऊॅ सिर बार-बार,बन्दो पद-पंकज,महेश के दुलारे के।
दोहाः- श्री राधा-घनश्याम के,चरण कमल सिरनाय।
भारत-भीम-पुराण की,कथा कहांे सुख पाय।।
अथ भीम पुराण खंड प्रथम
रचयिता पं.श्री घनस्याम पाण्डेय
साहित्य-भूषण ग्राम लहर (बिजावर) जिला छतरपुर (म.प्र.)
अध्याय पृष्ठ विवरण
1. द्रौपदी-चीर-हरण-सभा पर्व
2. इन्द्र-सूर्य-वरदान-वनपर्व
3. छत्रसाल चरित्र
4. पाण्डवों का वन-विचरण वनपर्व
5. दुर्वासा एवं नहुष प्रसंग वनपर्व
6. भीमकुण्ड-इतिहास,बसंत,ग्रीष्म ऋतु वर्णन
7. भीमकुण्ड माहात्म्य गोविन्दाष्टक
8. भीमकुण्ड-स्थान वर्णन,सावंत सिंह का चैगान खेल
9. भीमकुण्ड-उत्पत्ति,वावन गंगा,जटाशंकर वर्णन
10. देवरा स्थित जुड़गुडू, जोगीडाबर,मामा भान्जे की कथा
11. सिद्दन की करतूत
जो नहि बैठहि जाॅघ हमारी। याकौ तन से करौ उघारी।
धूसासन तब पकरी सारी। पांचाली को करत उघारी।
बैठे वीर न कोऊ बोलै। बसन गाॅठ दूसासन खोले।
पत निरखत पत जात हमारी। बिलपत जैसे राजदुलारी।
चारहुॅ ओर द्रौपदी हेरी। जैसे गाय सिंह ने घेरी।
मृगी समीज दॅवार निहारी। बचा सके नहि प्राण विचारी।
दौहाः- अति व्याकुल भई द्रौपदी बहै द्रगन सों नीर।
करी गुहार पुकार कें। पत राखहु यदुवीर।
कवित्वः-
पाॅडव चुपसाध सीस नाय भूप बैठे सो,राजैं कुरूराज पास बैठे छत्र धारी जू।
निकसै ना बैंन नैन नीचे कर ताकैं महि,दूसासन जोरन सौं खैचे तन सारी जू।।
व्याकुल हो दीनहीन मीन ज्यों थोरे जल,कोई ना बचाय सकै अबला बिचारी जू।
कीजिये सहाय आय यदुनाथ घनस्याम,नेक अब सब भाॅत हो अनाथ हों तुम्हारी जू।।
दूसासन चीर-चीर माने नहि बेपीर,छूटें अब चीर वीर नीर तन भिंजै रही।
भूली सुध देह गेह नेह सों पुकार उठी,देखो मम ओर बेग बान वौ कितै रही।
देखे छवि धाम ओर द्रग अंचल जोर-जोर, कोऊना सहाय नाथ हाॅथ जोर कैं रही।
बिन ब्रजराज लाज राखै को आज मेरी,साड़ी की कोर पकर द्रोपदी चितै रही।
चैपाईः- सभा बीच द्रोपदी पुकारी। कीजै नाथ सहाय हमारी।
विपत न कोऊ सहाय हमारौ। विपत जाल से हमंे उबारौ।
तुमने कष्ट अनेकन टारे। भव निधि दुःख कूप से तारे।
श्रीपत राखहु लाज सुआमी। दीनबंधु हौ अंतरयामी।
दुर्योधन यह नीच हमारी। देखन चाहत बदन उघारी।
रोबत देख द्रौपदी रानी। डोल उठी धरती अकुलानी।
विन पग त्रान गरूड़ तज द्वारे। आये वेग द्वारका वारे।
दौहाः- करी सुरत सिसुपाल कौ, जब हम काटों सीस।
चक्रधार छिंगरी छुली,करी द्रौपदी बीस।।
चैपाईः- रूधिर देख सिगरी भई बौरी। पट कपड़ा लै लै सब दौरीं।
रूकमन आदि आठ पटरानी। लै लै आई घृत अरूपानी।
धजी गजी की कोउ लै धाई। लैन महीन भीतरै आई।
द्रपद सुता की सुन्दर सारी। सेत महीन रेसमी किनारी।
अमल कमल की बास बसाबै। रंग गुलाबी अति मन भावै।
अपने हाॅतन फारी सारी। दई लपैट अॅगुरिया धारी।
दोहाः- अंगुल भर फारी धजी,सारी फटी न सोय।
धरी धरोहर जानियौ,अदला बदली होय।।
स्मृति शेष पं. घनश्याम पाण्डेय सहित्य-भूषण
निवासी-ग्राम लहर,बिजावर छतरपुर (म.प्र.)
द्वारा विरचित
भीम पुराण (भाषा) 4 खण्डो मे।
प्रकाशकः- पं. मनमोहन पाण्डेय
एम.ए.बी. म्यूज वरिष्ट सहित्यकार,संगीतकार एवं शायरपाण्डेय मुहल्ला बिजावर जिला छतरपुर (म.प्र.)
(सर्वाधिकार-सुरक्षित)
दोहाः- भीम महाभारत कथा, जूय खेल बनवास।
कहों प्रथम अध्याय में, चीर हरण इतिहास।।
चैपाईः- प्रथम व्यास मुनि चरण मनाऊॅ। पुनि सुखदेव सूतजस गाऊॅ।।
अष्टादस पुराण जिन भाखे। आगम निगम सुगम कर राखे।
भारत बडों पुराण बखानों। भरे रहस्य अनेकन जानो।
कछु लै छांह ताह की भाई। भीम चरित यह लिखांे बनाई।
विनती सुक विनवौं कर जोरी। दूषण देख धरें नहि खोरी।
पिंगल अदिक कोश न जानो। चरित भीम को ललित बखानों।
भूलचूक देखहु कहुॅ संजा। लेहि सुधार सकल गुणकंजा।
दोहाः- गजपुर कहनी जानिये,कुरू वांसिन कौ बास।
दुर्योधन पांडव लडे, भारत मे इतिहास।।
धर्मराज कौ राज लख, दुर्योधन अनखाय।
भाॅत अनेकन दुख दिये, यदुपति करी सहाय।।
चैपाईः- कातिक मास दिवारी होई। पूजत रमा जगत सव कोई।
धर्मराज दुर्योधन खेलें। शकुनी करन भये सब मेले।
धर्मराज संपत सब हारे। बहुरे दाव न पाये सारे।
होनहार का भूप न जानी। धन सह राज हराई रानी।
शकुनी करन करे छल भारे। बोले धर्मराज तुम हारे।
धर्मराज उर लाज अपारी। वदी दाव पै दुपद कुमारी।
दोहाः- हॅस हॅस दुर्योधन कहै, धूसासन इत आव।
जाव वेग रनवास तुम, दुपदसुतै लैआव।।
चैपाईः- हुकुम पाय धूसासन वीरा। पहुॅचे वेग द्रौपदी तीरा।
जूय खेल की कही कहानी। हारे राज न्रपत महारानी।
दुर्याेधन न्रप तुम्हे बुलायो। चलों सवेग लिवावन आयो।
बोली द्रौपदी बाला। हॅसी करत कैसी तुम लाला।
सभा बीच कैसे हम जइये। गुरूजन देखत लाजन मरिये।
हम अबला परदा विच रहिये। कौरवपति सें जाकर कहिये।
करके गुसा दुसासन धायो। गहकर केश वाहि ले आयो।
सभा बीच रानी की वानी। बोलो दुर्योधन अभिमानी।
अब तुम भई हमारी रानी। बैठौ जाॅघ बनो पटरानी।
दौहाः- सभा बीच हॅसके कही, दुर्योधन जब बात।
द्रोण आदि भीषम पिता, बैठे अति सकुचात।।
चैपाईः- बोल न सकहिं नहिं भूप के डर संे। पांडव वीर मनहिं मन करसे।
दुर्योधन कह धूसासन सें। बसन हीन तन करौ जतन सै।
अथ भीम पुराण प्रथम खण्ड
मंगलाचरण
श्लोकः- ललित तिलकभालं, शुभ्र नेत्रम विशालं
ससि-मुख-छवि बालं,वेणु अधरं रसालं।।
तरूण तुलसि मालं,वृन्द वृन्दैक बालं।
वृजपति-नंदलालं,नौमि घनस्यामं लालं।।
महेश बंदनाः-
जयति जय महेशं,ज्ञान गम्यम सुरेशं। हिम गिरि सम गात्रम,पंच वक्त्रम त्रिनेत्रम्।।
मदन दहन कारी,शैलजा प्राण-प्यारी। भज मन सुखराशी,नौमि कैलाशवासी।।
कवित्वः- गणेश वंदनाः-
गिरजा के लाल भाल,तिलक विशाल,मुक्तन की माल,कंठ शोभित जू प्यारे के।
लम्बोदर एक दन्त,रिद्धि सिद्धि गुण भनंत। पावत न शेष अन्त,हरत क्लेश द्वारे के।
आनन गजानन के,माथें सिन्दूर लसै,जै गणेश विघ्रेश्वर,विघ्र हरण वारे के।
गाऊॅ घनस्याम,सुजस नाऊॅ सिर बार-बार,बन्दो पद-पंकज,महेश के दुलारे के।
दोहाः- श्री राधा-घनश्याम के,चरण कमल सिरनाय।
भारत-भीम-पुराण की,कथा कहांे सुख पाय।।
अथ भीम पुराण खंड प्रथम
रचयिता पं.श्री घनस्याम पाण्डेय
साहित्य-भूषण ग्राम लहर (बिजावर) जिला छतरपुर (म.प्र.)
अध्याय पृष्ठ विवरण
1. द्रौपदी-चीर-हरण-सभा पर्व
2. इन्द्र-सूर्य-वरदान-वनपर्व
3. छत्रसाल चरित्र
4. पाण्डवों का वन-विचरण वनपर्व
5. दुर्वासा एवं नहुष प्रसंग वनपर्व
6. भीमकुण्ड-इतिहास,बसंत,ग्रीष्म ऋतु वर्णन
7. भीमकुण्ड माहात्म्य गोविन्दाष्टक
8. भीमकुण्ड-स्थान वर्णन,सावंत सिंह का चैगान खेल
9. भीमकुण्ड-उत्पत्ति,वावन गंगा,जटाशंकर वर्णन
10. देवरा स्थित जुड़गुडू, जोगीडाबर,मामा भान्जे की कथा
11. सिद्दन की करतूत
जो नहि बैठहि जाॅघ हमारी। याकौ तन से करौ उघारी।
धूसासन तब पकरी सारी। पांचाली को करत उघारी।
बैठे वीर न कोऊ बोलै। बसन गाॅठ दूसासन खोले।
पत निरखत पत जात हमारी। बिलपत जैसे राजदुलारी।
चारहुॅ ओर द्रौपदी हेरी। जैसे गाय सिंह ने घेरी।
मृगी समीज दॅवार निहारी। बचा सके नहि प्राण विचारी।
दौहाः- अति व्याकुल भई द्रौपदी बहै द्रगन सों नीर।
करी गुहार पुकार कें। पत राखहु यदुवीर।
कवित्वः-
पाॅडव चुपसाध सीस नाय भूप बैठे सो,राजैं कुरूराज पास बैठे छत्र धारी जू।
निकसै ना बैंन नैन नीचे कर ताकैं महि,दूसासन जोरन सौं खैचे तन सारी जू।।
व्याकुल हो दीनहीन मीन ज्यों थोरे जल,कोई ना बचाय सकै अबला बिचारी जू।
कीजिये सहाय आय यदुनाथ घनस्याम,नेक अब सब भाॅत हो अनाथ हों तुम्हारी जू।।
दूसासन चीर-चीर माने नहि बेपीर,छूटें अब चीर वीर नीर तन भिंजै रही।
भूली सुध देह गेह नेह सों पुकार उठी,देखो मम ओर बेग बान वौ कितै रही।
देखे छवि धाम ओर द्रग अंचल जोर-जोर, कोऊना सहाय नाथ हाॅथ जोर कैं रही।
बिन ब्रजराज लाज राखै को आज मेरी,साड़ी की कोर पकर द्रोपदी चितै रही।
चैपाईः- सभा बीच द्रोपदी पुकारी। कीजै नाथ सहाय हमारी।
विपत न कोऊ सहाय हमारौ। विपत जाल से हमंे उबारौ।
तुमने कष्ट अनेकन टारे। भव निधि दुःख कूप से तारे।
श्रीपत राखहु लाज सुआमी। दीनबंधु हौ अंतरयामी।
दुर्योधन यह नीच हमारी। देखन चाहत बदन उघारी।
रोबत देख द्रौपदी रानी। डोल उठी धरती अकुलानी।
विन पग त्रान गरूड़ तज द्वारे। आये वेग द्वारका वारे।
दौहाः- करी सुरत सिसुपाल कौ, जब हम काटों सीस।
चक्रधार छिंगरी छुली,करी द्रौपदी बीस।।
चैपाईः- रूधिर देख सिगरी भई बौरी। पट कपड़ा लै लै सब दौरीं।
रूकमन आदि आठ पटरानी। लै लै आई घृत अरूपानी।
धजी गजी की कोउ लै धाई। लैन महीन भीतरै आई।
द्रपद सुता की सुन्दर सारी। सेत महीन रेसमी किनारी।
अमल कमल की बास बसाबै। रंग गुलाबी अति मन भावै।
अपने हाॅतन फारी सारी। दई लपैट अॅगुरिया धारी।
दोहाः- अंगुल भर फारी धजी,सारी फटी न सोय।
धरी धरोहर जानियौ,अदला बदली होय।।
चैपाईः- तहाॅ चित्ररथ रह गंधर्वा। कीड़ा करै केल रस गर्वा।
संग लिये युवती रस रंगा। रहीं किन्नरीं ताके संगा।
दुर्योधन कीन्हों रस भंगा। पहुॅचो वहाॅ सेन के संगा।
कियो क्रोध गंधर्व अपारा। दुर्योधन बाॅधो वरयारा।
कर्ण आदि सब वीर परानै। देख चित्ररथ-बल भय मानै।
आज्ञा धर्मराज की पाई। पारथ कुरूपति लियो छुड़ाई।
लज्यावश सो भयो नरेशा। कुरूपति गवन कियो निज देशा।
जयद्रथ हरी द्रोपदी रानी। भारत में सो विदित कहानी।
दोहाः- रिष मुन दुजवर पांडु सुत, रहे द्रोपदी संग।
अब आगे वर्णन करत सुनिये कथा प्रसंग।।
चित्रकोट चिंता-हरण आये पुनः महराज।
विंध्याचल के सघन वन, देखी संत समाज।।
फाटिक शिला देखी नृपत, देख जानकी कुंड।
अनुसुइया आश्रम गये, लख विराध बिन मुंड।।
चैपाईः- ते बिचरत कालींजर आये। नीलकंठ के दर्शन पाये।
पथरीलौ वन अति गंभीरा। गिरवन सघन सुभग सरि तीरा।
कछुक दिनन बस कीन पयाना। दंडक वन गिरि कंदर नाना।
वन प्रदेश अति सुंदर देखे। चरण पादुका निरख अलेखे।
सारंगधर पुति जाय निहारे। रामकुंड लख भये सुखारे।
सारंगधर ब्राजे रघुराई। ता मूरत लख गये भुलाये।
कदली वन अति सघन सुहाये। कोहिल देख रसाल लुभाये।
बोलत कीर कोकिला बानी। महक मधूक मृगी भरमानी।
राम कुंड के निर्मल नीरा। झिरना झिरत शैल गंभीरा।
तहॅ संतन के बने अखाड़े। पंच मुखी पवनात्मज ठांडे़।
शैल विशाल वहें नद नारे। एक टक मनहुॅ स्वेत छवि धारे।
झिरत झील झिर झिरना पानी। हरित भूम दुर्वा मुस्क्यानी।
जन सुहाग पर परी नजरिया। गोधन बगरे बगर हजरिया।
आये ग्राम सुतीक्षण केरा। जाके हृदय राम कौ डेरा।
दोहाः- रामकुंड पर ब्राज प्रभु, धरे राम के ध्यान।
सारंगधर को वर दिया, सारंगधर भगवान।।
इति श्री भीम पुराणे महाभारर्तान्र्गते वन पर्वणे नाम द्वितीयोध्याय शुभमः-2
दोहाः- कहों त्रतिय अध्याय में, परना कौ इतहास।
छत्रसाल कौ हाल सब,लिखहों सहित हुलास।।
चैपाईः- बसन रूप धर बसन समाने। धरनी डरे बसन मनमाने।
तार कतार तार ना टूटै। धूसासन कर बसन न छूटै।
धूसासन बलकर कर भारी। खेंचत चीर न मानत हारी।
झटका दोउ हाॅत के देवें। बीस हाॅत लौ लटका लेवैं।
दस हजार गज के बल हारे। दस गज चीर न वीर उघारे।
ढेर लगे अम्वर के भारी। दूसासन मन मानी हारी।
महिं धर खींच नीच भय मानी। दुर्योधन पुन फेरोपानी।
दोहाः- चोर-चोर बनितान के, चीर चुराये नाथ।
जोर-जोर अम्बर दिये, कम्मर तजै न साथ।।
विपद विदारण भय हरण,आकर करी सहाय।
दीनदयाल दयाल हरि,अम्बर रहे समाय।।
बसन बसेरौं हरि कियों,चढे़ पाॅच उरथान।
निकट न आवत छोर लख, निकसे एक प्रमान।।
दसों दिसा काॅपन लगी,धरनी-धरनी शेष।
काॅपी धरनी देख अति,देख द्रौपदी भेष।।
चैपाईः- द्रोपदी क्रोध भयो जिम काली। अरूण नयन बोली पंचाली।
भये क्रुद्ध अर्जुन धनुधारी। भीमसेन कर गदा समारी।
क्रोधित भये नकुल सहदेवा। भये सजग सुमरे निजदेवा।
भाॅत अनेक मात समझावें।राजनीत की बात बतावे।
अतिसय क्रोध पांडु सुत बोले। हृद अंतर के परदा खोले।
बन सें बहुर लौट जब आऊॅ। धूसासन के रूधिर नहाऊॅ।
बोले भीम क्रोध कर भारी। दुर्योधन सुन बात हमारी।
टूटै टाॅग युद्ध में तेरी। पूरण होय प्रतिज्ञा मेरी।
अर्जुन कहत आजप्रण धारों। शकुनी करन खेत हन मारों।
दोहाः- नकुल और सहदेव ने, यही प्रतिज्ञा कीन।
संग द्रोपदी वीर सब, पंथ विपिन की लीन।।
धौम्य पुरोहित सॅग चले, बन्दी विप्रसमाज।
गंगा तट पर निकट बस, काम्यक वन कुरूराज।।
इति श्री भीम पुराणें श्री महाभारतांतर्गते द्रोपदी चीर हरण नामे प्रथमोध्याय शुभम?
दोहाः- दियो दुतिय अध्याय म,ें इन्द्र सूर्य वरदान।
यथा कथा वन पर्व में, सो सब कहों बखान।।
चैपाईः- दुर्वासा कुरू राज पठाये। साठ सहस मुनि संग लिआये।
ब्राह्मण भोजन सदा करावें। पुनि पीछे निज भोग लगावे।
दानवीर की कीरत करनी। भूसुर बृन्द अनेकन वरनी।
ब्रह्म मंडली नित तहॅ आवै। प्रतिदिन इच्छित भोजन पावै।
वन में भोजन की नहिं सामा। एक रसौन द्रोपदी नामा।
धौम्य पुरोहित मंत्र सिखाओ। सूर्य देव के सम्मुख जाओ।
अस्तुत सूर्य देव की ठानी। गंगातीर सुनाइ कहानी।
अस्तुति छंदः-
नमानी सुरेशं दिनेशं प्रकाशं। नमामी ग्रहेशं कलेशं विनाशं।
त्रिलोकं विशोकं करं लोक नेत्रं। जगतप्राणं प्राणं प्रमासं दिनेशं।
स्वतेजं स्वरूपं हरं दीद्र्य रोगं। हरं अंधकारं भवं वीर भीरं।
जगत पाल पालं महाकाल कालं। नमामी कृपालं दयालं दयालं।
प्रचंडं महातेज तापं प्रतापं। विभुं नायकं नाथ नाथं दयालं।
जीवन प्रदाता प्रदाता तमारी। कृषी पाल रक्षां नमामी नमामी।
चैपाईः- सुन तेहि भये प्रसन्न तमारी। दई आय रवि भोजन थारी।
जा में भोजन परसें जबलौं। न्यून तनक नहि होवै तबलौ।
तहॅ मुनि वृृन्द संग कछु काला। वन बन वास कियो महिपाला।
लखो जंगलिक देस पॅचाला। देस विदेस विदर्भ जु आला।
दोहाः- चार धाम तीरथ सकल, संयम नेम उपास।
धर्मराज ने सब करे, भारत मे इतहास।।
चैपाईः- नैमिषार के दर्सन कीन्हे। विविधदान महि देवन दीन्हे।
गया पिंड पुरखन के पारे। भवसागर सें पार उतारे।
काशी दरस प्रयाग नहाये। तीर्थ राज संगम फिर आये।
वेणी माधव के पद बन्दे। चित्रकूट पर चले अनंदे।
संयम नियम करे कुरूवीरा। करवी ग्राम बसो सर तीरा।
राम विहार भूम थल देखे। विगत विषाद भये श्रम लेखे।
दक्षिण देश सिंधु के तीरा। तीरथ अवलोके कुरू वीरा।
धौम्य पुरोहित सकल कराये। भूप युधिष्टिर विप्र जिमाये।
चार पदारथ के फल पावें। तीरथ की महिमा गुन गावें।
दोहाः- भारत के वन पर्व में, लिखे नाम अरू ग्राम।
तासें आगे कहत हों,बसे रहे येहि ठाम।।
छन्दः- विनय सुनों जगदीश कृपा कर मेरी।
मुखड़े की दिन रैन रहे झूलत छवि तेरी।।
सदा सुखी विचरों तट सागर की जल ढेरी।
निज मंदर की सिल होवं कै होवं द्वार की देरी।।
दोहाः- कर दर्शन बहुरे बहुर, काम्यक बन के माह।
खोज करन तिनकी चले, दुर्योधन नर-नाह।।
चैपाईः- आगे चले बहुरं धनुधारी। आकर परनापुरी निहारी।
हीरा खान जान सब कोई। पदमावती पुरी यह सोई।
जन्मी पद्यावती यहाॅ हीं। भीम सिंह नरपत को व्याही।
भूप अमान सिंह के शाके। गावत नट मागध कवि जाके।
चित्र कोट गिर की परकरमा। वनवाई न्रप लख निज धर्मा।
हिन्दू पत की कौन बड़ाई। यमनशाह सें लई लड़ाई।
चंपतरा बाॅधी मरयादा। जिनके बल विक्रम नहि बाधा।
यमन कटक जब करी चढाई। वीर वीरता प्रगट दिखाई।
गर्भवती जिनकी प्रिय रानी। श्वान भूपसंग रहो निशानी।
चढ़े टौरिया सिखर अकेले। उभय जीउ कंधाधर झेले।
छंैकी फौज पहरिया जबहीं। लाॅघ दूसरी पर गये तब ही।
भूप रूप तब अपन दुरावा। पीछे फिरे यमन कर धावा।
दोहाः- कछरा बाॅकी के निकट, विकट डंगाई देख।
ऊमरगोंदी झील की झिरिया बनी विसेख।।
सोरठा कछु दिन कियो निवास,निर्भै देखी खोहिया।
चंपतराई तासु, परोनाम शुभ भूम कौ।।
दोहाः- ऐरोरा रतुवा निकट, भरका विकट अनेक।
चंपतरा पहुॅचे वहाॅ, मिले विप्रवर येक।।
चैपाईः- भूपत हाल सुनाये अपने। दुजवर देख रहे ज्यों सपने।
तुरत झोपड़ा खाली कीन्हों। डेरा वहाॅ भूप कौ दीन्हों।
श्वान करै रानी रखवारी। भूप किसान लगावहिं वारी।
रहे चार भ्राता अलबेले। तिनमें व्याह येक अकेले।
बसहि येक ग्रह में सुख पाई। खेती जिनकंे रही कमाई।
पंचम भ्रात भये श्रम हेती। काटहिं पांचहु भैया खेती।
उतर सवार यमन के आये। भूप रूप लख हिय धुकयाये।
सैनक सैन दई हंस बोले। चंपतरा सुगना भये डोले।
यह को तुम संग काटन हारे। इनके भेद बता देव सारे।
हैं हम पाॅच सहो दर भाई। फकत येक की भई सगाई।
और न हमरे जोरू जांतौ। मानत येक खुदा सों नातौ।
तब सैनक बोले मुसक्याई। करिये भोजन इक संग भाई
सांचीबात तुम्हारी मानंे। पकर न लेहि विना पहचानंे।
दोहाः- हॅसिया डारो खेत में, कर रतुआ असनान।
सैनक सॅग भोजन करन पाॅचउ चले किसान।।
कुंडलियाः- भारत के जो राष्ट्रपति, श्री राजेन्द्र प्रसाद।
छत्रसाल की मूर्ति की, करी थापना आद।।
करी थापना आद स्वयं महराज बुलाये।
यादवेन्द्र के लाल बुॅन्देलन के मन भाये।।
वरने दुज घनश्याम पिता लखि मन कारत के।
धन राजेन्द्र प्रसाद राष्ट्रपति तुम भारत के।।
इति श्री भीम पुराणे श्रीमहाभारतान्तर्गत कथा वन पर्वणो छत्रसाल चरित्र इतहास कथनो नाम त्रतीयाध्यायः 3 शुभम
दोहाः- अब चैथे अध्याय में, कैहों कथा विचित्र।
जिहिं वन बिचरे पान्डु, सुत नाना भाॅत चरित्र।।
चैपाईः- वन सोभा देखत रणधीरा। पहॅुचे निकट क्यान के तीरा।
वर्षा रितु घनश्याम सुहाये। उमड़ घुमड़ गर्जे नभ छाये।
दिन को करहि रैन अॅधयारी। चमकत चपला वर्षत वारी।
लता ललित विटपन लपटानी। सरित सरोवर झीलन पानी।
मोर सोर घनघोर करें जू। जोर-जोर मुख हिरन लरें जू।
झीलन झीगुुंर की झन कारें। लखियत चारहु ओर बहारंे।
हरे भरे वन वन हार पहारा। नारे नदी न दैत करारा।
कवित्वः-
कारे-कारे बादर डरावने प्रचंड मेघ, नवोखंड मंडल पै सूर चढ़ धाये है।
दामिन की तेग लिये इन्द्रधनु चाप हाथ, बॅूदन के जाल घने बाण झर लाये है।
झिल्ली पिक दादुर सुक मोर बोलें, कोकिला चात्रक चकोर मिल बंदी गुण गाये है।
घन की धमक घोर टंकारे घटा बीच, देख-देख वीर ये अषाड़ राज आये है।
झिल्ली झनकारे पिक दादुर पुकारै वीर, नाचती बधाई सिखि पंखन पसारेरी।
झुम झुक लपटी कदंवन सों हरीबेल, कुसुमित म्रदु कंज देख भोंरा गुंजारेंरी।
झप-झप आबंे घनस्याम घने घूम-घूम, पवन झकोरें घन घोंरे जल धारेंरी।
चमक-चमक दामिन लै पावस पुजेरू मनोे, लवक-लवक सावन की आरती उतारेरी।
छन्दः- घोर गर्जे घन घटा घन बादरे छाये घने।
धूम धूसर रंग के आकाश के तम्बू तने।
मोर सब्जी फर्स पर क्या नाचते देखो अहा।
झील झीगंुर शब्द करते गीत पक्षी चहचहा।
लहलहीं लहराय लागीं दुमन बेली झूरतीं।
प्राण प्रीतम गले लग-लग भुजन भर-भर झुमतीं।
गड़ गडाबै तड़ तडावै झमक दमकै दामनी।
चढ़ अटा पर छटा देखै झमक चमकै कामनी।
चैपाईः- भावी परसी थार रसोई। वरनन करहुॅ सुनहु सब कोई।
दर भजिया सकसा की भाजी। नौन मिरच कछयाऊ साजी।
कुटकी अरू कोदन की रोटी। हथपउ बड़ी न पतरी मोटी।
कुदईदार की कर कालोनी। कैथां की चटनी अति नौनी।
चारक बूॅद घीउ के डारे। चुरूअक दूध कुदई संग न्यारे।
डेड़ सेर के ढेर लगाये। कुदई मठा सन गंज भराये।
चार चार रोटी फटकारीं। सैमन की परसी तरकारी।
कड़ी बरी लखं लार चुचावै। ऐसौ लगै उठा सब खावै।
तिथि तेवहारन जवा-पिसी की। रोटी मिल है भाग किसी की।
टाठी परस धरी भौजाई। घॅूघट कर बोली मुस्क्याई।
जे पांचय को तुम संग लाला। इनके कहिये पूरन हाला।
बोल उठे न्रप चतुर सुजाना। अब लग भावी रहीं अजाना।
हॅसी न कर ऐसी भौजाई। जामें प्राण जाॅय वर याई।
भोजन येक संग पुन कीन्हंे। पर गये सैनक बदन मलीने।
दोहाः- चतुर चार चरवर गये, अपने-अपने देश।
सह रानी परना गये, धीर-वीर-हृदयेश।।
चैपाईः- रजधानी भूपत जब आये। ऐरौरा के विप्र बुलाये।
ऐरौरा की सनद लिखाई। इष्ट मुरारी दियो लगाई।
बासौ की साटन नक्कासी। मुरलीधर ऐरोरा वासी।
ताम्रपत्र पर सनद खुदाई। गो-सूकर की आन लिखाई।
विद्यमान सो अब लग भाई। दुवे वंस की बनी सवाई।
पतिव्रता रानी कंे बालक। प्रगटे छत्रसाल कुल-पालक।
होन हार बालक के लक्ष्ण। जन्म कुंडली बनी विलक्षण।
छत्रसाल जब भये नरेसा। फिरी दुहाई चारउॅ देशा।
वीर-धीर-रणधीर सुजाना। समर कमर कस कीन्हे नाना।
इक दिन मृगया हैत भुलाने। कुड़ियन ऊपर संत दिखाने
लये हाथ कोदन की रोटी। चक्राकार न मोटी छोटी।
दैन लगे भूपत को सादर। लई न बैठ गये कर आदर।
प्राणनाथ आधी कर दीन्ही। ग्लान मान भूपत नहिं लीन्ही।
आधी की आधी चैथाई। लई भूप सो सीस चढ़ाई।
प्राणनाथ बोले हॅस वानी। महिमा लखी न रोटी लानी।
संपूरण रोटी लै लेते। धरनी-धर धरनी सब देते।
आधी लई न आधी पाई। अब तुम न्रपत लई चैथाई।
चैथाई महि भई तुम्हारी। पुन असीस अब लेहु हमारी।
दोहाः- छत्ता तेरे राज्य मे धक-धक धरती होय।
जित-जित घोड़ा मुख करै तित-तित फत्तै होय।।
चैपाईः- न्र्रप तुम अब दौड़ाऔ धोरौ। देखो बहुर न कम्मर छोरौ।
जहॅ-जहॅ अश्व फिरहि रणधीरा। तहॅ-तहॅ महि महॅ प्रगटहिं हीरा।
समर भूम यमनेश्वर जीतौ। जैसें खून ख्वार हो तीतौ।
आशिर्बाद सुनो न्रप जबहीं। दौड़ायो घोड़ा को तबहीं।
अवनि खोद हीरा ढॅुढवाये। मोल अमोलन के बहु पाये।
प्राणनाथ जी के शुभ मंदिर। बनवा दये भूप अति सुन्दर।
धवल धाम सुन्दर सत खंडा। कंचन कलस फहर रहे झंडा।
भई बुॅदेलखंड रज धानी। वीर बुॅदेला बनी निशानी।
कलकत्ता पत्ता सम डोलै। दिल्ली खील न बिल्ली खौलै।
आलमगीर खबर सुन पाई। तब परना पर करी चढ़ाई।
छल बल कर जे तके डॅगाई। अनी जुरें कहुॅ परै लराई।
औरंगा नौरंगा कीन्है। अपने राज सत्रु सन छीने।
छत्रसाल छत्ता छित छाये। केतु समान केतु फहराये।
कॅधा दये शिविका भूषण के। सुयश कहे कवि नर भूषण के।
प्राणनाथ गुरू सेवा पाये। छत्रसाल सिर छत्र धराये।
चैथे भाग भूम न्रप भोगी। युद्ध कुद्ध से भयै वियोगी।
अबै मुकरवा बने निशानी। नगर महेबा की राजधानी
प्राणनाथ शुभ ग्रन्थ बनायो। ताकौ कुलजम नाम धरायो।
कुलजम ग्रन्थ कियौ निर्माणा। लिखे रहस्य अनेक विधाना।
धामी येक समाज बनाई। संत ग्रंथ की प्रथा चलाई।
दोहाः- खान पान सब येक है, दान मान सब येक।
धर्म कर्म सब येक है, देखै मते अनेक।।
चैपाईः- अब सोई विदयमान है मंदर। पुस्तक की पूजा अति सुंदर।
रतनपुरी से धामी आबै। नितनये उत्सव वहाॅ करावै।
मंदर बनौ देखने जोगू। देखत खुसी होहिं सब लोगू।
छत्रसाल हके बंसज राजा। भये अनैक करे शुभ काजा।
बलदाऊ कौ मंदर देखो। अपर न देसहु करहु न लेखो।
जुगलकिशोर झरोखन झांकी। स्वामी जू की मूरत बाॅकी।
रथ यात्रा भूपत कर वाये। आप ग्रंथ रथ जोत चलाये।
स्वच्छ सरोवर इन्द्रदमन से। कंज विकास प्रकास सुमन से।
जनकपुरी जन जाय सवारी। लक्ष्मीपुर की सोभा न्यारी।
दोहाः- तुगयानी पानी अगम, डूबी डरी कगार।
नांव गांव नहि देखिये, पार न धार अपार।।
चैपाईः- पाॅडव हाथ जोर वरमांगें। क्यान जान देवै नहिं आगे।
जल चादर बादर सी ताने। तरूवर जात फेन उतराने।
मगर मच्छ अहि कच्छ हिलोरें। केन देत झोकन झोरे।
घर घरात गर्जे घन भारी। जोर सोर सों वर्षाहि वारी।
कोप क्यान कीन्ही गर्जानी। येकादस सरिता रिस ठानी।
तब अति कोप कियो हिय राजा। धनुष वान कर लैकर साजा।
भीमसेन कर गदा उठाई। रोकी क्यान धार वरआई।
दोहाः- देख वीर भय मान हिय,फोर शैल कर गैल।
गई पैठ पाताल पुन, भई प्रगट गई फैल।।
पवन तनय की हाॅक सुन,तुर्रा गओ सब भूल।
घाट पाट तुर्रा भयौ मिले, वहाॅ दोई कूल।।
चैपाईः- बॅदर कूॅदनी धार समानी। मानी हार उतर गयो पानी।
कियो वहाॅ पांडव अस्थाना। मकर पर्व के हैं असनाना।
गाॅव बसायो जग हित होई। पंडवन गाॅव नाॅव है सोई।
उत सों न्रप खजरीवन आये। रूद्र यज्ञ मुनवर कर वाये।
प्रगट मतंगेश्वर भये दानी। काली अरू देवता देवतानी।
अर्जुन सखा अंजनी जाये। रक्षा हेतु यज्ञ की आये।
पारस नाथ आद केे मंदर। जैनन बनवाये पुन संुदर।
सिला कला की अदभुत सोभा। देखत सिलाकार मन लोभा।
खजराहो के विवरण भाई। आगे कहब पूर्ण दरसाई।
कछु प्रसंग बस यहाॅ बखानों। पुन कैन्हो इतहास पुरानो।
उतसें चले शाल वन आये। शैल विशाल देख मन भाये।
झिरना झिरत झील है भारी। तहाॅ केतकी लगी अपारी।
विटप अचार मधूक पियारे। फूले फूल हरीरे चारे।
काॅस विकास प्रकास स्ववासा। शरद चाॅदनी विमल प्रकासा।
कुसुमित वन निर्मल जल सरिता। सुखीमीन लख खग मृग भरता।
दोहाः- स्वच्छ नीर पंकज कुमुद,उडगण चन्द अकास।
शरद पाये विकसत भये, हरी दरस हरि दास।।
कवित्वः- फूले आस-पास काॅस विमल अकास भयो,
फेन की समान सेज चाॅदनी बिछाई है।
खंजन नकीब आय गरदकरी गरदा की,
बंदी जन भ्रंग वन कीरत सु गाई है।
सुदिन विचार डार भुव आसन। सुरत लगाय बैठ कमला आसन।
यह दोहा लिख पहुॅचायो। पढ़कर भूप बाज सज धायो।
दोहाः- सब सेना जुर आईयौं। तनक न कीजो देर।
रामलला की देह सों, परन चहत अब फेर।।
गुरू ने लई समाध पुन, तुम्है बुलाओ आज।
मध्य दिवस सुन चर वचन,भूप सजायो बाज।।
चैपाईः- झपटो बाज बाज की र्नाइं। फरकी आॅख न्रपत की बांई।
सप्तकोस है ग्राम सलैया। दर्शन गुरू मिलहें किन दैया।
पहॅुचे भूपत तीन बजे है। गुरू अरथी के साज सजे है।
सुन सम्वाद भूप दुख पाये। गुरू अरथी को कंधा लगाये।
ऐसे गुरू होवें विज्ञानी। शिष्य अधम मव तारत प्रानी।
गोविन्द से गुरू के पद भारी। गुरू गोविन्द सें करत चिन्हारी।
सतगुरू चरणन की बलहारी। भक्तराज भूपत की प्यारी।
दूध भात कौ सु जानो। समलला सतगुरू न्रप मानो।
दोहाः- धर्मराज तज शाल वन, कीन्हो नमन बहौंर।
नारायण के ध्यान धर,अस्तुति करहिं निहोर।।
छन्दः- जय कृष्ण चन्द्र मुकुन्द माधव श्याम घन तन सुन्दरम्।
जय प्राणपत ब्रजपत रमापत ज्ञान घन छव मन्दरम्।
जय दीनबन्धु दयाल दाता दुष्ट दल खल खंडनम्।
जगदीश ईश नमामि केशौ संत जन मुनि मंडनम्।
जय गोपिका बल्लभ हरी जय कंस वंस निकंदनम्।
गोविन्द गोकुल वृंद आनॅद कंद बसुदेव नंदनम्।
जय दीन दुख भंजन प्रभू गह बाॅह नाथ उवारिये।
घनश्याम दर्शन दीजिये घनस्याम शोक निवारिये।
चैपाईः- भूप ध्यान यदुपत के कीन्हे। सुमरत ही हरि दर्शन दीन्हे।
तन घनस्याम नैन रतनारे। चारू चार भुज आयुध धारे।
क्रीट मुकट सिर कुंडल कानन। कोटिन रवि सम झलकत आनन।
पीताम्वर दामिन से दमकें। नूपुर पदम पदम के झलकें।
उर भ्रगुलता विराजत नौनी। तुलसीमाल विशाल सलौनी।
तिलक ललित केसर की खौरी। अलक फलक लख ललके मौंरी।
सुख दुख की न्रप कही कहानी। तब हॅस बोले प्रभु मृदु वानी।
राजन द्वादस वर्ष वितैये। वर्ष त्रयोदश कौं सुन लैये।
दोहाः- दुख सुख येक समान लख, करिये अवध व्यतीत।
खल दल बल संहार पुन, लइये भारत जीत।।
हीरन के हार शुभ्र सारी घनसार धारे,
चन्द्रका लिलार माॅग मुकतन सजाई है।
बैठी जनु न्हाई सी जुन्हाई मैं दुहाई देत,
आई रितुरानी बन शरद सुहाई है।
(2) चारू चन्द्र चाॅदनी में चाॅदनी बिछाई ’’दुज’’,
चाॅदनी के चैक मैं सु चाॅदनी तनाई है।
चन्द्रका जराव शीस चन्द्रमुखी राज रही,
चन्द्रहार चंदन की नीकी छब छाई है।
चूनरी दुचंद चंद चादर मिल येक चन्द्र,
चम्मीकर देह संग दूनी छित पाई है।
चाॅदी के धार मंे सु आरती सितारन की,
चन्द्र चूड़ पूजै मनो शरद जुन्हाई है।
(3) सुंदर अलबेली कै नबेली है चमेली की,
लतिका कै कुन्द की सु मेरे मन आई है।
हीरन के हार स्वेत सारी मे सोहत यों,
तारागण अंबर मे जैसी छब छाई है।
सजल सनाल माल मुक्तन की कंज मंजु,
मानो निशिनाथ माथ मेलत जुन्हाई है।
आगरी उजागरी सुभाग भरी भाये ’’दुज’’,
नागरी अनूप रूप शरद सुहाई है।
छन्दः- उदयाचल से उदैनाथ जब अस्ताचल को आ जाते,
उसी समय निशिनाथ कलाधर कला अनोखी दिख लाते।
तारागण की चमक दमक से सोभायुत नम मंडल है,
रत्नाकर सागर ने खोला रत्नमई क्या वंडल है।
सीतल मंद सुगंध वायु ने ज्यों शरीर स्पर्स किया,
मनहुॅ विरहनी रजनी सजनी प्रेम संदेसा हर्ष दिया।
सरिता तट वट वृन्द छहेलन पक्षी कलरव करते है,
ईश भजन अनुरक्त भक्त गन संध्योपासन करते है।
गाॅय रम्हातीं वन से आतीं श्रवत क्षीर जिनके थन से,
परमारथ होता है जैसे धनवानों ही के धन से।
कोई करै व्यारी त्यारी कोइ सोता सुख सेजों पर,
पुस्तक अवलोकन कोइ करते लिखते पढ़ते मेजों पर।
नौं बजकर दस बजते हंै, सुनसान निशा हो जाती है,
तबियत ऊब उठी अब अपनी गीत नींद के गाती
इसी तरह से जग जीवन का जीवन गुजरै निस वासर,
पढते हो तो पढ़लो यारो राम नाम कै दो आखर।
दोहाः- साल उपज खेती नहीं, गोधन बडे अहीर।
साल वृच्छ गिर ब्रज बड़े, ग्राम सलैया तीर।।
चैपाईः- भूप ग्राम यक वहाॅ बसाओ। ग्राम सलैया नाम धरायो।
गिरऊपर सिलरूप विराजै। पुष्प केतकी के सिर ताजे।
रामलला हरिभक्त ज्ञानी। तिनकी सुनिये सुजन कहानी।
दुजकुल अग्नि होत्र विख्याता। निर्गुण व्रम्ह ब्रम्ह के ज्ञाता।
राज बिजावर की रजधानी। भानप्रताप भूप भये दानी।
दानवीर की कीरत भाई। चारहु धार्म प्रदेशन छाई।
रामलला गुरू अलख लखाये। भूप सलैया ग्राम लगाये।
ब्रम्ह ज्ञान की भई परतीती। गुरू के चरन करी न्रप प्रीती।
दोहाः- अलख लखे अनुभव जगे, भगे तीन संताप।
सतगुरू के चरणन लगे, पगे ब्रम्ह सुख आप।।
चैपाईः- सतगुरू की आज्ञा सिर धरही। गुरू के बचन सुजन अनुसर ही।
गुरू के विन भव तरह न कोई। विन परतीत सुलभ नहिं सोई।
दृढ़ सिद्धाॅत मान हिय राजा। विन गुरू करत न येकहु काजा।
गुरू कौ भोजन विप्र करावे। बटुआ मुहुर नित्त उतरावे।
वेश्या रही भूप की उमदा। रूप वंत प्रमदा ज्यों कुमुदा।
कठिन समय गुरू लीन्ह परीक्षा। देखी भूप शिष्य की दीक्षा।
स्वर्ग धाम गई प्यारी रानी। ताह समय पहुॅचे गुरू ज्ञानी।
महाराज उमदा मोय दीजे। दाह काज पुन पीछे कीजे
दोहाः- धीरज धर परणाम कर, गुरू को उम्दादीन।
सोहमस्मि इति जानकंे, कठिन परीक्षा लीन।।
चैपाईः- नम्र सुभाव न मान गलानी। हाथ जोर बोले म्रदु बानी।
और हुकम होवे गुरू देवा। सेवक करै चरण रज सेवा।
न्रप दीक्षा तुम लई हमारी। कठिन परीक्षा लई तुम्हारी।
अब जग काज करहु तुम जाई। ब्रम्ह रूप आतम सुख पाई।
अलख झलक झलकी उर तोरे। खलक पलक से नेहा टोरे।
राम जन्म दिन जन्म हमारा। ताही दिन ध्रुव मरण विचारा।
जब मैं लैहो समाधि लगाई। राजन तुमको लेहों बुलाई।
अस कह सो निज धाम सिधारे। ब्रम्ह धाम के काम विचारे।
चैत्र सुदी नममी तिथि आई। मध्य दिवस लख खबर जनाई।
सकल गाॅव के लोग बुलाये। शुभ उपदेश दिये मन भाये।
निकट विकट घन बल, सघन मानव दानव भेष।
तपसी जन मुनिवरन कौं, हरिये कठिन कलेश।।
चैपाईः- कछुदिन अंधयारे वन रैयों। राठ विराट नगर पुन जैयो।
नारायन न्रप जान हमारे। प्रगट भये नारायण नारे।
अस कह प्रभु भये अंतर ध्याना। पाॅडव वहाॅ कियो अस्थाना।
चले वीरवर गैल डॅगाई। दानव देख महा भय पाई।
नाम वकासुर ताकर भाई। अर्ध रात्रि दीन्हों दुख आई।
तासों युद्ध भीम नंे कीन्हों। कर अतिक्रोध गदाकर लीन्हो।
कोप महीधर येक उपारो। दानव भीम पर डारो।
भीम सेन कर गदा प्रहारा। रजसम शैल गैल मे डारा।
द्वंदयुद्ध कर पहर अढ़ाई। तब निश्चर माया प्रगटाई।
कवित्वः- धायो लै लूघर को भूधर तन सूकर ह्वै,
गर्जेघन घोर घोर करत चिकारो है।
टोरै तरू फोरे पवि वाॅको कर दौरे रब,
जावेना निकट देख दीरघ दतारो है।
मानव अहारी दुष्ट दानव कैं भीम कोई,
कज्जल गिर मानो आ साम्हने हॅकारो है,
जैसे गजराज कौं पछार म्रगराज वीर।
भीम सेन घूम-घूम भूम पैं पछारौ है।
दोहाः- डाई मे वर्तत अबै, दानव सो रणधीर।
कर धोये पांडव सुअन, भये ताल गंभीर।।
चैपाईः- रहत रहो वक दानव सोई। तासें नाम ग्राम वकसोई।
दानव सो डाई मे बर्तै। आगे के सुनिये अब चरिते।
वेत्रकीय वन पहॅुचे वीरा। भरे पठार ताल गंभीरा।
घने वेत्र वन पंकज फूले। खग म्रग भं्रग देख मद भूले।
उत से चले गुलाटै आये। गहवर कठिन स्वेद जिय पाये।
दानव वहाॅ येक दुखदाई। नाम हिडंवासुर है भाई।
रोक लये मग चारहु भाई। भीमसेन सन ठनी लराई।
तुर्त उखार पहार ढहायो। भीम गदा सन मार हटायो।
ताल ठोक खल सन्मुख आयो। पेंच खैंच के भूम गिरायो।
सबैयाः- कर कोप सकोप ललोप दियो, रजथोप भुमाय दियो चकरीसी।
भुजसूंड सों मुंड लपेट लियो, गहकुंड पछार दियो झकरी सी।
म्रगराज दराज गराज मनो, गजराज दवोच लियो चकरी सी।
गह भीम ने भीम निशाचर को, झक झोर मरोर लई भकरी सी।
सुंदर रूप अनूप निहारी। हिय प्रसन्न अति द्रुपद दुलारी।
बोली हाथ जोर म्रदुवानी। भली कृपा कीन्हीं सुखदानी।
जब-जब दारूण दुख सिर आये। तब-तब आकर नाथ बचाये।
दीनदयाल दया हरि कीजे। असरण सरण राख जन लीजै।
श्री जदुनाथ पलक पलकन पै। बड़े सनेह करत हलकन पै।
सवैयाः-(1) मकराक्रत कुंडल कानन मैं, भुज अंगद कीट लसै सिर नीकौ।
कर आयुध चार विराज रहे,दुति राजत लाल बुलाक मनी कौ।
कटि मे पट पीत खुसी मुरली,लकुटी कर झामा विशाल तनी कौं।
यह रूप अनूप हमारे हिये, घनस्याम वसे रण छोड़ धनी कौ।
(2) जब सें अवतार लिये जग मैं, सुख के बदले दुख पायो घनेरौ।
बानिता सुत रात न माता पिता,धन धाम न आवत काम अवेरौ।
भव वारिध बीच जहाज डरो,कर पार दियो गहके कर मेरौ।
दिन फेरौ हमारे दया करकै,अब द्वारका नाथ क्रपाकर हेरौ।
दोहाः- क्षुधा लगी भावी हमें, देव करें जल पान।
भजत भजे भोजन तजै, भागे विन पद त्रान।।
चैपाईः- सुन बानी रानी सकुचानी। मन में भइ फदिअत मनमानी।
असन वसन नहि महि इत वीरा। द्रुपद सुता अति भई अधीरा।
दुहु का जोर ओर मुख हेरी। भोजन भाजन पै रूख फेरी।
हॅस-हॅस पॅूछ रहे जगतारन। द्रुपद सुता वर्णो सब कारण।
जो कछु असन होय यह काला। परस दंेव धर कें हम लाला।
पर्ण कुटी भीतर बन वारी। धरी भगौनी भरी निहारी।
भौजी-भाजी की नहिं लाजा। देव जिमाय कहंे ब्रजराजा।
पाय रहे जनु महा प्रसादा। वर्णें श्री मुख षटरस स्वादा।
दोहाः- प्रेम भाव के रहत है, भूखे श्री घनश्याम।
तजै कपट कोई भजै, ताके हिय मैं धाम।।
सवैयाः- (1) यदुनाथ जू नाम पुकार रहो,तुम द्वार पै जायकें विप्र सुदामा।
कर कोर क्रपा की हरि विपदा,सु करे जन के परपूरण कामा।
तुम सौ नहिं दीन दयाल कोई,निज भक्तन हैत सदा जो अरामा।
कनखाय कें तीन मुठी हरिजू, बदले मे दये तिहि कंचन धामा।
(2) नरसी की भॅजाय दई हुंडी,सॅग आय के स्यामले सेठ बने जू।
पर पूरण आस करी जन की,घन कंचन के बरसाये घने जू।
निज दासन के दुख दूर करे,गुण जस नाथ के बंद भनै जू।
करूणा निध वानकी लाज गही,सरनागत आरत देख जनेजू।
चैपाईः- विप्र सुदामा तंदुल लाये। प्रेम मान अति हित सौं खायो।
दोहाः- रूधरोपल वर्षा करी,वही रक्त की धार।
द्वादस कोशी की मही, भई दोन की छार।।
चैपाईः- हिमसर भीम सैन पर छाॅडो। तासें होत दौन मे जाडौं।
दैत्य हिडंवासुर रणधीरा। भीम सैन मारोबल वीरा।
सो गुलाट खैरे में बर्तौ। प्रेतजोन मे भयो विचर्ताे।
ताह मार पुन आगे चाले। काॅधे धनुसर कर लिये भाले।
मग में वन देवी यक मिली। नाम हिडंवी सूरत भली।
आशिक भई भीम छवि देखी। हंस कह कीजे नाथ बरेखी।
ता सॅग कियो व्याह गंधर्वा। देख रूप मोहे सुर सर्वा।
घट उत्कछ तासों सुत भयेऊ। भीम समान भीमबल रहेऊ।
पट पुरान की दई निशानी। रही छाय वन नहिं पछयानी।
अब लग मग बिच देत दिखाई। नाम चिथरयाऊ वन छाई।
चले वीर आगे पग धारे। पहुॅचे घोर विपिन अंधयारे।
सुन्दर विटप ताल है नीकौ। मनो प्रकाश घोर रजनी कौ।
यहाॅ रहब सुख सों श्रम खोई। इतै खोजपै है नहिं कोई।
दोहाः- पर्ण कुटी सुन्दर सुखद, वहाॅ बनाई भूप।
जो चरित्र आगे भयो, वर्णो कथा अनूप।।
इति श्री भीम पुराणे महाभारतान्तर्गत वनपर्वणो पांडव वनवास निवास छल वर्णोनो नाम चतुर्थोध्याय 4 शुभम।
दोहाः- शुभ पंचम अध्याय मे, दुर्वासा रिषि संग।
भेद लेन वन में गये, सुनिये नहुख प्रसंग।।
चैपाईः- यक दिन म्रगया हेतु उताला। अनुजन सहित चले महिपाला।
द्रुपद सुता कौं छोड अकेली। निकस गये वन सघन छहेली।
अतिक्रोधी दुर्वासा ज्ञाना। साठ हजार संग रिषि आना।
कहै द्रोपदी सौं उत आकैं। भोजन करा देव अफरा के।
नहि तौ श्राप आज मैं दैहो। दुर्योधन से जाकर कैहों।
हाथ जोर कह दुपत दुलारी। रिषि जू सुनिये विनय हमारी।
दंडक वन हम है वनवासी। असन वसन विन रहत उदासी।
यहाॅ अन्न जल है कछु नाहीं। लख अति दुखी होत मन माही।
दोहाः- भोजन रिष हम कर चुके, बचो न कुछ सामान।
करत रसोई त्यार मैं, कर आओ असनान।।
चैपाईः- क्षण यक ठहर जान वट छाही। पांडव आवत है मग माहीं।
ते तुम्हरौ कर है रिषि आदर। करहु कृपा विनती सुन सादर।
वचन मान उरधर मुनिधीरा। पहुॅचे निकट सरोबर तीरा।
इतै द्रोपदी भई दुखयारी। सुमरे हिय मे श्री गिरधारी।
ये घनस्याम वेग सुध लीजे। दीनजान प्रभु अभय करीजे।
जब-जब विपत परी सिर भारी। तब-तब नाथ करी रखवारी।
लाक्षा ग्रह से हमहि वचायो। सभा माह मम वसन वढ़ायो।
क्रोधी मुनि से बने न कातन। अब पत भांत तुम्हारे हाॅतन।
सवैयाः- कर कौपग ग्राह ग्रसो सर मे,यक पंकज लै हरि हेत पुकारो।
खग नायक वाहन छोड़ प्रभू, विन त्रान तहां उठ वग सिधारो।।
करूना निध दीन वचाय लियो, हिरना कुस सें पहलाद उवारो।
अब देर करौ न हरौ विपदा, घनस्याम न संकट जात न टारो।।
कविन्त्रः-(1) विपत परै भारी जब करत सुहारी जन,सुनत पुकारी तब धावत सवारी जू।
करौ न अवारी बचा लेव हो मुरारी तुम, अब के अहारी प्रभु गदा चक्रधारी जू।
भोगे दुख भारी मरयाद ना अपारी अघ, लीजिये उवारी चरनन बलहारी जू।
संकट विदारी खबर लीजेये हमारी, द्वारका विहारी नाथ सर्न हो तिहारी जू।
(2) दारूण दुख देखा इन आॅखो से कभी नहीं, जैसा प्रभु आज कालदीन को भुगाते हो।
इन्तहा दिखात न अपार पार पाने की,कमल कलेजे को नाहक दुखाते हो।
त्राह-त्राह भगवन अब त्राह-त्राह रक्षा कर,ओंठों पर जात जान क्यों कर रूलाते हो।
कीजे घनस्याम माफ चूक जो अजान परी, दावा किस दुश्मन का दास से चुकाते हो।
(3) दीनबन्धु दीनानाथ नाम ये पियारा दीन,आया दरवाजे पर नेक ना अनखते हो।
दीन हों अधीनह हींन धन से भयातुर हो,पापी हो पूरौ ताहि इससे हरखते हो।
मालिक का दिया हुआ टुकड़ा मैं खाता हूॅ,मेरे वह पास नही आप जिसे चखते हो।
दारूण दुख दीनों का आपना निरखते तौ,दीन दुख भंजन का दावा क्यों रखते हो।
(4) रोये हर द्वार पैं पुकार करी बार-बार,सुनी ना गुहार नाथ किस कौ सुनाऊ मै।
विपत अपार को निहार होश जात उड़े,नैया मझधार पार क्यों कर लगाऊॅ मैं।
सूझत ना और ठौर और ना दिखात कहूॅ,जानी ना प्रेम प्रीत किस विध रिझाऊॅ मै।
तुम से घनस्याम धनी छोड़ किसे जाॅचो प्रभु,नाथ द्वारका के द्वार का के अब जाऊ मै।
कहाॅ गया चक्र वक्र नक का विदारी वह,अघ के अहारी ये छोड़ा अब वाना क्यों।
दुष्ट दल गजन थे दीन दुख भंजन थे,दीनों के हेत प्रभू रूप धरे नाना क्यों।
स्वपच अजामिल से सदन कसाई से,गणिका के तारन को बन गे मर्दाना क्यों।
एहो घनश्याम! दीनबन्धु हो दया के सिंधु,मेरे तन देख नाथ करते वहाना क्यो।
दोहाः- व्याकुल भई अति द्रोपदी, उमग उठे दोई नैन।
विपत विदारन भय हरण, प्रगट भये सुख दैन।।
चैपाईः- पूरण शरद इन्दु सम आनन। कीट मुकट सिर कुंडल कानन।
श्री भ्रगुलता माल तुलसी की। हेरन हॅसन भावती जी की।
सुंदर कटि पीतांम्बर धोती। अरूण चरण नख झिलमिल ज्योती।
दुर्योधन की छोड़ी मेवा। साग विदुर की मानी सेवा।
सबरी बेर येर मन भाये। बेर-बेर प्रभु रूच-रूच खाये।
जात पाॅत कौ भेद न राखे। प्रेम प्रधान भक्त कों भाखे।
प्रेम प्रभाव प्रधान बखाना। प्रेम से प्रगट हो हिं भगवाना।
सो प्रभु अपने भक्तन काजा। विविध भांत राखाहिं जन लाजा।
भौजी की भाजी हरि खाई। लई डकार रिषय अफराई।
दुर्वासा दिक जे ऋषि आये। तिन कछु हरि के भेद न पाये।
डुबकी दई सरोबर तबहीं। त्रप्त भये ते वे सब तवही।
गये बहुर दुर्याेधन पासा। कथा कही सब सहित हुलासा।
दोहाः- झाम झड़क बाॅकी दई, पटक-पटक दोइ हाथ।
वेद भेद पायो नही,किहि विध भये सनाथ।।
चैपाईः- यहि विध सुखी रहे सब भाई। सहित द्रोपदी हिय हर्षाई।
येक दिवस वन गहन भुलाने। त्रषा वंत पांडव दुख मानै।
सर जल लैन गये सह देवा। जानत नहीं वहाॅ कर भेवा।
तहाॅ यक्ष यक सर्प स्वरूपा। रहत रहो जल भीतर भूपा।
पियत नीर पद गह तन लीले। उरग उदर सहदेव भे गीले।
भई अबार वीर नहिं आये। भूप युधिष्ठिर नकुल पठाये।
भीमसेन लीले बलवीरा। पुन अर्जुन पहुॅचे तिहि तीरा।
लील लिये अर्जुन धनुधारी। भूपति करहिं सोच हिय भारी।
दोहाः- नीर लेन पांडव अनुज,गये रहे सर तीर।
अब लग वह आये नही, करत सोच रणधीर।।
चैपाईः- भूप युधिष्ठिर आप सिधारे। ठांड़े देखत ताल किनारे।
सर के चारहुॅ ओर निहारे। करत विलाप कलाप गुहारे।
त्रषावंत सो पिये न वारी। व्याकुल हो सुमरे गिरधारी।
वन देवी प्रगटी तिहि काला। कहों भूप सों सिगरो हाला।
सर्प-सर्प कह टेरन लागे। आयो उरग भूप के आगे।
सौ बोल्यो सुनिये महिपाला। कोहें आप कहौ निज हाला।
अससुन भूप युधिष्टर बोले। उरग उदर अभ्यंत्तर खोले।
इन्द्र प्रस्थ है धाम हमारौ। भूप युधिष्टर नाम हमारौ।
दोहाः- पांडु पुत्र हम पाॅच है,सहरानी वनवास।
चार अनुज जल पियन हित,आये सर के पास।
चैपाईः- ते पुन लौट गये नहिं हेरत। सीध लगाकर आये टेरत।
सुनबानी बोलो अभिमानी। तेरी कथा भूप हमजानी।
प्रस्न चार हम तुम से कीजे। उत्तर दै संसय हर लीजै।
परमारथ देश विदेशन मै,यंश कीरत के फहरात पताके।
जीवन मुक्त वही नर है,घनस्याम चले जिसके कछु साके।
दोहाः- राजा दिवि दिवि लोक गये,भूपति कों सिरनाय।
माया लख भगवंत की, हर्षे पांचांे भाय।।
चैपाईः- वन देवी व्यापी सर तीरा। अस्तुत करी चले रणधीरा।
त्रषावंत दुर्वासा लौटे। अंधयारे वन जल के टोटे।
ऋषिवर श्राप दईती मन में। नही नीर अंधयारे वन मंे।
पाॅचो भ्रात बहुर जब आये। पंचाली कों चरित सुनाये।
भरो ताल कौं पानी रानी। रानीताल नाम भयो जानी।
सो अब बसे ग्राम के रूपा। नही नीर खोदे बहु कूपा।
यह सब कथा व्यास मुनि वरनी। भारत मह भारत की करनी।
रानीताल ग्राम अंधियारौ। परो नाम ताकौ मन प्यारौ।
दोहाः- कपट रूप मे जो रहो,दुर्योधन सो सर्प।
भेद कछु पायो नहिं,हरि हरे सब दर्प।।
इति श्री भीम पुराणे महाभारतान्तरगते कथा वन पर्वणो दुर्वासा नहुष प्रसंग वर्णनो नाम पंचमोध्याय 5
दोहाः- अब षष्टम अध्याय में, भीमकुंड इतहास।
वन सोभा रितुराज रितु, हिम ग्रीषम परकास।।
चैपाईः- देखत सुन्दर बनी डॅगाई। गोड़ भील मग देत दिखाई।
यामनेय रिषिवर अस्थाना। पहुॅचे पांडव चतुर सुजाना।
आश्रम देख अमित सुख पायो। मुनि के चरणन शीश नवायो।
प्रात नहाय यमुनयाॅ नारे। जम्वू फल खाये अति प्यारे।
हाथ जोर बोले महिपाला। मुनिवर कहिये कथा रसाला।
निर्जनवन तब करत अकेले। घने जमुनियाॅ सघन छहेले।
इतै न व्यापत धाम ततूरी। भूली रवि रथ किरन गरूरी।
सुन प्रसंग मो प्रति जगतारन। भे प्रसन्न मो पर जगकारन।
दंडक वन राक्षस दुखदाई। जरहि संपदा देख पराई।
हिंसा करहि डरै नहि देवहिं। मातु पिता गुरूदेेव न सैवहिं।
कलि आगमन देख भयदाई। निर्जनवन लख रहत सुहाई।
यक पग खड़ो सूर्य के आगे। पैर वरदान न येकहु मांगे।
दोहाः- दिनकर दीनदयाल प्रभु, देख जरत मम अंग।
निज तनया की जल किरण,सीतल कियो सुअंग।।
चैपाईः- दीनदयाल सूर्य भगवाना। मम ढिंग आय दियो वरदाना।
जमुन धार के निर्मल नीरा। शीतल कियो हमार सरीरा।
रवि कौ उदय करत को भाई। ब्रम्ह तेज तम नासत काई।
सूर्य सॅग को चालन हारे। सहचर देव समूह अपारे।
सूरज अस्त होत किहि कारण। धर्म येक है सुवस विहारण।
अस्थित सूर्य देवता कापै। सत्य बह्मा यक धर्नी तापै।
येसे प्रस्न यक्ष ने कीन्हे। धर्मराज ने उत्तर दीन्हे।
ये कइ एक भले न्रप वीरा। मिलजुर पियो ताल कौं नीरा।
यक्ष श्राप की कथा सुनाई। न्रप प्रताप आपनगत पाई।
दोहाः- धर्मराज धरमात्मा, धर्म हेतु अवतार।
छुवा देव ममशीस रज,दीजै कर उपकार।।
धर्मराज निजचरण रज,छुवा सीस पै दीन।
दिव्य रूप धर रूप यक्ष, तब न्रप की अस्तुत कीन्ह।।
कौन आप किहि पाप सें, दई कौन मुनि श्राप।
हमसे कहिये निज कथा, कौन मतारी बाप।।
चैपाईः- यह सुन बालो सर्प स्वरूपा। सुनिये कथा हमारी भूपा।
नहुख भूप के वंसी प्यारे। राजा दिवि है नाम हमारे।
चढ़ पालकी पै हम घूमे। चरण धरे कबहॅू ना भू में।
येक समय यक थक्यो कहारा। निर्जन वन मे करत विहारा।
कछु समीप जड़ मुनि यक देखे। हृष्ट पुष्ट तन आनंद लेखे।
बरबस उठा लगायो कंधा। पहुॅचान्यो नहि मै मति अंधा।
लिये सॅग मुनि कछु नहिं बोले। अनहद नादन लदे अडोले।
सर्प-सर्प हम कहयो गुहारी। मुनिवर अपनी आॅख उघारी।
दोहाः- होन हार जो होत है, जुरत जोग सै पाप।
सर्प होय चंडाल तू, मुनिवर दीन्ही श्राप।।
चैपाईः- मैं कछु सुनी गुनी नहि काना। पहुॅचो अपने महल ठिकाना।
मुनि जड़ भरथ भये जड़ डोलें। भूखे प्यासे मुख नहि बोले।
वीती येक याम निशि जबही। सुखस सेजन सें जाग्यो तबही।
कौ जीवे जागे गज माहीं। पहरेदार बोलते ना ही।
मोरे बचन सुने मुनि ज्ञानी। हर्ष विषाद न बोले वानी।
पहर-पहर पै जब-जब जागों। जागे कौन गुहारन लागो।
चैथे पहर भरथ उठ बोेले। मेरे ज्ञान चक्षु हिय खोले।
अभिमानी सुन वचन हमारे। हित बिचार कें कहत तुम्हारे।
दोहाः- जन्म मृत्यु संसार भय, जा कों व्यापत नाह।
मिथ्या जाने जगत जो, सो जीवत जग माह।।
चैपाईः- रहै सचेत ज्ञान से ज्ञानी। षट विकार बिन होय जो प्रानी।
ईश्वर ध्यान धरै यह जाने। सचराचर सें आपस माने।
संकट विकट परै सिर भारी। पूजा रहित ना होय पुजारी।
हिंसा रहित विप्र पदपूजा। काया ब्रम्ह अखंड न दूजा।
दयाशील समता जो धारै। सत्य छोड़ नहि झूठ उचारै।
परमारथ जाकौ मन लागै। जोगी वही वही जग जागै।
हरिहर भक्त होय जो पूरौ। मीन मेख नहिं गर्व गुरूरौ।
दिव्य ध्यान धर ईश्वर देखै। ईश्वर अंस जीउ सब लेखै।
दोहाः- अज्ञानी मूरख अरे, परो नरक की खान।
अब लग जीवत अधम कस,कही भरथ भगवान।।
चैपाईः- यह सुन मुनि के चरणन लागो। भयो सचेत जीउ जड़ जागो।
मुनिवर श्राप अनुग्रह कीजे। दीनदयाल यही वर दीजे।
हॅस बोले जड़ भरथ सुजाना। सुनहु भूप हू है कल्याना।
द्वापर अंत धर्म अवतारा। कुरू वंसिन मे पंाडु उदारा।
जे विचरत यह वन में अैहें। सर समीप त्रन कुटी बनें है।
त्रषावंत पांडव जब होवें। नीर पियन हित श्रम सब खोवैं।
तब तुम लीलौ चारहु भाई। धर्मराज देखें इत आई।
दोहाः- यही प्रस्न न्रप सन करहु, जब वही उत्तर देंय।
अनुज उगल दैहो तुरत,पहुॅचो अपने धेय।।
चैपाईः- भले हि भूप दर्शन मुह दीन्हा। परम अनुग्रह जन पर कीन्हा।
भये सकल दुख दूर हमारे। पद पंकज रज परम सुखारे।
धर्मराज हॅस बोले वानी। पाय राजमद भूलत प्राणी।
भूप भान परताप कहानी। जगजाहर सो सबकी जानी।
ब्रम्ह श्राप से भये निशाचर। कुल समूल की मूल नसाकर।
वक्र कुलिश शिव शूल बचावै। ब्रम्ह श्राप कुल सहित नसावै।
विप्र असीस सीस पर राखै। ब्रम्ह दोष नहिं मुख से भाखै।
जो कछु करे विप्र वरआई। अपनी माने सदा भलाई।
दोहाः- ब्रह्मा-ब्रह्मा के तेज है,ब्रह्मा-ब्रह्मा के दोष।
ब्रम्ह-ब्रम्ह से दुरत नहिं, जिनसे ब्रम्ह सरोष।।
सवैयाः- (1) ब्राम्हण ने यदु वंसिन कौ, विधवंस करो पल मे सब मारे।
ब्राम्हण जाय के लात हनी,त्रिलोक धनी हरि जू पै हमारे।
ब्राम्हण दान लिये बलि से,अरू ब्राम्हण जाय पताल सिधारे।
ब्राम्हण से जिन वैर करौ दुज,ब्राम्हण सें परमेश्वर हारे।
(2) फैल रही करनी धरनी वरनी,कवि राजन कीरत गाके।
नाम उजागर जाहर है,भर भूषण दूषण येक न जाके।
तुहिन व्यापै तेज ततूरी। तप करियों हरियो दुख दूरी।
हॅू है अचल जमुनयाॅ नारे। रोग नशाय हरें दुख सारे।
ग्रीषम रितु की त्रास न व्यापै। हिम रितु जान देहसी काॅपै।
मुनिवर कों दीन्हा वरदाना। अस कह सूर्य उर देव अंतर्धाना।
सूर्यपुरा आश्रम सुखदाई। नाम ग्राम कर जानहु भाई।
घनी जमुनियन की हैं कंुजे। वाघ वराह कहेरी गुंजे।
सुन इतहा रहे कछु काला। पावन म्रग मारे महि पाला।
हिसक जीउ जन्तु वहु मारे। राच्छस निधन किये मतु आऐ।
सुनिये अकथ दान पुन मांगे। पांडव वीर चले सुन आगे।
दोहाः- वन सोभा देखत चले,सुन्दर सघन पठार।
गये चैपरा के निकट,पोले विकट पहार।।
विन्धयाचल गिरवार गहन,खग म्रग केहर खान।
जंगल मंगल देखिय,हर सिद्धी अस्थान।।
चैपाईः- गिरवर सघन विकट नंद नारे। घने छहेलप नाहर गारे।
धात्री हर सिंगार कहुॅ नौनी। हरदू धबई करोंदी छोनी।
गबदू स्यामर मनोरे रोनी।
मार कटार कटाई स्यामर। भिलसेना किरवारी कांकर।
पाकर हडुआ कुमी सलैया। चरवा महुआ धबा कसैया।
कटबर बाॅसन नीम जमुनियाॅ। वनगनियाॅ सनकना धुवानियाॅ।
अमलतास हरमार अैरसां। हर्र बहेरौ खैर मिरासा।
सेजो वुधी केवटी पाकर। ऊमर झूमर पीपर पापर।
केवलाई भुववेल सगौना। पारस बेरी मरूवादौना।
दोहाः- थूबे फूले फूलकें,फूल रही मारौन।
कचनारन की देखिये,भरी वहारन सौन।।
चैपाईः- रेंवजा और केमाज बमूरा। खजरी इमली घोंट खजूरा।
सहजन कच्ना और पलासा। ताल तमाल रसाल हुलासा।
सीसम और अशोक निहारे। घाटे छांटे सर्रा कारे।
अैल गैल रोके गह चीरा। जरिया और मकोर सरीरा।
लगी औषधी जड़ी अपारा। जान लेव जो जानन हारा।
कंद मूल फल बुटी घनेरी। अतिसै लगी वाॅस की भेरी।
डाॅग इती गिरवन चहुॅ औरा। बानर वाघ करे रब घोरा।
अगम पंथ गिर घाटी सेहे। झिरना झील विवर पथरेहे।
दोहाः- फूले फले सु वृच्छ सब,झूम रहे फल भार।
पंछी डारन बैठ के,बोलत बोल हजार।।
हिरना हुशयार नकीब खड़े,निज धीर समीर ने चोंर डुलाये।
रितुराज कौं धोकौ सौ मान कछू,महराज के स्वागत को वन धाये।
(3) मौर रसाल के शीस धरें,कुसुमानी सी पाग पलास वॅधाये।
कुंडल कानन मंे झलकंे कचनार,कली के झला झुक छाये।
वागौ गुलाब प्रसूनन कौं, कर कुंद कली की कटार बनाये।
गावत गीत मालिंद अहो घनश्याम,बसंत बना वन आये।
दोहाः- लपट झपट ग्रीषम विषम,उड़ै बवंडर छार।
तरून तरणि ताते वरण,उषमत हार पहार।।
चैपाईः- धरण धरत पग लगत ततूरी। मनहुॅ भार की ताती धूरी।
बदन भरै में चुवत पसीना। मानहु झिरना झिरत महीना।
गरम नीर अरू गरम उसीरा। गरम उपरना गरम सरीरा।
तरूण तेज से तपत महीतल। खलबलात नहिं पावै जी कल।
पंछी तकें छाॅह तरूवर की। ताती लगै भींत निज घर की।
व्याकुल पथिक घाम के मारे। नीर विहीन नदी नॅद नारे।
नीरस रूख सूख मुरझाने। ताल तलैया विरस दिखाने।
म्रग त्रसना भ्रम म्रग भये कारे। हरित मिलत नहिं सूखे चारे।
कवित्वः- आतप अखंड़ तेज सूर्य के प्रचंड चंड,
हर्म खंड-खंड ताव बरसें अॅगारे है।
सरिता सर नीर के विहीन मीन व्याकुल ह्व,
आस की पियास दीन परगे म्रग कारें है।
ताती तन ताप औ ततूरी की तपन तेज,
तरणि तनूजा तीर तीरन बफारे है।
लपट लपेट बा झपेट प्रबल आॅधी की,
काम की चमेट जेठ मास रूप धारे है।
दोहाः- ताती हवा न तन लगी,धरन धरे नहिं पाॅय।
इन्द्र भवन से भवन तज,ते विचरत वन माॅय।
सवैयाः- (1) जो तकलीफ दई ने दई वह, पीर विना भुगतेजु कटैना।
होने वही जो रची विधि ने तिल सी न बढै,यक सुई घटै ना।
पौरख खूब करौ मिल के ’’दुज’’,कोट उपाव करौ पै सहैना।
मेख ठटै सिल पै तौ भली,पर कर्म की रेख पै मेख ठटेना।
(2) नहिं तातसगे नहिं भ्रात सगे,सुख सपत होत सगी न लुगाई।
ग्रह बाहर के न सगे अपने,हितुआ न सगे नहिं मीत जमाई।
परमेश्वर होत सगे सबके,दुख के दिन काम न आवत भाई।
जिसके सिर बीतत जानत सो ’’दुज’’,और न जानत पीर पराई।
छन्दः- कहूं मोर नाचें करें सोर बाॅके। कहूॅ कीस बोले लबा बाज झाॅके।
परेवा मुनैयाॅ पपीहा पुकारें। कहॅू केलि करती चकौरें निहारे।
कहूॅ तीतरन की कतारें दिखाती। कहुॅ स्वेत बगला चिरैयाॅ सुहाती।
कहॅु बंदरन की सजी फौज भारी। कहुॅ सैन कारी कहुॅ लाल भारी।
हरी भूम प्यारी लता झूमती है। मनो कंठ लग-लग पिया चूमती है।
कहुॅ गोंडनी भीलनी बेर बीनें। मकोरा करोंदा कटाई महीने।
दोहाः- चरवा महुआ तैदुआ,गजकेसर गुलकंद।
विरवाई और गुलाखरू,स्वेत मूसरी कंद।।
ग्राम-प्रभात छन्दः- ग्राम का परभात कैसा होत है सुनिये जरा।
उस अनोखे मजरासे पर पूर्ण-पूर्ण वसंुधरा।
चटक चिडियाॅ चहचहाती लहलहाती बैलियाॅ।
लिपट प्रीतम कंठ से करती मनो अठ खेलियाॅ।
सरस शीतल सुरभि डोले मंद गति मन भावनी।
ललिमा कुछ छाई नभ में पान भर ज्यों कामनी।
इन्दु की प्रतिभा प्रभा छवि छीन तारा जग मगे।
मनुसुर सूरज देख कर तम शत्रु के पग डगमगे।
उठ भोर से दधिमोरती वह देखिये ब्रज संुदरी।
लचक कटिकी हलन कुचकी चलन कर की मुंदरी।
नव बधूटी गीत गाती पीसती उठ मोद से।
कोइ पलना मे झुलाती बाल ललना गोद से।
कोइ लेटे सेज पर हरि नाम नाम उचारते।
कोइ बैठे ध्यान में सुख धाम ब्रम्ह विचारते।
कोई पंडित वेद पाठी आरती पूजा करे।
परभातियाॅ है कोइ गाते रामधुन साधू करे।
बैल लेकर कोइ जाते खेत मे हल जोतने।
आकाश मे परकास अपना किया दिनकर जोतने।
उठ बटोही जागरे परभात अब होने लगा।
मंदिर का घंटा बजा पर मंद मती तुं नहि जगा।
बाॅध विस्तार सजग होरे रैन की अब टेम है।
ये रूकेगी नहिं सुभा पै यही इसका नैम है।
चैपाईः- चले बीर त्यागे थल सोई। आगे चरित सुनो सब कोई।
कुसुमित वन चहु ओर निहारें। ऋतु बसंत की घनी बहारें।
लाल हुलास पलास विकासें। शीस रसालन मौर पुकासे।
भ्रंगी गीत मनोहर गावें। झिरना झिर-झिर झाॅझ बजावें।
झिल्ली सारंगी झनकारें। तबला थाप मेंदरे पारें।
वार मुखी बाजे म्रग नाचें। जंगल मे मंगल से माचें।
खग म्रग जीउ जन्तु समुदाई। मदन भूप की सैन सुहाई।
नये खेरे के ताल विशाला। ताके तट वट लगे रसाला।
फूलैं ललित अंग अरूनारे। भरे अगभ्य नीर म्रदु न्यारे।
सुन्दर संाज बाज ऋतुराजा। हलचल सह चहुॅ ओर विराजा।
कवित्वः- बाॅधे सिर मौर मुकट सुभट रसाल वीर,
किंशुक कचनार कंुद फौज है अनंतरी।
कीनो पतझार झार फर्स को पिछाय हर्ष,
कोकिला नकीब सुर फॅूक दिग दिगंतरी।
देश के नरेश भेष बदल इनाअतको,
देते रखरीज भेंट पूजा सम संतरी।
रितुअन कौ राजा,लै आंनग की समाजा।
लेत सौरभ सुगंध,राज राजत बसंतरी।
(2) खेतन कछारन मे तुंम औ पहारन में,
सरसों पलास फूले फूल उठी राई है।
कोहिल की कूक कूक ठनक होत धरती में,
अवै कली विकसी ना भौर भीर छाई है।
सुभट रसाल के विशाल भाल मौरे देख,
चात्रक चकोर मोर नाचत बधाई है।
औज भरी मौज भरी फौज लै मनोज वीर,
वीरन बसंत ओज हूलसी मचाई है।
(3) चहक चकोर उठे सोर कर मोर उठे कहॅू,
कोकिला अलाप सुर मधुर उचारे है।
कहॅू पल्लव नवीने लहलहे छब भीने,
देख लये जीने यह फेर ना बिसारे है।
महक प्रसूनन की चटक गुलाबन की,
कहॅू काम वान कर नारन को मारे है।
कवि घनस्याम कहॅू गैस कौ प्रकाश लखै,
अजब अनोखी ये बसंत की बहार है।
सवैयाः- वन की यह चित्र विचित्र छटा,अरू भूम तपोवन की सुख दाई।
इत प्राकृत द्रश्य अनोखे बड़े,वन नचात मोर चकोर सुहाई।
लतिका झुक झुम रही तरू से, तरू फूल के फूल रहे वरसाई।
गुण गाय रही प्रभु स्वागत के, हिरनी मुस्क्याय कें देती बधाई।
निकट विकट घन बल, सघन मानव दानव भेष।
तपसी जन मुनिवरन कौं, हरिये कठिन कलेश।।
चैपाईः- कछुदिन अंधयारे वन रैयों। राठ विराट नगर पुन जैयो।
नारायन न्रप जान हमारे। प्रगट भये नारायण नारे।
अस कह प्रभु भये अंतर ध्याना। पाॅडव वहाॅ कियो अस्थाना।
चले वीरवर गैल डॅगाई। दानव देख महा भय पाई।
नाम वकासुर ताकर भाई। अर्ध रात्रि दीन्हों दुख आई।
तासों युद्ध भीम नंे कीन्हों। कर अतिक्रोध गदाकर लीन्हो।
कोप महीधर येक उपारो। दानव भीम पर डारो।
भीम सेन कर गदा प्रहारा। रजसम शैल गैल मे डारा।
द्वंदयुद्ध कर पहर अढ़ाई। तब निश्चर माया प्रगटाई।
कवित्वः- धायो लै लूघर को भूधर तन सूकर ह्वै,
गर्जेघन घोर घोर करत चिकारो है।
टोरै तरू फोरे पवि वाॅको कर दौरे रब,
जावेना निकट देख दीरघ दतारो है।
मानव अहारी दुष्ट दानव कैं भीम कोई,
कज्जल गिर मानो आ साम्हने हॅकारो है,
जैसे गजराज कौं पछार म्रगराज वीर।
भीम सेन घूम-घूम भूम पैं पछारौ है।
दोहाः- डाई मे वर्तत अबै, दानव सो रणधीर।
कर धोये पांडव सुअन, भये ताल गंभीर।।
चैपाईः- रहत रहो वक दानव सोई। तासें नाम ग्राम वकसोई।
दानव सो डाई मे बर्तै। आगे के सुनिये अब चरिते।
वेत्रकीय वन पहॅुचे वीरा। भरे पठार ताल गंभीरा।
घने वेत्र वन पंकज फूले। खग म्रग भं्रग देख मद भूले।
उत से चले गुलाटै आये। गहवर कठिन स्वेद जिय पाये।
दानव वहाॅ येक दुखदाई। नाम हिडंवासुर है भाई।
रोक लये मग चारहु भाई। भीमसेन सन ठनी लराई।
तुर्त उखार पहार ढहायो। भीम गदा सन मार हटायो।
ताल ठोक खल सन्मुख आयो। पेंच खैंच के भूम गिरायो।
सबैयाः- कर कोप सकोप ललोप दियो, रजथोप भुमाय दियो चकरीसी।
भुजसूंड सों मुंड लपेट लियो, गहकुंड पछार दियो झकरी सी।
म्रगराज दराज गराज मनो, गजराज दवोच लियो चकरी सी।
गह भीम ने भीम निशाचर को, झक झोर मरोर लई भकरी सी।
सुंदर रूप अनूप निहारी। हिय प्रसन्न अति द्रुपद दुलारी।
बोली हाथ जोर म्रदुवानी। भली कृपा कीन्हीं सुखदानी।
जब-जब दारूण दुख सिर आये। तब-तब आकर नाथ बचाये।
दीनदयाल दया हरि कीजे। असरण सरण राख जन लीजै।
श्री जदुनाथ पलक पलकन पै। बड़े सनेह करत हलकन पै।
सवैयाः-(1) मकराक्रत कुंडल कानन मैं, भुज अंगद कीट लसै सिर नीकौ।
कर आयुध चार विराज रहे,दुति राजत लाल बुलाक मनी कौ।
कटि मे पट पीत खुसी मुरली,लकुटी कर झामा विशाल तनी कौं।
यह रूप अनूप हमारे हिये, घनस्याम वसे रण छोड़ धनी कौ।
(2) जब सें अवतार लिये जग मैं, सुख के बदले दुख पायो घनेरौ।
बानिता सुत रात न माता पिता,धन धाम न आवत काम अवेरौ।
भव वारिध बीच जहाज डरो,कर पार दियो गहके कर मेरौ।
दिन फेरौ हमारे दया करकै,अब द्वारका नाथ क्रपाकर हेरौ।
दोहाः- क्षुधा लगी भावी हमें, देव करें जल पान।
भजत भजे भोजन तजै, भागे विन पद त्रान।।
चैपाईः- सुन बानी रानी सकुचानी। मन में भइ फदिअत मनमानी।
असन वसन नहि महि इत वीरा। द्रुपद सुता अति भई अधीरा।
दुहु का जोर ओर मुख हेरी। भोजन भाजन पै रूख फेरी।
हॅस-हॅस पॅूछ रहे जगतारन। द्रुपद सुता वर्णो सब कारण।
जो कछु असन होय यह काला। परस दंेव धर कें हम लाला।
पर्ण कुटी भीतर बन वारी। धरी भगौनी भरी निहारी।
भौजी-भाजी की नहिं लाजा। देव जिमाय कहंे ब्रजराजा।
पाय रहे जनु महा प्रसादा। वर्णें श्री मुख षटरस स्वादा।
दोहाः- प्रेम भाव के रहत है, भूखे श्री घनश्याम।
तजै कपट कोई भजै, ताके हिय मैं धाम।।
सवैयाः- (1) यदुनाथ जू नाम पुकार रहो,तुम द्वार पै जायकें विप्र सुदामा।
कर कोर क्रपा की हरि विपदा,सु करे जन के परपूरण कामा।
तुम सौ नहिं दीन दयाल कोई,निज भक्तन हैत सदा जो अरामा।
कनखाय कें तीन मुठी हरिजू, बदले मे दये तिहि कंचन धामा।
(2) नरसी की भॅजाय दई हुंडी,सॅग आय के स्यामले सेठ बने जू।
पर पूरण आस करी जन की,घन कंचन के बरसाये घने जू।
निज दासन के दुख दूर करे,गुण जस नाथ के बंद भनै जू।
करूणा निध वानकी लाज गही,सरनागत आरत देख जनेजू।
चैपाईः- विप्र सुदामा तंदुल लाये। प्रेम मान अति हित सौं खायो।
दोहाः- रूधरोपल वर्षा करी,वही रक्त की धार।
द्वादस कोशी की मही, भई दोन की छार।।
चैपाईः- हिमसर भीम सैन पर छाॅडो। तासें होत दौन मे जाडौं।
दैत्य हिडंवासुर रणधीरा। भीम सैन मारोबल वीरा।
सो गुलाट खैरे में बर्तौ। प्रेतजोन मे भयो विचर्ताे।
ताह मार पुन आगे चाले। काॅधे धनुसर कर लिये भाले।
मग में वन देवी यक मिली। नाम हिडंवी सूरत भली।
आशिक भई भीम छवि देखी। हंस कह कीजे नाथ बरेखी।
ता सॅग कियो व्याह गंधर्वा। देख रूप मोहे सुर सर्वा।
घट उत्कछ तासों सुत भयेऊ। भीम समान भीमबल रहेऊ।
पट पुरान की दई निशानी। रही छाय वन नहिं पछयानी।
अब लग मग बिच देत दिखाई। नाम चिथरयाऊ वन छाई।
चले वीर आगे पग धारे। पहुॅचे घोर विपिन अंधयारे।
सुन्दर विटप ताल है नीकौ। मनो प्रकाश घोर रजनी कौ।
यहाॅ रहब सुख सों श्रम खोई। इतै खोजपै है नहिं कोई।
दोहाः- पर्ण कुटी सुन्दर सुखद, वहाॅ बनाई भूप।
जो चरित्र आगे भयो, वर्णो कथा अनूप।।
इति श्री भीम पुराणे महाभारतान्तर्गत वनपर्वणो पांडव वनवास निवास छल वर्णोनो नाम चतुर्थोध्याय 4 शुभम।
दोहाः- शुभ पंचम अध्याय मे, दुर्वासा रिषि संग।
भेद लेन वन में गये, सुनिये नहुख प्रसंग।।
चैपाईः- यक दिन म्रगया हेतु उताला। अनुजन सहित चले महिपाला।
द्रुपद सुता कौं छोड अकेली। निकस गये वन सघन छहेली।
अतिक्रोधी दुर्वासा ज्ञाना। साठ हजार संग रिषि आना।
कहै द्रोपदी सौं उत आकैं। भोजन करा देव अफरा के।
नहि तौ श्राप आज मैं दैहो। दुर्योधन से जाकर कैहों।
हाथ जोर कह दुपत दुलारी। रिषि जू सुनिये विनय हमारी।
दंडक वन हम है वनवासी। असन वसन विन रहत उदासी।
यहाॅ अन्न जल है कछु नाहीं। लख अति दुखी होत मन माही।
दोहाः- भोजन रिष हम कर चुके, बचो न कुछ सामान।
करत रसोई त्यार मैं, कर आओ असनान।।
चैपाईः- क्षण यक ठहर जान वट छाही। पांडव आवत है मग माहीं।
ते तुम्हरौ कर है रिषि आदर। करहु कृपा विनती सुन सादर।
वचन मान उरधर मुनिधीरा। पहुॅचे निकट सरोबर तीरा।
इतै द्रोपदी भई दुखयारी। सुमरे हिय मे श्री गिरधारी।
ये घनस्याम वेग सुध लीजे। दीनजान प्रभु अभय करीजे।
जब-जब विपत परी सिर भारी। तब-तब नाथ करी रखवारी।
लाक्षा ग्रह से हमहि वचायो। सभा माह मम वसन वढ़ायो।
क्रोधी मुनि से बने न कातन। अब पत भांत तुम्हारे हाॅतन।
सवैयाः- कर कौपग ग्राह ग्रसो सर मे,यक पंकज लै हरि हेत पुकारो।
खग नायक वाहन छोड़ प्रभू, विन त्रान तहां उठ वग सिधारो।।
करूना निध दीन वचाय लियो, हिरना कुस सें पहलाद उवारो।
अब देर करौ न हरौ विपदा, घनस्याम न संकट जात न टारो।।
कविन्त्रः-(1) विपत परै भारी जब करत सुहारी जन,सुनत पुकारी तब धावत सवारी जू।
करौ न अवारी बचा लेव हो मुरारी तुम, अब के अहारी प्रभु गदा चक्रधारी जू।
भोगे दुख भारी मरयाद ना अपारी अघ, लीजिये उवारी चरनन बलहारी जू।
संकट विदारी खबर लीजेये हमारी, द्वारका विहारी नाथ सर्न हो तिहारी जू।
(2) दारूण दुख देखा इन आॅखो से कभी नहीं, जैसा प्रभु आज कालदीन को भुगाते हो।
इन्तहा दिखात न अपार पार पाने की,कमल कलेजे को नाहक दुखाते हो।
त्राह-त्राह भगवन अब त्राह-त्राह रक्षा कर,ओंठों पर जात जान क्यों कर रूलाते हो।
कीजे घनस्याम माफ चूक जो अजान परी, दावा किस दुश्मन का दास से चुकाते हो।
(3) दीनबन्धु दीनानाथ नाम ये पियारा दीन,आया दरवाजे पर नेक ना अनखते हो।
दीन हों अधीनह हींन धन से भयातुर हो,पापी हो पूरौ ताहि इससे हरखते हो।
मालिक का दिया हुआ टुकड़ा मैं खाता हूॅ,मेरे वह पास नही आप जिसे चखते हो।
दारूण दुख दीनों का आपना निरखते तौ,दीन दुख भंजन का दावा क्यों रखते हो।
(4) रोये हर द्वार पैं पुकार करी बार-बार,सुनी ना गुहार नाथ किस कौ सुनाऊ मै।
विपत अपार को निहार होश जात उड़े,नैया मझधार पार क्यों कर लगाऊॅ मैं।
सूझत ना और ठौर और ना दिखात कहूॅ,जानी ना प्रेम प्रीत किस विध रिझाऊॅ मै।
तुम से घनस्याम धनी छोड़ किसे जाॅचो प्रभु,नाथ द्वारका के द्वार का के अब जाऊ मै।
कहाॅ गया चक्र वक्र नक का विदारी वह,अघ के अहारी ये छोड़ा अब वाना क्यों।
दुष्ट दल गजन थे दीन दुख भंजन थे,दीनों के हेत प्रभू रूप धरे नाना क्यों।
स्वपच अजामिल से सदन कसाई से,गणिका के तारन को बन गे मर्दाना क्यों।
एहो घनश्याम! दीनबन्धु हो दया के सिंधु,मेरे तन देख नाथ करते वहाना क्यो।
दोहाः- व्याकुल भई अति द्रोपदी, उमग उठे दोई नैन।
विपत विदारन भय हरण, प्रगट भये सुख दैन।।
चैपाईः- पूरण शरद इन्दु सम आनन। कीट मुकट सिर कुंडल कानन।
श्री भ्रगुलता माल तुलसी की। हेरन हॅसन भावती जी की।
सुंदर कटि पीतांम्बर धोती। अरूण चरण नख झिलमिल ज्योती।
दुर्योधन की छोड़ी मेवा। साग विदुर की मानी सेवा।
सबरी बेर येर मन भाये। बेर-बेर प्रभु रूच-रूच खाये।
जात पाॅत कौ भेद न राखे। प्रेम प्रधान भक्त कों भाखे।
प्रेम प्रभाव प्रधान बखाना। प्रेम से प्रगट हो हिं भगवाना।
सो प्रभु अपने भक्तन काजा। विविध भांत राखाहिं जन लाजा।
भौजी की भाजी हरि खाई। लई डकार रिषय अफराई।
दुर्वासा दिक जे ऋषि आये। तिन कछु हरि के भेद न पाये।
डुबकी दई सरोबर तबहीं। त्रप्त भये ते वे सब तवही।
गये बहुर दुर्याेधन पासा। कथा कही सब सहित हुलासा।
दोहाः- झाम झड़क बाॅकी दई, पटक-पटक दोइ हाथ।
वेद भेद पायो नही,किहि विध भये सनाथ।।
चैपाईः- यहि विध सुखी रहे सब भाई। सहित द्रोपदी हिय हर्षाई।
येक दिवस वन गहन भुलाने। त्रषा वंत पांडव दुख मानै।
सर जल लैन गये सह देवा। जानत नहीं वहाॅ कर भेवा।
तहाॅ यक्ष यक सर्प स्वरूपा। रहत रहो जल भीतर भूपा।
पियत नीर पद गह तन लीले। उरग उदर सहदेव भे गीले।
भई अबार वीर नहिं आये। भूप युधिष्ठिर नकुल पठाये।
भीमसेन लीले बलवीरा। पुन अर्जुन पहुॅचे तिहि तीरा।
लील लिये अर्जुन धनुधारी। भूपति करहिं सोच हिय भारी।
दोहाः- नीर लेन पांडव अनुज,गये रहे सर तीर।
अब लग वह आये नही, करत सोच रणधीर।।
चैपाईः- भूप युधिष्ठिर आप सिधारे। ठांड़े देखत ताल किनारे।
सर के चारहुॅ ओर निहारे। करत विलाप कलाप गुहारे।
त्रषावंत सो पिये न वारी। व्याकुल हो सुमरे गिरधारी।
वन देवी प्रगटी तिहि काला। कहों भूप सों सिगरो हाला।
सर्प-सर्प कह टेरन लागे। आयो उरग भूप के आगे।
सौ बोल्यो सुनिये महिपाला। कोहें आप कहौ निज हाला।
अससुन भूप युधिष्टर बोले। उरग उदर अभ्यंत्तर खोले।
इन्द्र प्रस्थ है धाम हमारौ। भूप युधिष्टर नाम हमारौ।
दोहाः- पांडु पुत्र हम पाॅच है,सहरानी वनवास।
चार अनुज जल पियन हित,आये सर के पास।
चैपाईः- ते पुन लौट गये नहिं हेरत। सीध लगाकर आये टेरत।
सुनबानी बोलो अभिमानी। तेरी कथा भूप हमजानी।
प्रस्न चार हम तुम से कीजे। उत्तर दै संसय हर लीजै।
परमारथ देश विदेशन मै,यंश कीरत के फहरात पताके।
जीवन मुक्त वही नर है,घनस्याम चले जिसके कछु साके।
दोहाः- राजा दिवि दिवि लोक गये,भूपति कों सिरनाय।
माया लख भगवंत की, हर्षे पांचांे भाय।।
चैपाईः- वन देवी व्यापी सर तीरा। अस्तुत करी चले रणधीरा।
त्रषावंत दुर्वासा लौटे। अंधयारे वन जल के टोटे।
ऋषिवर श्राप दईती मन में। नही नीर अंधयारे वन मंे।
पाॅचो भ्रात बहुर जब आये। पंचाली कों चरित सुनाये।
भरो ताल कौं पानी रानी। रानीताल नाम भयो जानी।
सो अब बसे ग्राम के रूपा। नही नीर खोदे बहु कूपा।
यह सब कथा व्यास मुनि वरनी। भारत मह भारत की करनी।
रानीताल ग्राम अंधियारौ। परो नाम ताकौ मन प्यारौ।
दोहाः- कपट रूप मे जो रहो,दुर्योधन सो सर्प।
भेद कछु पायो नहिं,हरि हरे सब दर्प।।
इति श्री भीम पुराणे महाभारतान्तरगते कथा वन पर्वणो दुर्वासा नहुष प्रसंग वर्णनो नाम पंचमोध्याय 5
दोहाः- अब षष्टम अध्याय में, भीमकुंड इतहास।
वन सोभा रितुराज रितु, हिम ग्रीषम परकास।।
चैपाईः- देखत सुन्दर बनी डॅगाई। गोड़ भील मग देत दिखाई।
यामनेय रिषिवर अस्थाना। पहुॅचे पांडव चतुर सुजाना।
आश्रम देख अमित सुख पायो। मुनि के चरणन शीश नवायो।
प्रात नहाय यमुनयाॅ नारे। जम्वू फल खाये अति प्यारे।
हाथ जोर बोले महिपाला। मुनिवर कहिये कथा रसाला।
निर्जनवन तब करत अकेले। घने जमुनियाॅ सघन छहेले।
इतै न व्यापत धाम ततूरी। भूली रवि रथ किरन गरूरी।
सुन प्रसंग मो प्रति जगतारन। भे प्रसन्न मो पर जगकारन।
दंडक वन राक्षस दुखदाई। जरहि संपदा देख पराई।
हिंसा करहि डरै नहि देवहिं। मातु पिता गुरूदेेव न सैवहिं।
कलि आगमन देख भयदाई। निर्जनवन लख रहत सुहाई।
यक पग खड़ो सूर्य के आगे। पैर वरदान न येकहु मांगे।
दोहाः- दिनकर दीनदयाल प्रभु, देख जरत मम अंग।
निज तनया की जल किरण,सीतल कियो सुअंग।।
चैपाईः- दीनदयाल सूर्य भगवाना। मम ढिंग आय दियो वरदाना।
जमुन धार के निर्मल नीरा। शीतल कियो हमार सरीरा।
रवि कौ उदय करत को भाई। ब्रम्ह तेज तम नासत काई।
सूर्य सॅग को चालन हारे। सहचर देव समूह अपारे।
सूरज अस्त होत किहि कारण। धर्म येक है सुवस विहारण।
अस्थित सूर्य देवता कापै। सत्य बह्मा यक धर्नी तापै।
येसे प्रस्न यक्ष ने कीन्हे। धर्मराज ने उत्तर दीन्हे।
ये कइ एक भले न्रप वीरा। मिलजुर पियो ताल कौं नीरा।
यक्ष श्राप की कथा सुनाई। न्रप प्रताप आपनगत पाई।
दोहाः- धर्मराज धरमात्मा, धर्म हेतु अवतार।
छुवा देव ममशीस रज,दीजै कर उपकार।।
धर्मराज निजचरण रज,छुवा सीस पै दीन।
दिव्य रूप धर रूप यक्ष, तब न्रप की अस्तुत कीन्ह।।
कौन आप किहि पाप सें, दई कौन मुनि श्राप।
हमसे कहिये निज कथा, कौन मतारी बाप।।
चैपाईः- यह सुन बालो सर्प स्वरूपा। सुनिये कथा हमारी भूपा।
नहुख भूप के वंसी प्यारे। राजा दिवि है नाम हमारे।
चढ़ पालकी पै हम घूमे। चरण धरे कबहॅू ना भू में।
येक समय यक थक्यो कहारा। निर्जन वन मे करत विहारा।
कछु समीप जड़ मुनि यक देखे। हृष्ट पुष्ट तन आनंद लेखे।
बरबस उठा लगायो कंधा। पहुॅचान्यो नहि मै मति अंधा।
लिये सॅग मुनि कछु नहिं बोले। अनहद नादन लदे अडोले।
सर्प-सर्प हम कहयो गुहारी। मुनिवर अपनी आॅख उघारी।
दोहाः- होन हार जो होत है, जुरत जोग सै पाप।
सर्प होय चंडाल तू, मुनिवर दीन्ही श्राप।।
चैपाईः- मैं कछु सुनी गुनी नहि काना। पहुॅचो अपने महल ठिकाना।
मुनि जड़ भरथ भये जड़ डोलें। भूखे प्यासे मुख नहि बोले।
वीती येक याम निशि जबही। सुखस सेजन सें जाग्यो तबही।
कौ जीवे जागे गज माहीं। पहरेदार बोलते ना ही।
मोरे बचन सुने मुनि ज्ञानी। हर्ष विषाद न बोले वानी।
पहर-पहर पै जब-जब जागों। जागे कौन गुहारन लागो।
चैथे पहर भरथ उठ बोेले। मेरे ज्ञान चक्षु हिय खोले।
अभिमानी सुन वचन हमारे। हित बिचार कें कहत तुम्हारे।
दोहाः- जन्म मृत्यु संसार भय, जा कों व्यापत नाह।
मिथ्या जाने जगत जो, सो जीवत जग माह।।
चैपाईः- रहै सचेत ज्ञान से ज्ञानी। षट विकार बिन होय जो प्रानी।
ईश्वर ध्यान धरै यह जाने। सचराचर सें आपस माने।
संकट विकट परै सिर भारी। पूजा रहित ना होय पुजारी।
हिंसा रहित विप्र पदपूजा। काया ब्रम्ह अखंड न दूजा।
दयाशील समता जो धारै। सत्य छोड़ नहि झूठ उचारै।
परमारथ जाकौ मन लागै। जोगी वही वही जग जागै।
हरिहर भक्त होय जो पूरौ। मीन मेख नहिं गर्व गुरूरौ।
दिव्य ध्यान धर ईश्वर देखै। ईश्वर अंस जीउ सब लेखै।
दोहाः- अज्ञानी मूरख अरे, परो नरक की खान।
अब लग जीवत अधम कस,कही भरथ भगवान।।
चैपाईः- यह सुन मुनि के चरणन लागो। भयो सचेत जीउ जड़ जागो।
मुनिवर श्राप अनुग्रह कीजे। दीनदयाल यही वर दीजे।
हॅस बोले जड़ भरथ सुजाना। सुनहु भूप हू है कल्याना।
द्वापर अंत धर्म अवतारा। कुरू वंसिन मे पंाडु उदारा।
जे विचरत यह वन में अैहें। सर समीप त्रन कुटी बनें है।
त्रषावंत पांडव जब होवें। नीर पियन हित श्रम सब खोवैं।
तब तुम लीलौ चारहु भाई। धर्मराज देखें इत आई।
दोहाः- यही प्रस्न न्रप सन करहु, जब वही उत्तर देंय।
अनुज उगल दैहो तुरत,पहुॅचो अपने धेय।।
चैपाईः- भले हि भूप दर्शन मुह दीन्हा। परम अनुग्रह जन पर कीन्हा।
भये सकल दुख दूर हमारे। पद पंकज रज परम सुखारे।
धर्मराज हॅस बोले वानी। पाय राजमद भूलत प्राणी।
भूप भान परताप कहानी। जगजाहर सो सबकी जानी।
ब्रम्ह श्राप से भये निशाचर। कुल समूल की मूल नसाकर।
वक्र कुलिश शिव शूल बचावै। ब्रम्ह श्राप कुल सहित नसावै।
विप्र असीस सीस पर राखै। ब्रम्ह दोष नहिं मुख से भाखै।
जो कछु करे विप्र वरआई। अपनी माने सदा भलाई।
दोहाः- ब्रह्मा-ब्रह्मा के तेज है,ब्रह्मा-ब्रह्मा के दोष।
ब्रम्ह-ब्रम्ह से दुरत नहिं, जिनसे ब्रम्ह सरोष।।
सवैयाः- (1) ब्राम्हण ने यदु वंसिन कौ, विधवंस करो पल मे सब मारे।
ब्राम्हण जाय के लात हनी,त्रिलोक धनी हरि जू पै हमारे।
ब्राम्हण दान लिये बलि से,अरू ब्राम्हण जाय पताल सिधारे।
ब्राम्हण से जिन वैर करौ दुज,ब्राम्हण सें परमेश्वर हारे।
(2) फैल रही करनी धरनी वरनी,कवि राजन कीरत गाके।
नाम उजागर जाहर है,भर भूषण दूषण येक न जाके।
तुहिन व्यापै तेज ततूरी। तप करियों हरियो दुख दूरी।
हॅू है अचल जमुनयाॅ नारे। रोग नशाय हरें दुख सारे।
ग्रीषम रितु की त्रास न व्यापै। हिम रितु जान देहसी काॅपै।
मुनिवर कों दीन्हा वरदाना। अस कह सूर्य उर देव अंतर्धाना।
सूर्यपुरा आश्रम सुखदाई। नाम ग्राम कर जानहु भाई।
घनी जमुनियन की हैं कंुजे। वाघ वराह कहेरी गुंजे।
सुन इतहा रहे कछु काला। पावन म्रग मारे महि पाला।
हिसक जीउ जन्तु वहु मारे। राच्छस निधन किये मतु आऐ।
सुनिये अकथ दान पुन मांगे। पांडव वीर चले सुन आगे।
दोहाः- वन सोभा देखत चले,सुन्दर सघन पठार।
गये चैपरा के निकट,पोले विकट पहार।।
विन्धयाचल गिरवार गहन,खग म्रग केहर खान।
जंगल मंगल देखिय,हर सिद्धी अस्थान।।
चैपाईः- गिरवर सघन विकट नंद नारे। घने छहेलप नाहर गारे।
धात्री हर सिंगार कहुॅ नौनी। हरदू धबई करोंदी छोनी।
गबदू स्यामर मनोरे रोनी।
मार कटार कटाई स्यामर। भिलसेना किरवारी कांकर।
पाकर हडुआ कुमी सलैया। चरवा महुआ धबा कसैया।
कटबर बाॅसन नीम जमुनियाॅ। वनगनियाॅ सनकना धुवानियाॅ।
अमलतास हरमार अैरसां। हर्र बहेरौ खैर मिरासा।
सेजो वुधी केवटी पाकर। ऊमर झूमर पीपर पापर।
केवलाई भुववेल सगौना। पारस बेरी मरूवादौना।
दोहाः- थूबे फूले फूलकें,फूल रही मारौन।
कचनारन की देखिये,भरी वहारन सौन।।
चैपाईः- रेंवजा और केमाज बमूरा। खजरी इमली घोंट खजूरा।
सहजन कच्ना और पलासा। ताल तमाल रसाल हुलासा।
सीसम और अशोक निहारे। घाटे छांटे सर्रा कारे।
अैल गैल रोके गह चीरा। जरिया और मकोर सरीरा।
लगी औषधी जड़ी अपारा। जान लेव जो जानन हारा।
कंद मूल फल बुटी घनेरी। अतिसै लगी वाॅस की भेरी।
डाॅग इती गिरवन चहुॅ औरा। बानर वाघ करे रब घोरा।
अगम पंथ गिर घाटी सेहे। झिरना झील विवर पथरेहे।
दोहाः- फूले फले सु वृच्छ सब,झूम रहे फल भार।
पंछी डारन बैठ के,बोलत बोल हजार।।
हिरना हुशयार नकीब खड़े,निज धीर समीर ने चोंर डुलाये।
रितुराज कौं धोकौ सौ मान कछू,महराज के स्वागत को वन धाये।
(3) मौर रसाल के शीस धरें,कुसुमानी सी पाग पलास वॅधाये।
कुंडल कानन मंे झलकंे कचनार,कली के झला झुक छाये।
वागौ गुलाब प्रसूनन कौं, कर कुंद कली की कटार बनाये।
गावत गीत मालिंद अहो घनश्याम,बसंत बना वन आये।
दोहाः- लपट झपट ग्रीषम विषम,उड़ै बवंडर छार।
तरून तरणि ताते वरण,उषमत हार पहार।।
चैपाईः- धरण धरत पग लगत ततूरी। मनहुॅ भार की ताती धूरी।
बदन भरै में चुवत पसीना। मानहु झिरना झिरत महीना।
गरम नीर अरू गरम उसीरा। गरम उपरना गरम सरीरा।
तरूण तेज से तपत महीतल। खलबलात नहिं पावै जी कल।
पंछी तकें छाॅह तरूवर की। ताती लगै भींत निज घर की।
व्याकुल पथिक घाम के मारे। नीर विहीन नदी नॅद नारे।
नीरस रूख सूख मुरझाने। ताल तलैया विरस दिखाने।
म्रग त्रसना भ्रम म्रग भये कारे। हरित मिलत नहिं सूखे चारे।
कवित्वः- आतप अखंड़ तेज सूर्य के प्रचंड चंड,
हर्म खंड-खंड ताव बरसें अॅगारे है।
सरिता सर नीर के विहीन मीन व्याकुल ह्व,
आस की पियास दीन परगे म्रग कारें है।
ताती तन ताप औ ततूरी की तपन तेज,
तरणि तनूजा तीर तीरन बफारे है।
लपट लपेट बा झपेट प्रबल आॅधी की,
काम की चमेट जेठ मास रूप धारे है।
दोहाः- ताती हवा न तन लगी,धरन धरे नहिं पाॅय।
इन्द्र भवन से भवन तज,ते विचरत वन माॅय।
सवैयाः- (1) जो तकलीफ दई ने दई वह, पीर विना भुगतेजु कटैना।
होने वही जो रची विधि ने तिल सी न बढै,यक सुई घटै ना।
पौरख खूब करौ मिल के ’’दुज’’,कोट उपाव करौ पै सहैना।
मेख ठटै सिल पै तौ भली,पर कर्म की रेख पै मेख ठटेना।
(2) नहिं तातसगे नहिं भ्रात सगे,सुख सपत होत सगी न लुगाई।
ग्रह बाहर के न सगे अपने,हितुआ न सगे नहिं मीत जमाई।
परमेश्वर होत सगे सबके,दुख के दिन काम न आवत भाई।
जिसके सिर बीतत जानत सो ’’दुज’’,और न जानत पीर पराई।
छन्दः- कहूं मोर नाचें करें सोर बाॅके। कहूॅ कीस बोले लबा बाज झाॅके।
परेवा मुनैयाॅ पपीहा पुकारें। कहॅू केलि करती चकौरें निहारे।
कहूॅ तीतरन की कतारें दिखाती। कहुॅ स्वेत बगला चिरैयाॅ सुहाती।
कहॅु बंदरन की सजी फौज भारी। कहुॅ सैन कारी कहुॅ लाल भारी।
हरी भूम प्यारी लता झूमती है। मनो कंठ लग-लग पिया चूमती है।
कहुॅ गोंडनी भीलनी बेर बीनें। मकोरा करोंदा कटाई महीने।
दोहाः- चरवा महुआ तैदुआ,गजकेसर गुलकंद।
विरवाई और गुलाखरू,स्वेत मूसरी कंद।।
ग्राम-प्रभात छन्दः- ग्राम का परभात कैसा होत है सुनिये जरा।
उस अनोखे मजरासे पर पूर्ण-पूर्ण वसंुधरा।
चटक चिडियाॅ चहचहाती लहलहाती बैलियाॅ।
लिपट प्रीतम कंठ से करती मनो अठ खेलियाॅ।
सरस शीतल सुरभि डोले मंद गति मन भावनी।
ललिमा कुछ छाई नभ में पान भर ज्यों कामनी।
इन्दु की प्रतिभा प्रभा छवि छीन तारा जग मगे।
मनुसुर सूरज देख कर तम शत्रु के पग डगमगे।
उठ भोर से दधिमोरती वह देखिये ब्रज संुदरी।
लचक कटिकी हलन कुचकी चलन कर की मुंदरी।
नव बधूटी गीत गाती पीसती उठ मोद से।
कोइ पलना मे झुलाती बाल ललना गोद से।
कोइ लेटे सेज पर हरि नाम नाम उचारते।
कोइ बैठे ध्यान में सुख धाम ब्रम्ह विचारते।
कोई पंडित वेद पाठी आरती पूजा करे।
परभातियाॅ है कोइ गाते रामधुन साधू करे।
बैल लेकर कोइ जाते खेत मे हल जोतने।
आकाश मे परकास अपना किया दिनकर जोतने।
उठ बटोही जागरे परभात अब होने लगा।
मंदिर का घंटा बजा पर मंद मती तुं नहि जगा।
बाॅध विस्तार सजग होरे रैन की अब टेम है।
ये रूकेगी नहिं सुभा पै यही इसका नैम है।
चैपाईः- चले बीर त्यागे थल सोई। आगे चरित सुनो सब कोई।
कुसुमित वन चहु ओर निहारें। ऋतु बसंत की घनी बहारें।
लाल हुलास पलास विकासें। शीस रसालन मौर पुकासे।
भ्रंगी गीत मनोहर गावें। झिरना झिर-झिर झाॅझ बजावें।
झिल्ली सारंगी झनकारें। तबला थाप मेंदरे पारें।
वार मुखी बाजे म्रग नाचें। जंगल मे मंगल से माचें।
खग म्रग जीउ जन्तु समुदाई। मदन भूप की सैन सुहाई।
नये खेरे के ताल विशाला। ताके तट वट लगे रसाला।
फूलैं ललित अंग अरूनारे। भरे अगभ्य नीर म्रदु न्यारे।
सुन्दर संाज बाज ऋतुराजा। हलचल सह चहुॅ ओर विराजा।
कवित्वः- बाॅधे सिर मौर मुकट सुभट रसाल वीर,
किंशुक कचनार कंुद फौज है अनंतरी।
कीनो पतझार झार फर्स को पिछाय हर्ष,
कोकिला नकीब सुर फॅूक दिग दिगंतरी।
देश के नरेश भेष बदल इनाअतको,
देते रखरीज भेंट पूजा सम संतरी।
रितुअन कौ राजा,लै आंनग की समाजा।
लेत सौरभ सुगंध,राज राजत बसंतरी।
(2) खेतन कछारन मे तुंम औ पहारन में,
सरसों पलास फूले फूल उठी राई है।
कोहिल की कूक कूक ठनक होत धरती में,
अवै कली विकसी ना भौर भीर छाई है।
सुभट रसाल के विशाल भाल मौरे देख,
चात्रक चकोर मोर नाचत बधाई है।
औज भरी मौज भरी फौज लै मनोज वीर,
वीरन बसंत ओज हूलसी मचाई है।
(3) चहक चकोर उठे सोर कर मोर उठे कहॅू,
कोकिला अलाप सुर मधुर उचारे है।
कहॅू पल्लव नवीने लहलहे छब भीने,
देख लये जीने यह फेर ना बिसारे है।
महक प्रसूनन की चटक गुलाबन की,
कहॅू काम वान कर नारन को मारे है।
कवि घनस्याम कहॅू गैस कौ प्रकाश लखै,
अजब अनोखी ये बसंत की बहार है।
सवैयाः- वन की यह चित्र विचित्र छटा,अरू भूम तपोवन की सुख दाई।
इत प्राकृत द्रश्य अनोखे बड़े,वन नचात मोर चकोर सुहाई।
लतिका झुक झुम रही तरू से, तरू फूल के फूल रहे वरसाई।
गुण गाय रही प्रभु स्वागत के, हिरनी मुस्क्याय कें देती बधाई।
2) वनितान वितान सुतान लिये,म्रदु दूब ने ऊब के फर्स विछाये।
अलि गुंजत मोर चकोर नचैं, झिरना झिर झांझ के ताल बजाये।
जब होत मुसीबत दिन है,तब काम न आवत कोई किसी के।
सब संपत के सुख होत भलै पै, विपत्त के साथी न होत खुसी के।
घनस्याम अराम है पायन मे, जग झूठ फॅसे बस होय इसी के।
पर पीर विना भुगते न कटै सोई,जानत है सिर वीतै जिसी के।
(3) हरिचन्द्र विकाने हजारन में,न्रप भीम ने जाय तपी थी रसोई।
ससि पै जब राहु दवारे करें, हरि हाथ दये न सगे बहनोई।
वन पंकज से जु तुषार लगै,जलवाय बचाय सकै नहिं ओई।
घनस्याम सगे सब संपत कें,विपत्त के साथी भये नहिं कोई।
विपदा जब आनपरी नल पै,वन भॅूजत मीन गिरी जल में जू।
विरलौ वड़भागी बचै तौ बचै जग,सामिल है इसके फल मैं जू।
वन मे जब मात हरि शठ ने,रघुनाथ के कष्ट मनोवल में जू।
घनस्याम मुसीबत क्या न करै,अजु राव को रंक करै पल मैं जू।
आई मुसीबत जो सिर पै वह भोगे,विना कछु ना टरने है।
शौक करे कछु होने नहीं पुन येक,दिना सब को मरने है।
जीवन है जबलौ तबलौ जग,मैं रह धीरज को धरने है।
हौने नहीं अपने मन की दुज,होने वही जो उन्हे करने है।
चैपाईः- जिन कबहॅू पग धरे न भू मे। तै यह भूप कूप वन घूमे।
ऋतु ग्रीषम की विषम ततूरी। द्रुपद सुता व्याकुल भई पूरी।
सह दुख आये वहाॅ सुजाना। बाजनेय ऋषि के अस्थाना।
प्रथमाश्रम मे कहॅू बुझाई। जाकर नाम बाजनों भाई।
सूखे अधर बदन कुम्हलानो। नीर विहीन प्राण गये मानो।
हरद शरीर जरद भयो कैसे। परसत तुहिन ताम रस जैसे।
बैठ विचार करे सब भाई। कहों होय इत कवन उपाई।
वन गिर अगम न नीर दिखावै। कौन भाॅत जिय तपन बुझावे।
बोले तबै युधिष्ठिर राई। करो उपाय प्यास जिहि जाई।
उठहुॅ भीम खोजहु जल ल्याऔं। पंचाली की त्रषा बुझाऔ।
दोहाः- भीम सेन मारी गदा,शिलपै उठा विशाल। लागी गिरपै बल सहित,गयो फूट पाताल।।
चैपाईः- तभी प्रगट भई जल की धारा। स्वच्छ नीर नग कूप मझारा।
नीर दिखात न शैल दिखावै। किहि विध हृदय प्यास किम जावै।
तीक्षण शर अर्जुन संधाना। पंथ करत प्रबस्यो गिर वाना।
अगम गुफा भई अंत न जाकौ। शंकर कुत्ती नाम है ताकौ।
प्रविसे सहित द्रोपदी रानी। कियो पान जल त्रषा बुझानी।
नित्य निवाह किये असनाना। विश्वनाथ कौ कीन्हो ध्याना।
भयै प्रगट सो जन के कारन। स्वामी अखिल लोक के तारन।
होवै मतवाला मन आला निराला हो,हिम का मुह काला हो संगनई वाला हो।
दोहाः- मेला ठेला हो जहाॅ,होय बड़ौ घमसान। अब बजार वर्णन करत, जिहि विध धरी दुकान।।
छन्द चैपैयाः- नीकी बनी बजार की सोभा,कही न मो पै जावै।
धरी दुकानें जिहि विध सुन्दर,तिहि विध तुम्हे सुनावें।
धनियाॅ मिरचे नौन तमाखू,हींग तेल माटी कौ।
नरियल गुड अजुवान सुपारी,डबला धरो है घी कौ।
महुआ कहॅू आय के बैचे,गड़ा जंजीरा न्यारे।
दरजी कहे खोर मे बोले,लेव-लेव कुरतारे।
टोपी बटुआ कुरती झोला,चोली और रजारे।
खोलौ दाम खुटी संे पहले,पीछे लेव मजारे।
कहुॅ कूंजरन बोली बोलंे,आलू लेव भटारे।
अदरक लहसुन प्याज लेव कोउ,घुइया सेर टकारे।
मनहारन कहुॅ धरे दुकनियाॅ,टिकुली बूॅदा प्यारे।
सूजे चकती छूटा छुटिया,ककई खुनखुना न्यारे।
पैसा दाम बाॅध आॅचर में,ठांडी करती प्यारी।
ऐनन से नैनन कों निखे,सैनन बात बतारी।
व्यौपारी कहुॅ चडी बजाजी,जोरा और खुआरें।
लट्टू लठ्ठा मल-मल छीटे,सहित गजी को फारंे।
कहू तमेरे टाठीं जोरे,बटुआ गड़ई नदूली।
कोपर हॅडा बोंगना लेसे,करछी विलियाॅ बेली।
दोहाः- पौंड़ा और महावरू, सकलकंद गुलकंद। टपकै लार मिठाई लख,डगर चिकनियाॅ वृन्द।
चैपाईः- लोह धातु की बनी कड़ाई। नामी होत यहाॅ की भाई।
यक मन की होवै इकलोई। करत खरीद बहुत सब कोई।
जुरे दुकानदार बहुत तेरे। सकल वस्तु के लागत ढेरे।
वैचे वणिक वस्तु सब भाई। लागै मेला मन सुख दाई।
आवत मनुज हवेली केरै। राग तान छैड़े बहु तेरे।
ग्राम-ग्राम के नर अरू नारी। लेत देत सौदा मन प्यारी।
जो मैं कहो सो थोरी भाई। ऊ मन मोद न वर्णो जाई।
मकर पर्व आदिक जे पावन। जब-जब मेला लगत सुहावन।
दोहाः- कैसो है काॅ है वनों,कौन देश वनखंड।
सो मैं कहत सुनाय के,जहाॅ सुशोभित कुंड
कुड़लियाः- पूरब सतना जानिये,दक्षिण हटा दमोह।
अर्घ पाद दै अरचा कीन्ही। तिन अरिजीत आसिषा दीन्ही।
दोहाः- शंकर जी बोले तबै,सुनहु युधिष्ठिर राय।
महिमा इह अस्थान की,मो पर कही न जाय।।
धसक मसक धरणी फटी,पोले भये पहार।
तीर्थ राज भय मान हिय,दई गंग की धार।।
चैपाईः- भीम गदा मारी यह ठाई। फोर पताल गंग इत आई।
अचल कुंड अरू गंगा रेहैं। यातें भीम कुंड नर कैहें।
सकल सुक्ख दायक यह ठामा। मज्जै नर पावहिं विश्रामा।
दरसन पर्स करहॅ जे प्रानी। होंय निरोगी पिंयहि जे पानी।
गिरूआ और तुषार न लागै। उपज चैगनी सींचत जागै।
मज्जन करेहिं पाप तें छूटंे। पियें नीर रति सुख लूटें।
दोहाः- सहरानी पांडव तहां,कछु दिन कियो निवास।
हर-मुख सुनेऊ प्रभाव,शुभ करहिं अस्तुतीदास।।
छंदत्रिमंगीः- जय-जय त्रय लोचन भव भय मोचन,जन मन रोचन त्रिपुरारी।
गल मुंडन माला उर लपटे व्याला,कटि म्रग छाला जय मदनारी।
है सीस गंग लगी छार अंग अरू पिये भंग हर दम छाके।
लाजत अनंग लख उमा सॅग जस वेद करत तुम्हरो थाके।
जय-जय अखलेश्वर जय विश्वांभर डमरू सूल कर अघ नासी।
जय निधि दाता आनॅद दाता यस गाता हे अविनाशी।
सज्जन मन रंजन दुष्ट निकंदन परम निरंजन जग भर्ता।
कष्ट निवारौ जग को पालौ दुष्ट संधारो जग हरता।
कवित्रः- (1) सघन पहाड़ांे की खोह मे विराजे हर,जटन समूहों से गंगधार जारी है।
अंबर दिगंबर बघंवर भुजंगन के,मुॅडल की माल कालकूट कंठ धारी है।
अक्षत सिर बेल पत्र चंदन की खौर लसै,सनमुख कर जोर रही गिरजा सी प्यारी है।
पहरे पर पौनपूत सुन्दर अस्थान देख,सेवक घनस्याम खड़ो ध्यान जटाधारी है।
(2) सो है सीस गंगा भुजंगा के जटाजूट,माथे पै चन्द्र सोहै बेल पत्र ताजे है।
अक्षत औ पुष्प मुंडमाल है कपालन की,अंबर दिगंवर के भूत संग साजे है।
लागी तन छार जोत जलती अखंड सदा,देख कें त्रिशूल दल जम हूॅ के भागे है।
पातक के पुंज को विनास करे विश्वनाथ,कालन के काल महाकाल जू विराजै है।
सवैयाः- भाल विशाल त्रिपंुड लसै,अहि मौर जटान की जूट सुहावै।
सिर गंग शिवा अर्धग बसै ’’दुज’’,अंग विभूत महा छब छावै।
डमरू कर शूल नसावत शूल,हिये पद पंकज ध्याान जो लावै।
सरिता पति तीर पै ब्राजे धनी,शिव रूप अहो मन काहे न ध्यावै।
श्लोकः- बन्देहं रामनाथं च,गंध मादन पर्वते।
नमस्ते सर्व तीर्थाय,लिंग रूपं सदा सिवम्।।
बन्दे रामेश्वरं देवं,जटा मुकुट मंडितम्।
कामघ्नं लिंग रूपं च, राजते जलधीस्तले।
छन्दः- क्या शुभ्र शैल विशाल पर बट वृच्छ की नीकी छटा।
चन्द्रशेखर चन्द्र पर घनस्याम छाई घन-घटा।
अर्धग ब्राजीं शैलजा सिव संग प्यारी भामनी।
ताटंक जिनके सीस पर ज्यों हेम गिर पर दामनी।
अहिनाथ के फन माथ पर जगनाथ डमरू हाथ है।
खगनाथ जिनके उर वसे वृषनाथ जिनके साथ है।
काल भैरव योगनी गण राज षण्मुख गोद मे।
खेल करते चाव से मुख मेल लाई मोद में।
सिंह झपटै बैल को फुंकार मूषक शेष की।
शेष सिखि की जंग देखी होत गृह भुवनेश की।
दोहाः- अस्तुत कर सिर नाय के,गमन कीन्ह तिहि पौर।
विश्वनाथ ब्राजे यहाॅ,सकल लोक सिर मौर।।
इति श्री भीम पुराणे महाभारतांर्गत कथा वन पर्वाणि भीमकुंड इतहास वर्णनो नाम षटमोध्याय
दोहाः- अब सप्तम अध्याय में,भीम कुंड माहात्म।
कैहों कथा रसाल मैं,सुन सुख पावै आत्म।।
शीतल हिम रितु सिसिर विच,माघ मकर जब होय।
सुन्दर मेला तहॅ लगै,मंगल मंगल होय।।
चैपाईः- येक पाख भर मेला लागै। पुलिस कुलिस की धूनी मागै।
ईत भीत की शीत न व्यावै। पियें तमाखू कोंड़न तापै।
जाके तनपै होय रजाई। भरी तूल अरू खोल दिखाई।
बाॅको होत दौन कौं जाड़ौ। बरत अलाव होत कछु आड़ौ।
दिनहू हवा मंद गत साजै। कपै देह बत्तीसी बाजै।
ओरनकी कहुॅ कोह दिखानी। छूतन मरै वर्फ की नानी।
दवै कोयलौ कहुॅ कहॅु भाई। हवा हिमालै की बन आई।
दिन तौ मेला काटत जावै। राष चैन से सोय न पावै।
ठिठुरी देह भई पुन जूड़ी। ऐंड गई तन पै नहि बूड़ी।
कवित्वः- विस्तर हों गिलमों के ओढ़वै सुपैती हो,पलग निवार होय ऊपर दुशाला हो।
पटवाॅ तहखाना हों गर्म-गर्म खाना हो,गर्म जल नहाना हों गर्म की मसाला हो।
दिल में रसरंग होय अंग-अंग तंग होय,पीने को भंग हो चाय भरे प्याला हो।
छतरपूर उत्तर दिसा,उत्तर महुवौ सोह।
उत्तर महुवौ सोह,किये टीकमगढ़ सेहा।
छै मीटर की गैल, यैल के सुन्दर डैरा।
वर्णे दुज घनस्याम,सड़क हद-हद की रचना।
तहाॅ बाजना ग्राम,उतै तैं पूरव सतना।
दोहाः- नगर बिजावर वसत है,देश बुॅदेल सुखंड।
सांवतसिंह नरेन्द्र जहॅ,राज्य करत वरवन्ड।।
धर्म राज सों करत है,प्रजा वसै सानंद।
धीर वीर रणधीर,न्रप भक्ति वान ब्रज चन्द्र।।
चैपाईः- दानवीर की कीरत भाई। वगरी देश विदेशन छाई।
पूरन राम भक्त महरानी। सुंदर ललित चरित सुखदानी।
जनकपुरी मंदर बनवाये। चित्रकोट निज धाम बनाये।
भूप रूप की कीरत करनी। विविध भाॅत कविराजन वरनी।
रूपवंत क्षत्री अलबेला। जग जाहर न्रप वीर बुॅदेला।
चोट भूप घालत है नीकी। नोक उडावत लोंग रती की।
नगर बिजावर की रजधानी। इन्द्रपुरी सम सोभा खानी।
सची इन्द्र से राजारानी। नर नारी देवता देवतानी।
सकल विभव इन्द्रासन कैसो। वरनो नैनन देखो जैसो।
कवित्वः- (1) जौहरी जवाहर के, नाहर भे दुश्मन के,
जाहर जहान मै हाॅकी कौं खिलइया है।
वैरन के काल हाल ढाल है बुॅदेलन की,दानी भूपाल हिन्द हद के रखैया है।
लोह पोट चोट देख होत है फिरंगी सुख,पुरन रण रंगी है रैयत पलैया है।
रूप के पुरंदर है सुन्दर सावंत सिंह,नरेन्द्र है बिजावर के महेन्द्र के कन्हैया है।
(2) पाग पैंच पैच बीच शानदार हीरा सिर,पैंच बीच शानदार कलगी का तुर्रा है।
भाल पै विशाल लाल ऊपर है तिलक छाप,विक्रमभुज दंडो पर अंगद झमेला है।
औंछे से पोंछे से चीरतें अॅगौछ केश,कटि पट से बाॅध कैं भेद सद्वस शेला है।
काॅधे पर ढाल हाथ वॅधी करबाल तीर,सांवत नरेन्द्र वीर हिन्द का बुॅदेला है।
(3) दहली दरवार को बनायो मय दानव ने,जल थल कालीन मे खिलाये गुल बूटे है।
कंचन के काॅच में सु सांचे प्रतिविंव लसें,सोने से नौने तन देखिये तिखूटे है।
चित्र औ विचित्र झपी झालरें झरोकन मैं,मोती सी सेजन के झालर रस लूटे है।
सुन्दर सावंत भवन देखे रति रानी के,टूटे कुचवंद और छूटे सिर जूटे है।
दोहाः- भवन भूप सावंत के,ताल महल इजलास।
सोभावर्नी जात नहिं,जहाॅ रहत रनवास।।
चैपाईः- डंडा चीन्ह लिहो यह मेरो। हर्ष मान सुख मान घनेरौ।
अचरज भयो बंध्यो थिर नहिं। सोच करै निस दिवस सिराही।
सोचन लगो गंग के तीरा। देखो सपनो उरधर धीरा।
नवल नार तन सुंदर सारी। क्रीट मुकुट सिर,ग्राह सवारी।
पंकज वरण चरण अरूनारे। अधरन पान नयन रतनारे।
लहर लहरिया स्वेत किनारी। हर रंग तन पै चोली प्यारी।
हाथ त्रिशूल कमंडल सोहै। वरन सकै छवि अस कवि कोहे।
रूनझुन घुॅघरन की झनकारै। कटि किंकणी मनोहर धारै।
हीरन हार हमेल सुहाई। क्लख करत सिरहने आई।
हॅस मुस्क्यात कहत सो बानी। उठ साधू सुन प्रेम कहानी।
जग तारन है नाम हमारो। करहों संसय दूर तुम्हारौ।
मैं अरू कुंड येक तन दोई। या मैं भेद न माने कोई।
दोहाः- नत बहु मेरी द्रोपदी,देखी त्राषित उदास।
शैल अवनि पाताल खन,प्रगटी जल की रास।।
तीर्थ राज संगम वहाॅ,करे मकर अस्नान।
भीम कुंड आकें करै,फल है येक प्रमान।।
चैपाईः- भीम कंुड के कर अस्नाना। फिर आयो अति चतुर सुजाना।
भेद भाव कछु राख्यो मन में। मिध्या पाप समानो तन मे।
कलि मल हरण नीर जग तारन। शोक मोह तन कौढ निवारन।
मोर प्रभाव कंुड सोई जानो। मोरे वचन म्रषा मत मानो।
तीन वहिन के तन यक भाई। तिरबैनी श्रुत संगम गाई।
इतैं द्रोपदी प्यासी भाई। तीनों वहिन देखने आई।
देखत दुखी भई सब मन मे। नीर बहायो निर्जन वन मे।
जमुना बहे जमुनयाॅ नारे। सरस्वती पाताल सिधारे।
सो गंगा पाताल कहावै। ग्राम दरगुवाॅ हार सुहावै।
मै पाताल भेद कर डारे। भीम कुंड भये नाम हमारे।
तुय डंडा मम धार बहायो। तीर्थ राज संगम कै आयो।
संसय मिटा हरौ दुख अपनो। यह जानो साॅचो सब सपनो।
दोहाः- प्रात काल उठ भोर जे,सुमरहिं कन्या पाॅच।
ताकौं दुख दारिद नही,नही पाप की आॅच।।
श्लोकः- अहल्यांम द्रोपदी कुतीम्,ताराम मंदोदरीम तथा।
पंच कन्या स्मरेत नित्यमं,महा पातक नाशनम।।
दोहाः- हाथ जोर अस्तुत करी,चरणन सीस नवाय।
तग तारण कलि मल,हरण महिमा की सुनाय।।
चैपाईः- शीस महल पै कलसा रानै। गैस प्रकास देख ससि लाजै।
दरवारन पै विदु्रम वारे। चित्र विचित्र चित्र रंग प्यारे।
झर्पे झपी झरोकन झमकें। कंचन जड़े किवारे चमके।
शीस महल की अदभुत रचना। कचना ललित खुदाई।
सुवरन फूल अनेकन फूले। लख प्रतिविवं कंज मन भूले।
डैवढन ऊपर नौबद वाजै। चार भाॅत की अनी विराजै।
मंदर बनों बिहारी जू कौं। सुंदर रूप राधका जू कौ।
राधा कृष्ण अलग पधराये। कृष्ण राधका जू मन भाये।
वनी तहाॅ इन्साफ कंचारी। देत फैसला खुश नरनारी।
सोभा अमित पार नहिं पावैं। देखत बने,न बरनी जावै।
दोहाः- धबल धाम आरामग्रह,सुन्दर हाट बजार।
मन मोहत सोहत धुजा,नगर बनो गुलजार।।
चैपाईः- धबल धाम सुन्दर सतखंडा। फहरा रहे सवाई झंड़ा।
सड़के बड़कै चारहुॅ कोने। हय गज शाला वगर निरोने।
छजा मजा के अटा अटारी। गमलन फूल रही फूलवारी।
चैहट हाट बजार सुहाये। आभूषण अन धन से छाये।
भाॅत-भाॅत की धरी दुकाने। सकल वस्तु के ढेर दिखाने।
बापी कूप तड़ाग चैपरा। हौज मौज संे भरे नौघरा।
सोभा की सोभा का जावै। वरने कवि कछु पार न पावै।
न्रप के राज चार तहसीलें। थाने सात सत्रुहन खीलें।
दोहाः- नगर बिजावर से लखौ,दक्षिण दिशा सुजान।
खास इलाका बाजनौ,तहाॅ कुंड अस्थान।।
चैपाईः- गिरवन सघन विवर यक भारी। कुंड अगाध श्याम रंग बारी।
पठुवा ता ऊपर सम छायो। धुवाॅधार घनघोर सुहायो।
बने तीन दरवाजे नीके। घॅूघट घले मनो रजनी के।
कुंड वनो गज सुंड समाना। झलकत कंचन कंज प्रमाना।
कूॅदहि जे नर कंुड मझारी। शब्द मनो घन गूॅजत भारी।
वनिता वृंद गीत जे गावें। मानहु तुरही सोर सुनावै।
भीड़ बढै जो मेला माही। मानहु वर्षत रंग सदा ही।
धूनी साधुन की तहॅ लागी। मन सुच रहत सदा वैरागी।
मंदिर यक संुदर तहॅ सो है। रमानाथ ब्राजै मन मोहै।
आसपास दो कुटी बनी है। तहाॅ विराजे रामधनी है।
लागी तहत नीचे सुंठी। चकरी लामी तनक न कुंठी।
उतै येक दालान बनी है। तह ब्राजे कैलास धनी है।
अधगिर पै दूसर दालाना। कूंदे कुंड करै असनाना।
सरित सरोवर झुड़न देखे। भीम कुंड से कुंड न देखे।
ऐसन जग मैं नहिं अस्थाना। देखे शहर विवर दुज नाना।
दोहाः- सत सत डोरी जोर कें,डारी जल के माॅह।
भीमकुंड के कुंड की,मिली न अब लग थाॅह।।
चैपाईः- फोर पताल गंग इत आई। किये उपाय थाह ना पाई।
येक समय यक साधू आयो। संगसार को डंड़ा लायो।
निर्मल नीर श्याम रॅग देखो। अहो भाग अपनो तब लेखो।
डंडा जल मे दियो गिराई। थाह लेन की मन मे आई।
बैठो रहो तीर पै साधू। विमल कुंड सो भरो अगाधू।
देखो डंडा नहि उतरानो। साधू चलो हिये घवरानो।
मकर पर्व की कीन्ही त्यारी। संगम तीर्थ राज कें भारी।
महिमा प्रागराज की भारी। का वर्णो जानत सिंसारी।
कल मल हरण-हरण भव शूला। गंग दरस मुद मंगल मूला।
संुदर धरन चरन जब परहीं। पाप ताप डग धर तन हरहीं।
स्वर्ग धाम कैलास नसैनी। दर्शन फल पै दत त्रिवैनी।
गंगा जल जिन तन नहिं धोये। रौरव नरक पै जग रोये।
कवित्वः-
(1) धारा धर धार कै अपार छीर सागर की,ब्रम्ह के कमंडल की सूत्रधार पैनी है।
आनॅद की रास कै अकास वास सुरपुर की,दीनहीन जीवन की स्वर्ग की नसैनी है।
पाप शैल नासन को यमपुर के त्रासन को,कर्म के अभागन की रेखा सुख दैनी है।
शंभु की त्रिशूल कैं त्रिशूल तीन नासन की,छैनी दुख दारिद की जग मैं त्रिवेनी है।
(2) धवल तुंग श्रगन पै धबल तेज सूरज के,धबल धूम धूसर सु उनये घन घेर-घेर।
धबल धम किन्नर सुर असुर नाग सिद्धनके,धबलवेदिकानपैसुतुलसीतरू गैर-गैर।
धबल शभु मंडन की अंग मे विभूत लसै,धबल जटाजूट छूट फैल रहे फेर-फेर।
धबल ब्रम्ह लोक में सुधबल धार गंगा की,संभु के जटान से हिलाय रही हेर-हेर।
सवैयाः-
म्रदु मूल दुकुलन की लहरें,छहरै जल चादर सीस पै श्रेनी।
हिलुरे हिम हीरन हार गरें,जलधार वनी सुरलोक नसैनी।
अघ सैल समूह विनासन कौं,सिल छेदन कों जिमि सार की छैनी।
पद पंकज माधव के भजिये,चित चेत अरे चल चेत त्रिवनी।
दोहाः- गयो साधु असनान हित,जित सुरसरि की धार।
उतरानो डंडा तहाॅ,गहकर लियो सम्हार।।
छंद त्रिभंगीः-
जय मातु भवानी गंगा रानी सुख दानी महिमा जानी।
जय-जग तारन स्ववस निहारन शोक निवारन जग रानी।
कलि मल हरनी सब सुख करनी वेदन बरनी तिरवेनी।
स्वर्ग नसैनी भव रूज छैनी सम फल दैनी अघ-छैनी
निर्मल नीरा सुंदर तीरा नासत पीरा जल रासी।
राज दुलारी हर उर प्यारी महिमा भारी जग भासी।
संसय भागो चरनन लागो अनुभव जागो अनुरागी।
जाने दल आरी मातु भिषारी। विनै हमारी बर मागी।
दोहाः- मंगल मूरत गंग की,अस्तुत की सुनाय।
ग्रहण हेतु साधू गयो,काशी पहुॅचो जाय।
चैपाईः- काशी ग्रहण करहि जे प्राणी। मुक्ति देहि उन्ह औघड़ दानी।
ज्ञान रूप अघ हान बखानी। विश्वनाथ की पुरी पुरानी।
काशीपुरी बसहि जे प्रानी। जीवन मुक्त महेश बखानी।
धोक धरहिं आधी की आधी। कोट जन्म की नासहि व्याधी।
महिमा कहों कौन विध ताकी। मातु भवानी शैल सुताकी।
अष्ट सिद्धि नव निधि की दाता। कलिमल हरण दीन जन माता।
अन्नपूरणा मातु विराजी। कीरत कलित दुंदुभी बाजी।
भैरो बटुक लकुट लिये साजें। जटा जूट की मुकुट विराजै।
जग तारन सुर सरि की धारा। सीस चन्द्रिका कौ उजियारा।
धबल धाम सुन्दर सत खण्डा। दुंढराज के मंदर झंडा।
घनी गली रवि किरण न फूटे। सन्यासी कों दासी लूटे।
गर्जे नंदी गण मदमाते। भंग रंग में छके दिखाते।
दोहाः- जैसी छवि देखी सुनी,तैसी कहत सुनाय।
भूल चूक जहॅ लख परै, लैहे सुजन बनाय।।
कवित्वः-
(1) धबल धाम द्वारन कीं झर्पे झरोखन पै,झूम-झूम झालरें मयूर चित्र सारी में।
रेशम की सेज मेज कुरसी मखतूल जड़ी,चाॅदनी सफेद खिली प्रेम फुलवारी मे।
चन्द्रमुखी सोवती मिजाज रसरंग भरी,आनॅद अनंग भरी जागती अटारी मे।
दीनन सुखदानी भवानी शिवशंकर की,सुन्दर घनस्यामपुरी काशिका निहारी मे।
(2) विमल विकासी नभ चुंबल घटासी खासी,तेज की प्रभासी भासी आनॅद की रासी है।
शंभु की उमा सी राजरानी भूमासी,लसै चन्द्र की छटा सी गंग राजै सुखमा सी है
ब्रम्ह के बिलासी वासी नेत के उपासी,सेवतनित कासी जीउदास और दासी है।
नासी अघरासी सोई काटै जम फाॅसी सांसी,दूजी अलकासी ये जगत शिव कासी है
अब सोचत क्या निश बीत गई,उठ कूच नगाड़े रहे बज रे।
अज हॅू मन मूरख चेंत अरे,पद पंकज गोविन्द के भज रे।
(5) अंग विभूत जटा सिर पै,तुलसी दल मालन के गजरे।
दंड कमंडल हाथ नहीं,ममता तिसना जग की न जरे।
आतम में परमातम के,द्रढ़ साध समाधन को सजरे।
अज हॅू मन मूरख चेंत अरे,पद पंकज गोविन्द के भज रे।
(6) सुंदर गंग के तीरथ पै,म्रदु भूम की सेजन को सजरे।
भेष दिगंबर धूर भरे,जिनके तन पै न फटी धज रे।
तन कुंजर को करके बसमें,विषई जग जीवन को तज रे।
अज हॅू मन मूरख चेंत अरे,पद पंकज गोविन्द के भज रे।
(7) सिंनसार सराय समान बनी,सपनों सौं लगै इसको तजरे।
नहिं सार असार निहार हिये,मत साज अनेकन तॅू सजरे।
इत होतन कोई सगे अपने,संग जात नहीं तन पै धजरे।
अज हॅू मन मूरख चेंत अरे,पद पंकज गोविन्द के भज रे।
(8) अब केबल ज्ञान कृपान गहो,भ्रम भेद निवेदन को तजरे।
घर वेदन गैल बताई जो है,कर ढाल बनाय रहो सजरे।
पट छोर मझार दया धरिये,हिये धीरज के पहरौ गजरे।
अज हॅू मन मूरख चेंत अरे,पद पंकज गोविन्द के भज रे।
दोहाः- भूपति को उपदेश दै,चले संत सुख पाय।
शहर दमोहे के मनुज,अजब दिये चेताय।।
चैपाईः- मंदिर येक वहाॅ बनवायो। संत अखाड़ौ वहाॅ बनायौ।
सदां रामधुन होत सुनाई। आसन धूनी काठ लगाई।
कछु दिन रहे समाध लगाई। संत भक्त की कथा सुनाई।
विध्यमान है अब लग मंदिर। जगजाहर है धूनी सुंदर।
जो जन धूनी छार लगावें। ताप तिजारी छूतन जावे।
अजबदास साकेत सिधारे। नाम अमर कर गये पियारे।
जो संतन की कथा सुनाई। भक्तमाल यक नई बताई।
अब कछु महिमा कहों बहोरी। बाल वुद्धि लख देहुन खोरी।
दोहाः- नैनन लखो प्रभाव कछु,श्रवण सुने सुभवीर।
महिमा गाऊॅ कुंड की,सुनहु सुजन मतिधीर।।
चैपाईः- ब्राम्हणयेक बिजावर वासी। मेला देखन गयो विलासी।
गंगाधर के धर उर ध्याना। कुंड गंुज की दतन समाना।
स्वच्छ स्याम रंग निर्मल पानी। गिरी कुंड मे वस्तु दिखानी।
गुंज गिरीती देखी हमने। धरी दिखानी स्वच्छ दतन मे।
3) विश्वनाथ आसन है ज्ञान की प्रकासन है,चिदानंद वासन है मोक्ष द्वार संासी है।
आनंद हुलासन है भामनी विलासन है,मित्र वर्ग हासन है गंग सुखमा सी है।
देखिये उमासी पाप पुंज रासन विनासन हुतासन की,देत सुखदासन सो अंचल क्षमा सी है।
(4) वेदन अनुसासन कैं जग की निरासन में,है जम फाॅसन सो यैसी ’’दुज’’कासी है।
किनंरी किशोरी कैं गोपी गोपालन की,मेनका घ्रताची कैं रंभा सुकमारी है।
गोरी सी भोरी सी चंचल चितौनवारी,नाजुक सी लंक अंग रति की अनुहारी हैं।
चित्र औ विचित्र रंग झीनी सी सारी तन,चादर की झालर में जरद किनारी है।
’’घनस्याम’’जू सलौनी सी नौनी देवतानी सी,कासी की नारी विधि संाचे की ढारी है।
सवैयाः-
(1) अवली चहुॅ ओर सुधासन की,रसरंग नवेलिन की सुखमा सी।
अघ नासन गंग तरंगन की,छिटकी मनिजोत अनंग-कलासी।
जीवन के सुख लूटवे कों,शिवशंकर येक कला परकासी।
दुख दारिद पाप विनासन कों,सुभ भूमि विकासन जान है कासी।
(2) शुभ खोंरन में वरसै नित ही, घनघोर घटा रस बॅूदन खासी।
चहुॅ ओरन दोरन-दोरन में,उतरानी रमा फिरती चपलासी।
जग तारन गंग कछारन में,ससिधारन ब्राज रहे अविनासी।
सिध होत मनोरथ है मन के,सुमरें ’’घनस्याम’’ सदांसिव कासी।
दोहाः- चारधाम तीरथ सकल,सुर सरिता वन शैल।
दरस परस कर संत सों,पुन आयो सुई गैल।
चैपाईः- कर तीरथ साधू तब आयो। भूप भान को चरित सुनायो।
सो ऊ डंडा दियो दिखाई। भूपत हिये प्रतीत बढाई।
गजब अजब ये चरित सुनायो। अजबदास निज नाम बतायो।
भानप्रताप सिरोमन रानी। कीरत जासु देश की जानी।
भूमदान गजदान सुहायो। ग्राम चैपरा तिन्हे लगायो।
भीम कुंड के ग्राम समीपा। दीन्हो सेवा हेतु महीपा।
श्रद्धा भक्तिवान सो साधू। तब हित बैठो अचल समाधू।
भीम कुंड की लख प्रभुताई। जगजाहर न्रप तुम्हे सुनाई।
जब कब महाराज उतजावे। अजबदास जू ज्ञान लखावें।
अजबदास बोले म्रदुवानी। महाराज तुमहौ विज्ञानी।
समता ज्ञान भक्ति की भाई। महिमा स्वयंश्री मुख गाई।
नवधा भक्ति करहिं जे राजा। जीवनमुक्त होंय सिरताजा।
सुनहु भूप हरि भक्ति जे करहीं। बिन प्रयास भवसागर तरहीं।
सवैयाः-
सिव संभु सराय समान बनी,नित आय मुसाफिर लेत उबारौ।
हिलकें मिलकें दस पाॅच जने,निश येक अजू कर लेत गुजारौ।
दुखिया दुख पाय कलारत है,कुछ पास नही घर दोर उसारौ।
’घनस्याम’ न कोई किसी के भये,निज गैल गये कर ज्ञान विचारौ।
मैं अरू मोर यही ममता, जग भूल रहो बस होय इसी के।
कर्म प्रधान प्रपंच रचै,फल भोग करें सिर बीते जिसी के।
कोंउ न कोंउ कौं देत कभी,दुख औ सुख जात जू संग उसी के।
भूलिये न इसमें फसकें,घनस्याम निहार भये न किसी कें।
मोहनिशा सब सोबत है,सपने जग माह अनेक निहारे।
जागत हान न लाभ कछू,सुख के बसहो ’’घनस्याम’’ विसारे।
जोगी जगे इनरातन मे जग,केबल झूठ प्रपंच विचारै।
लीला लखे हरि की नित से,सुख लूट रहे मन मौजी बहारे।
गुदरी तन कानन मे मुॅदरी,कमरी सन लेखत शाल जरी के।
तुलसी दल हीरन हार गरंे,जनु गुंज परै उर सात लरी के।
परवाह नही जिनको कुछ भी,पग लागत है अमरेश सरी के।
घनस्याम सदां विचरै जग में,रसरंग रॅगे हरिदास हरी के।
दोहाः- पद पंकज गोविन्द के भजिये आठोंयाम।
येक वस्तु जग में यही,और समझ वेकाम।।
अष्टक श्री गोविन्द कौ,भूपत कहो सुनाय।
सकल सुख दायक यही,शोक मोह भ्रम जाय।।
सवैयाः-
(1) सब ठाट पड़े रह जाने अहो,नहिं जात फॅटी संग में धज रे।
जिनको अपनो कर मानत है,अरथी परसार चले तज रे।
घनस्याम कहा गिनती तुम्हरी,ब्रम्हांड रहे न रहे अज रे।
अज हॅू मन मूरख चेंत अरे,पद पंकज गोविन्द के भज रे।
(2) जिनके ग्रह नौबद बाज रही,दरबाजन घूम रहे गज रे।
करनी जिनकी जग फैल रही,न रही कुछ शान मिली रज रे।
उनकी गत हार गई लख कें,अस जान सुजान गये तज रे।
अज हॅू मन मूरख चेंत अरे,पद पंकज गोविन्द के भज रे।
(3) सिर के सब केस सफेद भये,जमदूत उलूकन से न जरे।
जिन साथिन को जू भरोसो रहो,वह भी सब मारग मे तज रे।
सिंनसार असार निहार अरे,मन साज अनेकन न सज रे।
अज हॅू मन मूरख चेंत अरे,पद पंकज गोविन्द के भज रे।
(4) दसकंधर और सिंकदर की,न भई यह भूम गये तजरे।
अभिमान रहे न किसी के कभी,असजान सुजान हिये लज रे।
अब सोचत क्या निश बीत गई,उठ कूच नगाड़े रहे बज रे।
अज हॅू मन मूरख चेंत अरे,पद पंकज गोविन्द के भज रे।
(5) अंग विभूत जटा सिर पै,तुलसी दल मालन के गजरे।
दंड कमंडल हाथ नहीं,ममता तिसना जग की न जरे।
आतम में परमातम के,द्रढ़ साध समाधन को सजरे।
अज हॅू मन मूरख चेंत अरे,पद पंकज गोविन्द के भज रे।
(6) सुंदर गंग के तीरथ पै,म्रदु भूम की सेजन को सजरे।
भेष दिगंबर धूर भरे,जिनके तन पै न फटी धज रे।
तन कुंजर को करके बसमें,विषई जग जीवन को तज रे।
अज हॅू मन मूरख चेंत अरे,पद पंकज गोविन्द के भज रे।
(7) सिंनसार सराय समान बनी,सपनों सौं लगै इसको तजरे।
नहिं सार असार निहार हिये,मत साज अनेकन तॅू सजरे।
इत होतन कोई सगे अपने,संग जात नहीं तन पै धजरे।
अज हॅू मन मूरख चेंत अरे,पद पंकज गोविन्द के भज रे।
(8) अब केबल ज्ञान कृपान गहो,भ्रम भेद निवेदन को तजरे।
घर वेदन गैल बताई जो है,कर ढाल बनाय रहो सजरे।
षट छोर मझार दया धरिये,हिये धीरज के पहरौ गजरे।
अज हॅू मन मूरख चेंत अरे,पद पंकज गोविन्द के भज रे।
दोहाः- भूपति को उपदेश दै,चले संत सुख पाय।
शहर दमोहे के मनुज,अजब दियै चेताय।।
चैपाईः- मंदिर येक वहाॅ बनवायो। संत अखाड़ौ वहाॅ बनवाये।
सदां रामधुन होत सुनाई। आसन धूनी लगाई।
कछु दिन रहे समाध लगाई। संत भक्त की कथा सुनाई।
विध्यमान है अब लग मंदिर। जगजाहर है धूनी सुंदर।
जो जन धूनी छार लगावें। ताप तिजारी छूतन जावे।
अजबदास साकेत सिधारे। नाम अमर कर गये पियारे।
जो संतन की कथा सुनाई। भक्तमाल यक नई बताई।
अब कछु महिमा कहों वहोरी।बाल वुद्धि लख देहुन खोरी।
दोहाः- नैनन लखो प्रभाव कछु,श्रवण सुने सुभवीर।
महिमा गाऊॅ कुंड की,सुनहु सुजन मतिधीर।।
चैपाईः- ब्राम्हणयेक बिजावर वासी। मेला देखन गयो विलासी।
गंगाधर के धर उर ध्याना। कुंड मुंड की दतन समाना।
स्वच्छ स्याम रंग निर्मल पानी। गिरी कुंड मे वस्तु दिखानी।
गुंज गिरीती देखी हमने। धरी दिखानी स्वच्छ दतने मे।
लाखन लोग करें अस्लाना। नही रती भर पंक दिखाना।
पद पंकज सुर सुरसरि नीके। दुजवर सोच मिटाये जी के।
लै कर वाह गयो सो विप्रा। संगम तीर्थराज कौं छिप्रा।
धन्य-धन्य कहे सब नर नारी। प्रभुता सत्य कुंड बलहारी।
दोहाः- इतै अमित घटना भई,देखी सुनी सुजान।
तिरबैनी अरू कुंड जल जानों येक प्रमान।।
चैपाईः- नैनन येक प्रभाव दिखानो। सुजन विचार असत्य न मानो।
हिम ऋतु मे जल गरम रहत है। शीत भीत की भीत हरत है।
ग्रीषम ऋतु में शीतल नीरा। शीतल होय अरोग सरीरा।
आदि व्यादि सन्ताप नसावै। कंचन काया कोढ़ी पावै।
विरूज सुरभि संुदर अतिनीकी। तपन बुझावत है जन जी की।
निरूज शरीर होत है भाई। पियत कुंड के नीर अघाई।
दंडक वन तप करने लायक। षट ऋतु में सोइ सब सुखदायक।
महिमा भीम कुंड की ऐसी। वरणी नैनन देखी जैसी।
तपो भूम आश्रम मुनिवर के। दरस परस सुंदर सुरसर के।
अवसि देखिये देखन योगू। खुशी सुखी हूॅ है सब लोगू।
जो फल गंग प्रयाग नहाये। सौ फल सुलभ यहाॅ के आये।
दोहाः- परूवा भीतर जब गये,पिये कुंड के नीर।
भये विगत श्रम वीरवर,शीतल भये शरीर।।
इति श्री भीम पुराणे महाभारतान्तर्गत वन पर्वाणि भीम कुंड महात्म वर्णनो नाम सप्तमीध्याय 7
दोहाः- शुभ अष्टम अध्याय मे,भीम कुंड अस्नान।
सांबत सिंह नरेन्द्र के,खेल कहों चैगान।
छन्दः- वनवाई न्रप कोंठी अनूप,वॅधवायो कूप बगिया अनूप।
सोभा अपार वन की बहार,खेले शिकार न्रप शेर मार।
कोठी विशाल नये खेरे ताल,राजत नरेन्द्र जनु सची इन्द्र।
कवित्वः-
(1) राधावाग कौठी की सीनरी विचित्र चित्र,चित्रपट खींच-खींच घींच नीच मानी है।
कृष्ण महासागर से सागर लख लोक-लोक,लोक ये विशोक सिंधु खारे भये पानी है।
शीस महल पेख कें असीस देत चार शीस,बीस हाथ सीस-सीस देखी रतिरानी है।
भाषें ’’घनस्याम’’ लैख लैख के अलैख भयो,लेखहें अलेखन की लेखनी हिरानी है।
(2) कोठी नये खेरे की सुन्दर वन बीच बनी,भारतपुरा कोठी में मंगल दिखायो है।
भीमकंुड कोठी की सीनरी विचित्र देख,चित्र देख चित्र कौ अचित्र चित्र आयो है।
घाटी गिर कोट ओट ताल भरे स्वच्छ अच्छ,पंकज वन फूलन मे भ्रमर गीत गायो है।
चन्द्र बदन सुंदर मृगनैनी। चंपक वरन कंठ पिक बैनी।
करती चोट ओर घॅूघट की। तिरछी नजर गैल पनघट की।
हॅस मुस्क्याय बताती जाती। कलसा धरें चलीं मदमाती।
राजा जेइ बिजावर बारे। इनही ने सखि नाहर मारे।
धन-धन सजनी भाग हमारे। जो न्रप कानन मे पग धारे।
कवित्वः-
ग्राम की बधूटीं लट छूटीं सी खड़ीं द्वार, आनन वरानन के नैना बड़ी शान के।
जलसा लख नाहर कौं कलसा लै दौरी,कौऊ कौरे लग नैन सैन भोरी मुस्क्यान के।
बूढ़ी ना काती कछू हॅस-हॅस बताती सुन,बातें इठलाती न्रप प्रीत नई जान के।
प्रानन के प्यारे अन धन सुख दैन बारे,महराज सेर मारे अजु लोहे की शान के।
सवैयाः-
आये भले वन ग्रामन हो,छब देख भये अति संत सुखारे।
जाहर हैं रणधीर बड़े,अजु वीर बड़े है बड़े गुनवारे।
चूकत चोट न औट करैं,घनस्याम नरेश बिजावर वारे।
अरि जेई है वै सुनरी सजनी,नर नाह अरी जिन नाहर मारे।
दोहाः- सवर लगाव बड़ा रहे,करत हॅकाई गोंड़।
सघन विपन की गुफन में,छहे छहेलन झोंड़।।
चैपाईः- सौर गोड़ भीलन की नारीं। धजी गजी की पहरैं सारीं।
छूटे केश भेष अति नीके। स्वच्छ चीकने वासन घी के।
बैठी आॅगन कोई द्वारें। कोउ हेलें गोबर की डारें।
आपुस में हॅस बोले बानी। गगरी धंरे भरें कोऊ पानी।
राजा येई बिजावर बारे। वन के राजा इन नें मारे।
इन सौ राजा और न नौनौ। बदन निहार लजावैं सोनो।
चाह गुरै गुर खातइ हुईयंे। कैसे नाहर मारत हुइयै।
कैसीं हुईयंे इनकी रानी। मिलती परते पाॅव भुमानी।
दोहाः- वन ग्रामन खेरन अहो,सघन विपन की भीर।
गिर घाटी सेहे विवर,वसहिं वरानन तीर।।
सवैयाः-
(1) शुभ भूम मनोहर भारत की,इसपै रसरंग विरंग सजै हैंै।
सब देसन अंग सुदेसन के,मरू देसन हीरन हार लजे है।
वन ग्रामन के जितने सुख है,उतने न कहीं शहरों के सजे है।
चल वीरन तीर वरानन के,वनग्राम बसंे उनमें भी मजै है।
(2) ऊॅचे वने टपरा ढबुआ,तिन ऊपर कोंरी लता झुक झूमें।
भूम पहार दिखात हरे,हरी धान खड़ी लहरात है भू में।
खेलत शिकार सो मृगेन्द्र की नरेन्द्र वीर,धाबा लै धाबन संग मोटर सजायो है।
चैपाईः- भीमकुंड की कोठी नीकी। सोभा कछु वर्णन होई की।
वट तट निकट विकट मैदाना। तहाॅ भूप खेलहिं चैगाना।
भूप कूप सुंदर बॅधवायो। रहट पंच तापर धरवायो।
बगिया येक तहाॅ लगवाई। चहुॅ दिश उपवन की अमराई।
ता विच कोठी बनी विशाला। सीतल छाॅह सुखद सब काला।
झरपे झपीं झरोखन झॅजरी। छजा मजा लख शिखि गण बगरी।
रंग विरंग झालरें लहरें। ऊपर केतु पताका फहरे।
कंचन जड़ी किवरियाॅ चमके। गैस प्रकाश चन्द्र से दमकें।
दोहाः- येक ओर महराज की,बनी रहायस खास।
बनी दूसरी ओर जो,तहॅ रनवास निवास।।
चैपाईः- ऊपर दरवाजन पै खिरकी। नचें मयूर लगावें फिरकीं।
हय शाला गजशाला नोने। मोटर खाने बने निरौने।
तुलसी धरा बने अतिसुंदर। चित्र विचित्र बनाये मंदर।
जैपुर के कारीगर नोने। फूल बनाये चाॅदी सोने।
गमलन कमल खिले गुल बूटे। वने हौज फब्वारे छूटे।
वेलदार गज फर्स बिछाये। मानहुॅ सुभंट दुलीचा लाये।
सोहंे दरवाजन महरावें। चलत पंथ के पथिक बुलावे।
दोहाः- ऋतु बसंत ग्रीषम विषम,लपट झपट पतझार।
मोटर चढ़ बढ़ चाव से,खेलहिं न्रपत सिखार।।
कवित्वः-
(1) डाट को लगाय आय धाबन जताई धाय,चलिये महराज आज वेग बड़े गारे है।
मोटर सजवाय तुर्त धाबन लै धाबन संग,छेंके चैगिर्द वीर सामने हॅकारे है।
मार के छलाॅग घूम लूम को घूमाय रहों,कान खड़े करके चवाय दाॅत डारे है।
उछल देख भूप ज्यों सु,नल्ल पै चपल्ल त्यों,रफल्ल सैर मार से सबल्ल शेर मारे है।
(2) अब निकसो वीर वेग नाह कहें नाहर से,राजन के काज मही आयो चुलपोली से।
खाय मास मास को बढाय काम परग्यो सो,निकसो नहिं जावै भू माता की ओली से।
सुन कंे ललकार धाय उछलो किलकार मार,सेहे से लपट दपट गर्जो निज बोली से।
चोंक झट दावी न्रप चैंक सौ पुराय दियो,चिडिया सौ लुढक गयो इंडिया की गोली से।
(3) कानन से सुनकंे इत आयो सांबत सिंह,बब्बर वन भाग गये छोड़ छाड़ गारौ है।
गेंडा गज सेहर अरू केहर वन गब्हर सें,सूकर गये पूॅछ से व रीछ दै हुॅकारो है।
महिषासुर अन्ना यक धायो जब सन्नाकर,भन्नाकर गोली सें फूट गौ मथारौ है।
शेर मार-मार सें पठार पै पछार डारो,रोवें जमराज हाय वाहन हमारौ है।
चैपाईः- लैन कटाय डाॅग रखबाई। प्रतिदिन भूपत करहिं हॅकाई।
साभर रीछ बाॅध न्रप सारें। शेर मार सें शेर पछारे।
चालै इंडियन जवै दुनाली। चटपट फारत शेर कपाली।
झपट वीर सूकर जब मारे। आर-पार कर देत दुधारे।
भरत चैकड़ी मारत चीते। वाघ जान पावत ना रीते।
महिषासुरै अस्त्र लख पाये। धड़ से भिन्न शीश कर लाये।
साम्हर रोज खोज के मारें। ढूड़े लेत नाहर को मारें।
गिर घाटन में पचपन खाई। सों सर कर मोटर दौराई।
कवित्वः-
(1) हिम्मतपुर हिम्मती नवीन नये खेरे के,पाठा पठारन के सिह सिंग बारकें।
पंचानन पंची के जुडावन जुनवानी के,सेहे के सेहर सो केहर सतधारे कें।
बब्बर विदेश के नरेश देश देशन के,बैठे दरवार बीच शानदार पारे के।
मंडल नरेन्द्र के मृगेन्द्र हाथ बाॅध खड़े,चाकर भये डोले साबंत सिंह द्वारे हैं।
(2) महिष सॅघारे मदरास के प्रयास बिना,केहर बॅुन्देलखंड मंडल के मारे है।
बब्बर विदेश के भिड़ारन के,सेहर नये पाठा पठार के पछारे है।
ढॅुक ढॅुका के खेल खेले अलवेला ने,मर्द गर्द सीपी के सेहरकर द्वारे है।
विजई बिजावर के महराजा साबंत सिंह,राज करो जौलौ नभ चन्द्र सूर्य तारे है।
छन्द हरिगीतिकाः-
था येक शेहर विपिन मे,वह माॅसभक्षी था भला।
ढूढ़ लेता आदमी को,भ्ेाज देता करबला।
जानवर क्या चीज थे,पशु और भेसों का झला।
मार खाता खून पीता,घोंट देता था गला।
भूप जाकर रूप देखा,हाॅक कर दीन्हा हला।
लूम धरती घूम पटकी,गर्ज उðा चंचला।
इंडिया कर लै दुनाली,डाट घाली सिर पला।
ग्रामवासी कहें जय-जय,धन्न तेरी न्रप कला।
दोहाः- शेर मार मोटर धरे,खेलंे भूप सिकार।
धाय ग्रामवासी मनुज,जै जै कहें पुकार।।
चैपाईः- देखहिं वन ग्रामन की शोभा। भूप रूप देखहिं मन लोभा।
सरित सरोवर तीर बराने। सेहे विवर अनेक दिखाने।
वाॅस काॅस के टपरा नीके। मटका भरे धरे हैं धी के।
बड़े भोर ग्वालन दधि मोरे। बैठीं ललन खिलावैं दोरंे।
विन्ध्याचल की सघन तराई। जहाॅ बने कोंड़ा सुख दाई।
डगर बगर में साॅड दलाकें। टांट विजाहर भैंसा धाकंे।
ऊॅचे वरन-घरन की नारी। वरन-वरन की पहरें सारी।
सरिता की कछारन धार चढ़ी,तरू हार कें डार मनी पग चूमें।
’’घनस्याम’’ बहार निहार सखी,ब्रज की वनिता मतुआरी सी घूमें।
(3) तरू फूस किरों के वने टपरा,मडुआ पैं धरे ढबुआ जू हवाई।
लहरें ककरी कुम्हड़ा की लता,छिड़िया मे बुवी चहुॅ ओर मकाई।
घिर कोट रहे वन शैलन के,सरिता नद नारे भरे तहॅ खाई।
घनस्याम निरोग हमेश रहें,सुख चैन की बाजत रोज बधाई।
(4) छहरे कट घूॅघर वाली लटे,पट छोर दुकूलन कूलन पै।
भुज बंदन की फुॅदरी लहरंे,अलि गुॅजत फूल गदूलन पै।
हिलरें हिय-हार उरूजन पै,मनो फंद मनोभव फूलन पै।
झुक झुमें विलोरें दही धनियाॅ,घनस्याय मथानी के फूलन पै।
(5) सखि जो सुख है वन ग्रामन में,अरी सो सुख ना शहरों के मझारी।
मडवा पै चटाई विछी गिल में,तिन पै ढबुआ मनो ऊॅची अटारी।
चहॅु ओरन धान के खेत लगे,छिड़िया की मका बगिया अनुहारी।
अहो! दूध महेरी सुहात हमें,घनस्याम सुहातन खीर सुहारी।
(6) रस चाहत गोरस चासन के,सर माखन दूध महीरन के।
बनके तनके सुख हैं मनके,धन के सुख और सरीरन के।
निशि केल नवेलन बेलन के,मुख संुदर देख अहीरन के।
’’दुज’’ देत बहार अजीब लखौ,वन ग्राम वरानन तीरन कें।
(7) दम कें घन दामिन सी वन में,पिक वैनी कहॅू मृगनैनी दिखातीं।
वन ग्रामन तीर वरानन की,झुक कानन की लतिका मुस्क्यातीं।
विरही जन जान अजान बनी, रसरंग भरी हॅस बाते बतातीं।
तन गोरी सी भोरी अहीरन की,मन लेती चुराय सनेह लगातीं।
(8) विधि सों कर जोर करो विनती,वरदान मिलै इतनों मुंह मागे।
नित भोजन दूध महेरन के,टपरों मे रहे वन वागन बागे।
मुख सुन्दर देख वरानन के तट,बैठ वरानन के अनुरागे।
’’घनस्याम’’ वधूटी अहीरन की, जिनके पग इन्द्र बधूटी जु लागे।
(9) नर देही दई विन स्वारथ की,ब्रज की रज होती कहॅू यह मेरी।
लगती पग गोपिन की उड़कें,हरती तन ताप लगी यह मेरी।
करती दुख दूर करेजन के,विधि पै वस ना कछु मारत फेरी।
घनस्याम हॅसी से खुसी से कहो,सिल होती अहीरन दोर की देरी।
(10) सुख होते कहूॅ यमुना तट के,गुण गावते श्यामरे छैल छली के।
धरते मन मौजन में फिरते,धन होते कहुॅ गिरराज गली के।
जलजानन कानन फूलन कें,अलि होते कहॅू मकरंद कली के।
रंग जावक केशर होते कहॅू,लगते पग में व्रषभान लली के।
दोहाः- रानी भक्त गनेश दे,जिन बनवायौ धाम।
पुक्खन-पुक्खन लाय कें,पधराये श्री राम।।
चैपाईः- आधौ नगर तीर सरिता के। नाम ओडछे पर भये ताके।
करहि नरेश इनायत सेवा। चलके देखो नगर महेबा।
छत्रसाल न्रप की रजधानी। बने मुकरबा अवै निशानी।
जगतराज यक ताल खुदायो। नाम जगत सागर धरवायो।
गोंड़न की देखी रजधानी। गंज खटोला बने निशानी।
दुर्गम दुर्ग कोट सर नीके। भॅड़ा कढ़त अब लग है नीके।
भीम कुंड के कुंड निहारे। पिये नीर अघ पातक टारे।
देख प्रभाव कुंड कौ भारी। अकबर भूल गये सिंसारी।
देख घोघरा शिवगढ़ नीके। गंग कुंड देखे पुन घी के।
वीरन की देखी चतुराई। बादशाह के मन में भाई।
निज मंत्री सम तेहि बनायो। देख वुद्धि निज मुहें लगायो।
शिवगढ़ अकबर शाह निहारो। परो शाहगढ़ नाम पियारौ।
रामरतन धनु यज्ञ कराई। मंदिर हरि शाला बनवाई।
घ्रत गिर भूम समानो घी में। तासें भई चीकनी चीपे।
गुप्तधार पुन गंग बहानी। मौने सइया प्रगट दिखानी।
मौनी मौन कियो व्रत धारन। योगी सेज लगाई आसन।
मौनेसैया नाम कहावै। भीम कुंड के पते बतावैं।
दिल्ली वारन मेख उखारी। नाम हार की भई डिलारी।
वट तट संभु जटा फटकारे। लट छट कट तट उतै पधारे।
पुन तहॅ छिपी गंग की धारा। चली जटन से टोर पहारा।
गिर कंदर मंदर अति सुंदर। ब्राजे तहाॅ जाय शिव शंकर।
दोहाः- वावन तन धर गौर ने,गौराई के ठाम।
प्रगट भई जग तारनी,वावन गंगा नाम।।
चैपाईः- वहाॅ येक संुदर अस्थाना। नाम जटाशंकर जग जाना।
भये बरव्रू अंतर ध्यानी। जिनकी महिमा प्रगट दिखानी।
कंचन काया कोढीं पावै। अयन नयन सुख दैन कहावै।
हाॅथे देवैं मठ पर नारीं। सुत होवैं अरू पियहिं पियारी।
अच्छी कंुज बनी चैकोनी। मढ़िया बन बाई धन सोनी।
येक भक्ति शाला बनबाई। नरबदिंया की भई भलाई।
सुंदर मग बनवाई छतारे। अमर नाम कर लये पियारे।
जो इतहास प्रभाव पुरानो। ताकौ कछु संक्षेप बखानो।
कवित्वः-
लख गोरी छव रावरी भरी है उमावरी,नाहर को चावरी मोटर चढ़ धावौरी।
सखि नैन फूल पाॅवरी तुमकों बताॅवरी,तिलक लगावरी न रीझ होय वावौरी।
शुभ कीरत को गावरी न्रप जै मनावरी,फूलन से छावरी तारियाॅ बजावोरी।
अरी दौंर दौर आवरी देख देख जावौरी,आज परो दावरी जो राजा इतै आवोरी।
दोहाः- सुने ग्राम वासिन बचन,भूपत देत इनाम।
दीनबन्धु विनती सुनत,पहॅुचे अपने धाम।।
कवित्वः-
देेखिये नरेन्द्र की मृगेन्द्र से लड़ाई ठनी,दोनो रणधीर वीर माने नहिं शंका है।
गर्जे घन घोर जोर शोर होत भारी वन,झाॅई से पहार हार गूंज रहे झंकाहे।
हेरे हुशयार कही राजा वन राजा सुन,भैंसा पशु गाय नही मानुस निशंका है।
शेर झरमार से पठार पै पछार दियो,शेर मार भूप भौन आये दै डं़का है।
दोहाः- प्रवसत भीतर कुंड के,तन के पाप विलाॅय।
अस प्रभाव है तहाॅ कर,कपटी अघी न जाॅय।
यह अचरज की बात नहिं,अचरज करहु न कोय।
जैसी प्रभू मरजी करहिं, ताछिन तैरी होये।।
इती श्री भीम पुराणे महाभारतान्तर्गत वनपर्वाणी भीमकुंड,श्री सांबत सिंह अहेरवर्णणो नाम अष्टमोध्यायः 8
दोहाः- सुजन सुनहु अब कहत हो,भीम कुंड उतपत्त।
कथा नवम अध्याय मे,मिटै सकल विपत्त।।
चैपाईः- अचरज सुनत लगत है भाई। कुंड माह कस गंगा आई।
पूरव दिस सरिता सब जावे। तिरवैनी कस उलट बुहावैं।
याकौ भेद तुमहिं समझाऊॅ। उल्टी सूधी यहाॅ बताऊॅ।
हिम गिरसुता गंग भाई कैसे। भागीरथ के रथ संग जैसे।
प्रगटी निज भक्तन के कारण। उल्टी सूधी भई जग तारन।
नतबहु आय द्रोपदी रानी। प्रगटी जान त्रषित महरानी।
लिखीपुरानन मंे जे बातंे। छै महिना की हो गई राते।
तब बल भागीरथ जो आनी। येक धार पाताल समानी।
सौ पाताल लोक सें आई। भीम कुंड मे प्रगटी आई।
दोहाः- गुप्तधार हो गई वहाॅ,गई शाहगढ़ ग्राम।
घोघर मे प्रगटी तहाॅ,भयो घोघरा नाम।।
चैपाईः- संत समाज वहाॅ जुर आई। सुरसरि की महिमा कवि गाई।
संत स्वरूप संभु इत आये। मंदर कंदर टोर बनाये।
तब साधुन भंडारौ कीन्हों। ग्राम-ग्राम प्रति नेवतौ दीन्हों।कनक पिसी मानी दो मानी। घी को पत्र गये सुनवानी।
घ्रत जुडावन दरजी कछु दीन्हों। पाटन सें कछु आओ उछीन्हों।
पाटन वही वीरना केरी। जन्म भूम यह जानी मेरी।
अकबर शाह वनायो मंत्री। प्रचिलित बात बतावत जंत्री।
घी की नाही सुनकर साधू। कियो कालिया क्रोध अगाधू।
छूटी द्रगन क्रोध की झारें। भई संखिया विष की छारें।
संत समाज बड़ी सुखदाई। गंगा की अस्तुती सुनाई।
नीर उधार गंग सें लीन्हें। फिर भंडार त्यार तिन्ह कीन्हें।
करामात साधू की देखी। कुण्ड नीर की महिमा लेखी।
सुनी वीर वर अकथ कहानी। घ्रत हो गयो कुण्ड कौं पानी।
दोहाः- सुनो वीरवर धीर धर,अपने कानन श्राप।
परम चतुर कारन समुझ,लगे साधु पग आप।।
चैपाईः- हाथ जोर अति विनय सुनाई। चूक क्षमा अपनी करबाई।
मटका चार घीऊ धर आगे। श्राप अनुग्रह के वर माॅगे।
दीन दयाल साधु सब जाने। होहु वीरवर चतुर समाने।
लक्षण देख विलक्षण तोरे। बॅधे शाह के दोरैं घोरे।
क्रोंध कालिया विष फुस्कारे। तातें भये कालिया नारे।
होय संखिया विष वन माही। या में अब संसय कछु नाहीं।
घी उधार गंगा सें लीन्हों। व्याज सहित सो हमने दीन्हों।
अस कह घ्रत नायो कुण्डा मे। दियो वीरवर जो गुंडा में।
यह सुध पहुॅच गई हर हाटन। ग्राम वीरना वाली पाटन।
अकबर बादशाह सुध पाई। करामात साधू मन भाई।
भक्त राज अकबर थे पूरे। बादशाह थे साधू पूरे।
छत्रपती जिनके ग्रह रानी। थी सरताज रही हिन्दुआनी।
दोहाः- जिनके चरित अनेक विध,कहे कविन के नाह।
जग जाहर कीरत धबल,थे दहली के शाह।।
चैपाईः- दहली सें धाबा धर कीन्हो। सुदिन सोध विप्रन कछु दीन्हों।
दल लै चले आगरे आये। शहर अकबरा बाद बसाये।
लसगर परे ग्वालियर आये। सोनागिर दतिया के भाये।
झांसी देख ओड़छै आये। राजाराम देख सुख पाये।
वेत्रवती गंगा सुख दैनी। तीन ताप अघ पवि की छैनी।
केशवदास व्यास कवि नाना। भक्त भये हरि सुयश बखाना।
सबा पहर कंचन धन बरसे। घाट कंचना लख मन हर्षे।
विर्सिंग देव तुला कर वाई। इक्यासी मन मुहर चढ़ाई।
दोहाः- छतरपुर अंतर्गतहिं है,देवरा तहसील।
तहते है अस्थान यह,दक्षिण दिस षट मील।।
नगर बिजावर से परत,पश्चिम दक्षिण कौन।
यक योजन के अंत में कठिन पंथ विच दौन।।
चैपाईः- पथरीली मग अति दुख दाई। निर्झर गिरि वन संघन सुहाई।
कोशक ग्राम इमलिया जानो। उततें खैरा उतनहॅ मानो।
उतनी कोल्हूपुर की बेहर। निवसत जहॅ मृग पक्षी केहर।
सजल बहें मग नदिया नारे। गिर घाटी वाहन अति भारे।
लता हरित वन कुंज बिताना। हरे भरे बट तरूवर नाना।
कोसक उत हर अस्थाना। विश्वनाथ के कीजे ध्याना।
गिर कुंदर मंदर अति संुदर। ब्राजे गुफा आय शिव शंकर।
कूकत मोर कोकला बोलंे। मदमाते अलिगण उड़ डोलें।
गिर कंदर सुंदर गंभीरा। सुखद बहत शुभ चिविध समीरा।
पल्लव हरित प्रसून सुहावन। हर अस्थान महाॅ शुभ पावन।
दोहाः- राजत जुग गिर मध्य गुह,साजत साज विशाल।
ब्राजत शिव शंकर यहाॅ,लिंग स्वरूप रसाल।।
चैपाईः- जटा जूट सों गंगा बहई। त्रिविध ताप तन दुख अघ दहई।
माथंे चन्दन अच्छत सोहै। बेल पत्र मुनि जन मन मोहै।
कनक प्रसून गुच्छ सिर नीके। आक फूल फल कमल कली के।
मौर रसाल भौंर सुख दाई। कलगी हरित बाल छब छाई।
नंदीगण वाहन अति नीके। बैठे पास भावते जीके।
विश्वनाथ गुह भीतर ब्राजे। भानु तेज लख निज हिय लाजे।
जो कछु कहीं सो उपमा थोरी। कथा अपार वुद्धि लघु मोरी।
दोहाः- संुदर शिव अस्थान शुभ, सदां लगत रमणीक।
हर भक्तिन सुख देत नित, निरख लगत जग फीक।।
चैपाईः- गिर सें निकसी वावन गंगा। शीतल कुंड लिये निज संगा।
शुभ दालान बनी अति नीकी। झाॅकी तहॅ त्रैलोक धनी की।
वहाॅ लगी यक सुंदर धूनी। बैठे संत रहै नहिं सूनी।
मंदर कंदर पै यक नीको। गावे भजन लगै जग फीकौ।
अध गिर पैं यक दुगई बनी है। साधू ब्राजे राम धनी है।
नग सें झिरना झिरत हजारा। पक्षी कलरव करत अपारा।
बनी रिपट अॅगनैया नौनी। मारे उमग वैद संग धोनी।
सुंठी चूना ईटन पागी। चढ़न काज पर्वत पै लागी।
शीतल छाया घनी विशाई। रवि की किरण परै न दिखाई।
बालक कौं मुुन्डन करवावें। याचक भुसुर नेवत जिमावे।
उत्सव होत रहत नित ऐसे। कहे सुलोचन देखे जैसे।
येक समय देखो अस हाला। सो वर्णत कथा रसाला।
नाऊ बिजावर कौ यक गयऊ। संगै निज सुत कौं ले गयऊ।
कर अस्नान चढ़ायो जल है। भोजन कर मेला लख भल है।
इतने मे सुत इते हिरानो। ढॅूढ़त फिरो नाऊ घबरानो।
शिशु मेला देखत तहॅ रहोऊ। रिपट परें कछु यक जल रहऊ।
रिपट रहे ऊॅची बहु तेरी। द्रष्ट परी शिशु केरी।
दोहाः- नर नारिन ढक्का लगे, गिरयो सु तन सुत जाय।
ऊॅचे सौं धरणी परयौ, शंकर लियो बचाय।।
चैपाईः- दो वाहन की दुबच मझारी। जाय परो गति जेऊ दुखारी।
तब नाऊ ढ़ॅडत तहॅ आयो। सुत गत प्राण देख दुख पायो।
मूर्छित परो विकल तब धरनी। बेसुध भयो सोच कर करनी।
सिसु लैं शंकर के ढिंग गयऊ। हाथ जोर सिरधर यह कहेऊ।
नाथ येक सुत मेरे दीन्हो। का अपराध करो यह लीन्हो।
किये विलाप कलाप घनेरे। मूर्धा नजर संभु तब हेरे।
बालक के घट आये प्राणा। तब नाऊ दीन्हो बहु दाना।
विप्रन को भोजन करवाये। दीन दान चरनन सिर नाये।
करो भंडारौ कथा बचाई। मुदित फिरो ग्रह सुत को पाई।
स्वामी पलट नाम घर दीन्हौ। हर परसाद नाम धर दीन्हो।
दोहाः- ऐसे शिव शंकर सदा,दीनन होत दयाल।
भजत और कों तज,उन्हे जिन्हे डरावैं काल।।
चैपाईः- अपर येक इतहास पुरानो। ताकौ कछु संक्षेप बरवानो।
बड़े ग्राम की ढीमर वेवा। करन गई रही हर की सेवा।
मंदर पोतन आई सौई। चढ़ी नसैनी ऊॅची जोई।
पोतत मगन भई कछु गावै। सेवा रंग रॅगी हर षावे।
डुगी नसैनी कर पग छूटे। रसरी के बंधन सब टूटे।
गिरी धरन ऊॅचे सों नारी। टोरन ऊपर विवस विचारी।
फूटो मुंड दसन जुग टूटे। प्राण पखेरू तन सें छूटे।
हाहाकार लगे नर करना। सके उठा नहिं रही वि वसना।
दोहाः- औघड़ दानी शिव बड़े, लख दासी बेहाल।
जीऊ दान प्रभु ने दियो, बोल उठी ततकाल।।
चैपाईः- जै जै कार भई मंदिर में। औरो कथा कहत सुंदर मैं।
ग्राम लखनवाॅ के नर नारी। मेला की कीन्ही उन त्यारी।
सदाॅ रहत है ऋतु बंसतसी। मेली सैनारती कंत सी।
रमत सदाॅ मन जो उत जावै। माया मोह पास नहिं आवैं।
तहॅ पहरौ है पवन पूत कौं। त्रास नही तहॅ प्रेत भूत कौं।
दोहाः- सुंदरता कहॅ जग कहों, बाढै कथा अपार।
हनुमत की अस्तुत करों, निज मत के अनुसार।
सोरठाः- बन्दों पवन सपूत,दीन दुक्ख भंजन हरी।
रामदूत मजबूत, भक्त पैज पूरी करी।
टूटै विपत पहार, जब-जब सेवक सीस पै।
तब-तब करी सॅमार, संकट सेवक के हरे।
चैपाईः- बन्दों वाल रूप हनुमाना। राम पताका सब जग जाना।
तनक-तनक पग नूपुर पाॅवन। अरूण वरूण पद नख मन भावन।
मनक-मनक जंघा जुग नीकी। कट करधनी मनोहर जी की।
पदक हार उरहार अमोले। कठला कंठ देख मन डोलै।
व्रषभ कंध आयत उर सोभा। भुज प्रलम्व लख सुर मन लोभा।
अंगद कंचन कंकण राजै। कानन कुंडल अति छव छाजै।
पिंगल नयन केश घुघरारे। म्रकुटी बंक सुआनन प्यारे।
लाल बाल रवि लख संधाना। मुख नायो पाक्यो फल जाना।
आनन तेज दिवाकर ऐसौ। ताके सन-मुख संकट कैसौ।
सियाराम के काम सम्हारे। लक्ष्मण प्राण बचाये प्यारे।
माथंे तिलक मनोहर ब्राजे। सुमन श्रंगार हार उर साजें।
जै कपीश प्रभु लंका डाही। जै हनुमान ज्ञान अब गाही।
जै बजरंग वीर हनुमाना। सियाराम हरि सुयश बखाना।
हरे राम अहरावण जब हीं। पैठ पताल वीर गों तबहीं।
सकुल संघार कियो जग बन्दन। फूलमाल तन चर्चित चंदन।
लखन लाल के प्रिय हित कारी। गिर उपार लये गिरधारी।
वैद सुखेन सजीवन चीन्हीं। अभय बाॅह रघुनन्दन दीन्हीं।
सफल मनोरथ जन के करहीं। कपि कंुजर सुमरत दुख हरहीं।
सिंधु लाॅघ सीता सुध लीन्हीं। प्रभु कर कंजन मुदरी दीन्हीं।
सियाराम दीन्हें वर्दाना। बल वुद्यि विध्या ज्ञान निधाना।
मंगल मूरत मंगल दाता। हरत अमंगल रास विधाता।
मन ईच्छित फल देत गुसांईं। सरनागत वत्सल की नाईं।
दीन दुक्ख भंजन की झाॅकी। भूलत नहीं चिवुक लट बाॅकी।
मन बच काय करैं जो सुमरन। होय सिद्ध साखी सो हरिजन।
पातक अति दीरघ दुख हरही। हनुमत सेय सर्व सुख करहीं।
जै हनुमत जै गिरवर धारी। जय पवनात्मज जै सुखकारी।
जै जै सियाराम के सेवक। जै जै मन वाॅछित फल देवक।
जो बत्तीसी पढै़ तुम्हारी। पूरन होय असीस हमारी।
दोहाः- बन्धन से छूटे तुरत,मनवाॅछित फल जोय।
दुज घनस्याम प्रसाद से,वत्तीसी फल होय।।
चैपाईः- मेला यहाॅ लगत है भारी। जुरे ग्राम प्रति नर अरू नारी।
होंवें पर्व आदि जे पावन। तब-तब मेला लगत सुहावन।
मास-मास जो होय अमावस। शीत होय अथवा हो पावस।
जावें वर्ण लोग अरू वामा। एकल छोड़ जावे धन धामा।
सोमवती को मेला भारी। मकर पर्व की बात नियारी।
तिथि पाचें बसंत सुख दाई। लागै मेला ता दिन भाई।
शिवरात्री को यात्री जावें। बाॅधे मौर सीस सुख पावे।
नित नूतन होवें घमसाना। करें सकल गंगा अस्नाना।
दोहाः- शीस नाय अस्तुत करें,घन्टा ताल बजाय।
हाथ जोर यक पग खड़े,सो मैं कहत सुनाय।।
छन्दः-
पखा मोर धारें जटा शीश सोहै। लसे पुष्प की मुन्ड माला विमौहे।
गले कंुकुमा भस्म को लेप कीन्हे। करे संख को नाद श्रंगी ही लीन्हे।
लसै उर्वसी नील कंठै विराजे। लसै खौर माथें स्वधा धाम छाजै।
बनी भाल बेंदी लसै आॅख तीजी। बसै पाॅव मे सो जटा गंग भीजी।
लसे वस्त्र पीरे त्वचा व्याघ्र की है। मनो दामनी ज्योत जम्बाल सी है।
लिये चक्र तिरसूल कर शोम राशी। करें दास रक्षा सवै दुष्ट नासी।
रमा वास ही में उमा अर्ध अंगै। सदाॅ देव रंगे भ्रमे भूत संगै।
चढ़े यान नागारि नन्दी सु नीकें। रयंे वास वैकुंड कैलाश तीके।
दहयो काल जन्मे अनंगै जरायो। धरयो पर्व तैसो गरें शेष नायो।
दवा ज्वाल माला पियें काल कूटैं। लिये नाम के,पाप दारिद्र छूटै।
विध्वंसी भले दक्ष के यज्ञ दोऊ। तरें पाप से औं धरें ध्यान कोऊ।
कहें विस्नु शंभू सवै लोक जाकौ। दोऊ रूप येकै नही भेद ताको।
करो वन्दना की सुनो बोल मेरौ। कृपा कौं लखों हो सदा ध्यान तेरौ।
जगत पाल दोऊ दिये आस धारी। सदां जय,सदां जय,सदां जय तिहारी।
दोहाः- करे प्रदक्षण दक्षणा, गावें बाबा गीत।
भोजन करहीं करावहीं ब्राम्हण देख पुनीत।।
चैपाईः- कोऊ यक भंडारौ तहॅ देवें। कौऊ यक दान देत कोऊ लेवें।
सत्य नारायण कथा करावें। सत्य देव पद पंकज ध्यावें।
पटना साह तहाॅ कर आयो। संग माह निज दुहिता लायो।
भयो तहाॅ मेला घमसाना। छूटे कर पुत्री नहिं जाना।
गसा गसी मे कोमल बाला। गिरी धरन विविरन बेहाला।
प्राण कंठ शीतल भे अंगा। ढॅूड़न लगे रहे जे संगा।
देख दसा रोवैं महतारी। करूणा करत सकल नर नारी।
विश्वनाथ यह कैसी माया। कैसी कथा व कैसी दाया।
दोहाः- स्याने जुर कें जा कहें, धीरज दै समुझाय।
मृतक उठा डारो शरण, शिव शंकर के जाय।।
चैपाईः- मंदिर शिव के ले गये जब ही। हेर उठी बोली वह तबही।
जै जै कार लगे सब करना। धंन-धंन प्रणतारत हरना।
जै सच्चिदानंद वृष केतू। जै जै शिव जय-जय जग सेतू।
सुख सें भंडारौ तिन्ह दीन्हों। कन्या सहित गमन ग्रह कीन्हो।
करी मनोरथ जीने जैसी। सो पूरन भई तीकी तैसी।
सुख संपत सुत वित जे चाहें। जावैं उत कछु दिन मैं पाहैं।
कोढ़ी के कंचन तन होवें। देख जो होय सो सुख से सोवें।
नव युवकन की होत सगाई। बाॅझ भरत गोदी सुत पाई।
दोहाः- देत सकल मन कामना, दर्शन सें अपनाय।
सुमरन जो मन सें करत, शंकर होत सहाय।।
शम्भु चरित पुन जगत, हित श्रवण सुखद इतहास।
किंवदन्ति वर्णन करहुॅ, सुनिये सहित हुलास।।
चैपाईः- संवत पंदरह सौ इकतीसा। अकबर शाह रहे अबनीशा।
चक्रवर्ति अरू प्रबल प्रतापी। रक्षक धर्म कर्म श्रुत थापी।
मुॅह लग रहे वीरबल जिनके। जग प्रख्यात रत्न नव उनके।
केशव तुलसी सूर प्रवीना। रहे महात्मा सम कालीना।
चहुॅ दिस वीन चैन की बाजैं। इन्द्र प्रस्थ रजधानी राजै।
पूरण भक्त साधु सुर सेवी। धर्म सनातन मानत देवी।
येक समय सो यमन नरेशा। देखन चले जाॅगालिक देशा।
रही अराजकता जग फैली। फैली रही बगावत शैली।
सत्रुदमन हित संग कटकाई। सो आयो यह देशन भाई।
गोड़ी देश प्रदेश घनेरे। भीमकुंड पर लिये बसेरै।
दोहाः- मिले बीरवल आयकें, शिवगढ़ केर मुकाम।
मौने सैया घौघरा, परौ शाहगढ़ नाम।।
गौराई कै शिखर पर, सैनक सैन अपार।
परो बादशाही कटक, नाम डिलारी हार।।
अन धन वस्त्र दान जे देवें। सोई कैलास वसैं सोई लैवंे।
शीतल नीर पिआवत जोई। अंत अमरपुर पावत सोई।
खिचरी दान और गुड़ सत्तू। प्राणी रहें सदा मन भत्तू।
संुदर विश्वनाथ रजधानी। विस्वंभर व्राजे सुखदानी।
राजा प्रजा पुत्र सम पालौ। धरहिं धर्म पग परहिं न खालै।
प्रगट विचार संभु के आगे। जाय समीप भूप वर मांगे।
दान पुन्य मनमाने कीन्हें। आसुतोष शंकर वर दीन्हे।
करी प्रतिज्ञा जो महरानी। जटाशंकरी कलां दिखानी।
राज कुमार भये अलवेला। विक्रम वीर पुमार बुॅन्देला।
भरी गोद गादी हरयानी। अमित दान दीन्हें महरानी।
वर्तमान न्रप ब्राजै गादी। गादी बाद भई शुभ शादी।
कृपा जटाशंकर की कहिये। पुन आगे मिलहे जो चहिये।
यैसे संभु भये वर्दानी। नित नई कला प्रतक्ष दिखानी।
दोहाः- मनसा बाचा सों करै, जो नर हिय विश्वास।
औघड़ दानी शिव बड़े, ताकी पूजें आस।।
चैपाईः- जो रेवा जल आन चढ़ावें। सौ कैलास बास नर पावें।
बेल पत्र नरियल सिर धरें। ताके नव निध सौं ग्रह भरें।
पूजन भजन करे जो जाई। पावें सुलभ भक्ति सुखदाई।
जो फल होय तीर्थ के जायें। सो फल सुलभ यहाॅ के न्हाये।
हर भक्ती जो कथा करावें। देहिं दक्षिणा विप्र जिमावें।
दान पुस्तकें करे जे भाई। अक्षय पुन्न होय सुखदाई।
रूद्र यज्ञ के फल सोई पावें। जो हर प्रिय हर कथा सुनावें।
भणित भदेश कथा अति नीकी। सुनहिं सुजन चित दै शिव जी की।
दोहाः- महत जटाशंकर सुने कलि, के कलुष नसाय।
सुख संपत सुख होय, नित शंकर करे सहाय।।
चैपाईः- गुप्तधार ह्वै उतै बहानी। जटाशंकर जटन समानी।
सरित स्यामरी संुदर तीरा। लहर-लहर के वट गंभीरा।
जोगी डाबर वहीं कहावैं। हरित ललित सोई हार सुहावें।
जागी करे तपस्या वन मे। संग समानी आय जटन मे।
ब्राजे भीम कुंड उर अंदर। भये भिया नारे अति सुंदर।
प्रगट भई विन खोदी सावर। नाम कहाये जोगी डाबर।
जोगी गोडन जूड़ी लागी। नाम जुडगुडू धरो विरागी।
जौ इतहास यहाॅ कर भाई। कहिं हों कथा प्रसंग बनाई।
चालिस गज कौ चैतरा, सुन्दर बनो विशाल।
विध्यमान अब लग इतै, ताने तम्बू पाल।।
चैपाईः- बादशाह हर भक्त सुजाना। करत रहो गंगा जल पाना।
भागीरथी नीर नहिं वन में। अकबर सोच रहे निज मन में।
किये जटाधारी कों सुमरन। प्रगट शंभु देख ति हि हरिजन।
पावन गंग शीश लट भीजी। वाण त्रिशूल आॅख पुन तीजी।
जटा जूट अहि मौर विराजै। चन्दन खौर चन्द्र छव छाजै।
नंदी गण वाहन असुआरी। देखे जोगी रूप पुरारी।
बादशाह वृत बोले बानी। बरम्व्रूह शंकर वर्दानी।
पावन गंग नीर शुभ नीके। कीजे पान शोकहर जीके।।
भीम कुंड के विवर समानी। भागीरथी धार समुहानी
दोहाः- वावन तर धर गौर ने,गौराई के ठाम।
प्रगट भई जग तारनी,वावन गंगा नाम।।
चैपाईः- भये बरम्ब्रू औघड़ दानी। कलि युग मध्य प्रसिद्ध कहानी।
जौ जन वावन गंगा नहावें। अयन नैन कुष्टी तन पावें।
गोदी बालक बाॅझ खिलावें। मठ पै हाॅते आन लगावें।
काॅबर आन चढ़ावै कोई। मन वाॅछित फल पावें सोई।
अस कह हर भये अंतर ध्यानी। अकबर पान कियो सोई पानी।
भरी अंगुरी छिंगुरी वोरी। सुवरन वरन भई अति गौरी।
बादशाह हिय भई परतीती। भई परसिद्ध लोक असरीती।
भये जटाशंकर जगजाहर। खोईया वारे आसन नाहर।
दोहाः- विध्यमान सोई चैंतरा, खकरी कोट विशाल।
क्यान राजगढ़ के महल, दिखा परत अब हाल।।
चैपाईः- सुवरन वरन अंगुरी देखी। बादशाह जिय दुखित विसेखी।
करते बने न करते कारज। कंचन लिखित मनोहर वारिज।
भोजन करत बने नहिं करते। अस्तुत बहुर कीन्ह शिव हरते।
जै त्रै लोचन जै मदनारी। है विश्वंभर हे त्रिपुरारी।
गिरजापति कैलाश निवासी। ज्योति अखंड सदां सुख रासी।
हे सच्चिदानंद वृषकेतू। हे अनंद धन हे जग सेतू।
त्राह-त्राह रक्षा हर कीजे। असरन सरन राख जन लीजे।
क्षमा करूहु अपराध हमारे। अन जाने प्रभु भयै तुमारे।
दोहाः- प्रभु माया वस नाथ, जन संतन रहै भुलान।
महिमा जानी नहिं प्रथम, त्राह-त्राह भगुवान।।
चैपाईः- सुन अस्तुत प्रगटे वृषकेतु, हरिजन जान कहे सब हेतु।
संसय लता हरित हरयानी। तुय उरवासी सफल मम जानी।
कंचन कर कर दये तुम्हारे। कंचन धाम बनाओ हमारे।
वामन गंग कुंड मठ संुदर। मम निवास रचिये गिरि कंदर।
गौराई के सिखिर अनूपा। यहाॅ निवास करहिं सुन भूपा।
तेरे भुजा हो हिं अति नोने। झलकत रहै नखन पर सोने।
कलि युग मध्य होहु वरदानी। जग जाहर हो प्रगट दिखानी।
दोहाः- साधु भेष में आये हर, दियो अमित वरदान।
बादशाह मन मुदित भे, भे शिव अंतध्र्यान।।
चैपाईः- बादशाह भुज भये सलोने। रहे नखन पर झलकत सोने।
वावन कुंड रचे मठ नीके। व्राज गये पत पारवती के।
कोट चैतरा सिखर सुहायो। निज हित कटक हेत बनवायो।
आये बहुर शाह रजधानी। जग जाहर शंकर वरदानी।
अब लग बनो चैतरा सोई। नाम बादशाही कह कोई।
रहयो वैश्य कुल में कोऊ निर्धन। निर्धन रहयो रहयो सो निर्जन।
संरदुखा परसादी पाकें। नरबदिया सुत सुंदर बाकें।
पढ़ो गुनो कछु भयो सयानो। विन रूजगार न ठीक ठिकानो।
साहु सई की पुॅजी लगाई। बेंचन लगो बनाय मिठाई।
श्रवण सुने शंकर वरदानी। दर्शन करन गयो प्रण ठानी।
हौन लगी बिक्री मनमानी। जटाशंकरी कला दिखानी।
वावन गंग कुंड अस्थाना। जल चढ़ाय कछु करै सु दाना।
निर्मल तन कंचन भये वाके। परे चरन ग्रह सिंधु सुता के।
सुंदर सती नार शुभ व्याही। मुद्रा भरे तिजोरन शाही।
धर्मवान सुंदर सुत जाये। संभु प्रसाद भक्त वर पाये।
दोहाः- दान मान सनमान सें, राज भ्रात धन धान।
जग आये कौ सबदियो, आषुतोष भगवान।।
सुत नाती पंती सुता, देखे करे विवाह।
धन की कमी न पाईये, नित नये बड़े उछाह।।
आद मध्य सब सुख करै, अंत बसे कैलाश।
देवी छोटे लाल कों दैकर, भोग विलास।।
चैपाईः- भक्ति वनवाये अस्थाना। दिये कजन कहॅ भोजन नाना।
कीन्हे दान पुन्न भंडारे। ताके फल पाये सुख सारे।
भरें विचार अनेकन मन मे। नीऊ जमाय रहे शिव वन मे।
देखो होत कहा अस आगे। देत सदा सेब धन मॅुह मागे।
गुप्ता गुप्त दान जे करहीं। विन प्रयास भव सागर तरहीं।
इति श्री भीम पुराणे महाभारतान्तर्गत वनपर्वाणि भीमकुंड,श्री सांबत सिंह अहेरवर्णणो नाम अष्टमोध्यायः 10
दोहाः- अब दसमे अध्याय मे, देवरा की तहसील।
कथा कहो जुड गुडूकर, सिध्यनाथ की झील।।
देवरा की तहसील में, जमादार पद पाय।
मामा और भनेज दोउ, करत चाकरी आय।।
चैपाईः- खल्ला-रवई ग्राम के वासी। क्षत्री जात पीर मुदरासी।
दयावान हर भक्त सुजाने। खेलत फिरत अहेर दिमाने।
ते आये जुडगुडू सिकारी। ग्याभिन मृगी येक उन मारी।
छौना दो ताके उर माही। गिरे धरन पर उठै सु नाहीं।
दयावान क्षत्री रणधीरा। करूण हृदय द्रग ढारहि नीरा।
ईश्वर अंस जीऊ हम मारे। बिन अपराध चरत वन चारे।
करें विचार बैठ वट छाहीं। कानन सुना परी कछु झांई।
गगन गिरा सुन हृदय समानी। पश्चाताप करहु दोऊ प्राणी।
अंतर पट खुलन गये तुम्हारे। अब सुन लेव उपदेश हमारे।
जोगी डाबर मे जो जोगी। यह सब करणी उनकी भोगी।
वे उपदेश ज्ञान कौ कहहें। भव रूज पाप ताप तन हरहैं।
दोहाः- जोगी डाबर पैं गये, देखे जोगी राज।
सिध्यासन आसीन ते, सिध्य हीन के काज।।
चैपाईः- जोगी के चरनन सिर नाये। हाथ जोर निज हाल सुनाये।
जोगीश्वर हॅस बोले वानी। भूम प्रभाव न जानत प्रानी।
तीरथराज त्रिवेनी संगम। दंडक वन भूसुर जड़ जंगम।
कही कथा जो प्रथम बखानी। भीम कुंड से धार समानी।
वही धार जुडगुडू भुमानी। जोगी डाबर यहीं समानी।
भीम कुंड जल की तासीरे। वावन गंगा की तसवीरे।
जटाशंकरी नदी पुनीता। वही श्यामरी धार सुगीता।
या में कछू संसय करिये। कर अस्नान पाप तन हरिये।
कर अस्नान जुडगुडू आये। जोगी ज्ञान भक्ति समुझाये।
सिल पै दईं पछार दुनालीं। दीन मृगी पीरें उर साली।
राम मंत्र लै दई लॅगोटी। मुॅड मुड़ाय मूड अरू चोटी।
आसन धूनी वहाॅ रमाई। जगत कूप शाला बनवाई।
बाला जी मूरत पधराई। लक्ष्मण जी से प्रीत लगाई।
भक्त भये वाॅचहिं रामायन। मगन मस्त मेंहर गुन गायन।
मामा जू रामायन बाॅचे। ताल मिलाय भनेजा नाचे।
सागर कौ न घमंड रहो,नहिं काम परो जग नीर पिये कौ।
यातें घमंड करो न कोऊ, घनस्याम घमंड रहो न लिये कौ।
चैपाईः- साधु अवज्ञा जे नर करहीं। रौरव नरक कल्प सत परहीं।
करहिं संत कैजे अपमाना। तिन्ह पर रूठ जाहिं भगवाना।
अपने प्रभु कौ लख अपमाना। क्रोधवंत भै संत सुजाना।
कियो आचमन आसन मारी। साॅस लई सुमरे त्रिपुरारी।
फूको फूस जवे बैरागी। फौजदार ग्रह प्रगटी आगी।
लगी आग नहिं कोऊ वुझावें। ज्वाल कराल देख भय पावें।
सुनी खबर भूपत जब आये। अभिमानी के मान छुडाये।
कीन्ह दंडवत चरनन आगे। प्रानदान दीजे वर मागे।
संत हृदय नवनीत समाना। वेग द्रवहिं सो कृपा निधाना।
संत समान न कोऊ उपकारी। जग हित छोडे बाप मतारी।
दे उपदेश नरेश सिधारे। कुटी संत भगवंत पधारे।
राम भजन में रहे मगन मन। राम दरस की नित्त नई लगन।
सवैयाः-
संत वही जो इकंत रहे अरू, संत वही हरि के गुण गावें।
संत वही जो करै परमारथ, संत वही शुभ तीरथ जावै।
संत वही सुख में दुख में, रस येक रहै सिर जो दुख आवै।
संत वही न लरै न डरै उर, पीर हरै ’’दुज’’ शीस नवावैं।
(2) घोर विभूत पिये रूच सें, ललचावत ना हित दूध दही में।
आन पडै दुख औ सुख जो, भुगतें सिर जै सुख माने वही में।
इन्द्रिन कों बस में करके, मन चंचल जान चलै न कही में।
आनॅद से रस येक रहै ’’दुज’’, संत वही विचरंत मही में।
(3) प्रभु व्यापक है सचराचर में, अनवध्य अखंड अजै अविनासी।
जग कर्म प्रधान रचो जिसने, यह माया कहावत है हरि दासी।
रचना लख कें मत भूलिये जू, सब है लवरी पर देखत सांसी।
यह मानुष कौ तन पाय भलो, भजिये घनस्याम सदा सुख रासी।
दोहाः- साधु भये तीरथ करे, मामा राघो दास।
लगीं समाधें दुहुन की, सत्य नाम द्वारका दास।।
चैपाईः- यह शुभ चरित कहो मैं गाई। करामात साधुन की भाई।
महिमा तिरवैनी की जानो। भीम कुंड संगम उर आनो।
जटाशंकरी वावन गंगा। जोगी डाबर नदी तरंगा।
यह सब भीम कुंड की माया। सरित सरोवर बगरी काया।
जोगी डाबर के जो जोगी। सिध्य भये परसिध्य वियोगी।
हूॅका से चूका नहिं लागे। प्रमुदित भये राम रस पागें।
जब हो गई सयन की बेरा। दिया बुझाय दिया फर फेरा।
दोहाः- जब चेतन मामा भयो, दई भनेज गुहार।
काल ज्ञान कछु ना रहयो, प्रभु को भई अवार।।
रामायण के श्रवण को, आवत पवन कुमार।
दीप वुझा दो बात सुन, बोले हृदय विचार।।
सवैयाः-
बोहित पार उतारन को, भव सिन्धु के हेतु बनी पुल सी।
मानस ज्ञान प्रकासन को, सुख आतम मोेद लिये तुलसी।
संतन प्राण प्यारी सदा, सुर ईश के सीस चढ़ी तुलसी।
जग जीवन मूर सजीवन सी, ’’दुज’’ राम कथा विरची तुलसी।
चैपाईः- धन-धन तुलसी दास गुसाई। रामायण भव सेतु बनाई।
रामायण की महिमा भारी। जानत शेष ब्रम्ह त्रिपुरारी।
महिमा वरण सके कवि को है। रवि सन्मुख जुगनू किम सोहै।
रामायण से जिन गति मानी। राम भक्त ते भये पिरानी।
रामायण को जिन अपनाया। हनुमान की उन पर छाया।
रामायण चिंतामणि चारू। सब सुख करन हरन भव भारू।
रामायण मुद मंगल दैनी। कल मल हरण मातु तिर्वेनी।
महिमा कहैं लग तुम्हें सुनावें। मुख हजार के पार न पावें।
राम भक्त के चरित अगाधू। सुनिये सुजन कहंे जो साथू।
भक्त राज उत कुटी बनाई। हिय सन धूनी उतै रमाई।
बाचें कथा प्रभू पद सेवें। हनुमान जी हूॅका देवें।
येक दिवस के सुनिये हाला। चरित ललित सुन कथा रसाला।
प्राविट काल मेघ नम छाये। सुर भी हार चरन को धाये।
दिन की भई रैन अॅधयारी। चमकैं चपला वर्षा वारी।
नदी श्यामरी धार चढ़ी है। डूबी शाला और मढ़ी है।
दोहाः- गौ बछिया प्यासी रही, संतन दर्शन हेतु।
उतरानी पानी अगम, ढुॅड़े मिलै न सेतु।।
चैपाईः- ईश्वर अंस जीऊ लख भाई। संतन उठा कॅधान चढ़ाई।
वट तट विकट दिखानों पानी। कटि के निकट पहॅुच गौ पानी।
जान आपनी और पराई। लेखत येक धन्न ते भाई।
वट तर चढ़ै वीर सोई संता। बछिया ले सुमरे श्री कंता।
नदी बढ़ी देखी भये आरत। दीनबन्धु के नाम पुकारत।
हे प्रभु हार गये पुरूसारत। दीनन की सुध काहे विसारत।
प्रभु अस्तुत पद येक बनायो। ज्यों कौं त्यों सो तुम्हे सुनायो।
पदः- राजकुॅवर सुध कहे विसारत।
महाभारत भरई के अंडा। घंटा टोर दियो तह पारथ।
जब-जब कष्ट परो दासन पै। बचा लये कीन्हो पुरूसारथ।
कवित्वः-
कांप उठी धरती जब द्रोपदी पुकारी प्रभु,अंबर बढ़ाये मान धूसासन गारे है।
गज की सुन टेर ना अबेर करी दीनबन्धु,नक्र के वक्र सौ चक्र से विदारे है।
आरत प्रहलाद कार देख कें अधीर भये,चीर खंभ प्रगटे हिरनाकुश मारे है।
दीन दुख भंजन मिटाये दुख दीनों के,मेरी ही बेर नाथ वान क्यों विसारे है।
चैपाईः- रमा उठी बछिया अकुलानी। उत्तरी नदी उतर गयो पानी।
दोहाः- अब लग खॅडहर रूप में, शाला बनी अनूप।
भयो भूम सोई देखिये, ब्राज रहे सुर भूप।।
चैपाईः- अकसमात यक और सुनाऊ। संत चरित नहिं कहत अघाऊ।
ठाकुर के उत्सव नित करही। धर्म सनातन के अनु सरहीं।
फूल डोल की करैं तयारी। ठाकुर जी की कढै सवारी।
चलै जुडगुडू सें हरियाना। लहर ग्राम में परे विमाना।
लहर ग्राम से कोटा जावै। फौजदार नंदलाल कहावैं।
भक्ति रहो साधु सुर सेवी। पूजे गोंड़ न माने देवी।
संत समाज चार दिन राखै। दया भाव राखै सत भाखे।
अन धन ग्रह में हरि अनुकूला। माने संत नहीं प्रतकूला।
बढ़े घनै भैंसन के साॅगे। अत धन पजै बिना मुॅह मांगे।
भूप प्रताप बिजावर वारे। दीनी भूप प्रजा रखवारे।
राजर्षी भक्ति गुरू ज्ञानी। संतन की महिमा उन जानी।
सुनकें चरित भूप सुख पायो। ताकों कोटा ग्राम लगाओ।
फौजदार की पदवी दीन्ही। मदिरा चढ़ी राज रस भीनी।
दोहाः- नशा राज मद को चढ़ो, बढ़ो कछू अभिमान।
मान पान कीन्हो नहिं, मुरका दियो विमान।।
सवैयाः-
(1) उतरै मद हें गज राजन के, पशु और गॅमारन के इतने हैं।
धन बारन के तन वारन के, कुल वारन के जग में नितने है।
महराजन के दुतराजन के, रिषि राजन के न रहें कितने है।
सब के मद येक दिना उतरें, मतुआरे अजू तुमसे कितने है।
(2) रावण कौ न घमंड रहो, न घमंड रहो वलि दान दिये कौ।
कंस कौं वंस विनास भयो। फल वेग मिलो जू घमंड किये कौ।
चली स्यामरी धार भुमानी। सत्य भाॅत तन धार दिमानी।
तीर फोर गिर कंदर कीन्हें। सेहे सघन विपन नये चीन्हे।
नाम सुहावन भये सत धारे। ब्राजे सिध्य आसनी मारे।
सेहे सिंहन की गुजारें। देखी चार दुआर बहारें।
निर्मल तीर नीर की सोभा। वरन न जाय देख मन लोभा।
जित देखो तित भरी दहारे। भैंस गाय को नाहर मारे।
सघन विपिन गिर कंदर फूटे। परूआ मनहु फुहारे छूटे।
लता ललित विठपन लपटानी। कंुज मकुईयन की मन मानी।
अपरना देखी घनी डॅगाई। देखी सत धारे की भाई।
निर्जन वन लख झाॅई बोले। वीर अहेरन के जिय डोले।
दोहाः- जन श्रुत द्रगन विलोक, कछु वर्णी कथा सुजान।
भारत की वन पर्व में, अरवा चीन प्रधान।।
इति श्री भीम पुराणे महाभारतान्तर्गत कथा वनपर्वाणी जुडगुडू स्थान महिमा वर्णनो नाम दसमोध्याय 10
दोहाः- अब ग्यारह अध्याय में, सिध्यन की करतूत।
सिध्य भये पर सिध्य जग, सिध्यन दई विभूत।।
चैपाईः- सिध्यन के अब सुनिये हाला। करामात शुभ कथा रसाला।
येक अहीर देवरावासी। गाय चरावन गयो विलासी।
पशु पनखुवा खोह भराये। वहां तिनुका हार चराये।
चरवा महुआ खाये बन मे। नीर पिअनकी आई मन मे।
झिरत टोर तर देखो पानी। गढ़ी चीकनी चीप दिखानी।
जाय समीप चीप सर काई। गुफा द्वार यक दियो दिखाई।
जात अहीर होत कछु भोरी। धॅस्यांे भीतरे मन मे औरी।
गयो भीतरै धॅस मत धीरा। देखो कुंड भरो गंभीरा।
धूनी तहाॅ लगी अबलोकी। सिध्य नाथ लख भयो विशोकी।
जटा जूट आनन पै झलकै। द्रगक मूॅदे झुक आई पलकें।
भाल विभूत खौर छव छाजै। हिंगलाज की माल विराजै।
तेजवंत सूरज से आनन। कंठ जनेऊ मुद्रा कानन।
पुस्तक धरी साम्हने गीता। शिव-शिव जपहिं राम अरू सीता।
दोहाः- धरे बेल फल केल फल, भरें कटोरन छीर।
वर्तन धरे कपाल के, पहरे बल कल चीर।।
चैपाईः- मृग छाला आसन आसीना। चरन पादुका जड़े नगीना।
भयो अहीर अधीर निहारी। सिध्यनाथ द्रग पलक उघारी।
भूलो कहाॅ फिरै रे बालक। कौन गाॅव कौ है पशु पालक।
हाथ चीपिया कंगन झोरी। भाल विभूत लसै पुन खोरी।
केल पत्र की लगी लॅगौटी। बेल पत्र सिर सोहत चोटी।
हाथ कमंडल जल से पूरे। झल-झल झलकें केश लटूरे।
देख सिध्य बाबा की आवन। परै किसान धायकें पाॅवन।
नापत रहो अनत ना हेरौ। लगै टौरिया कैसो ढेरौं।
अस कह सो वन भीतर गये। अंतर ध्यान पनखुवा भये।
दोहाः- नापत-नापत रास के, उन्हे भई अधरात।
पीछै चितये रास के, भई टौरिया रास।।
चैपाईः- नपी रास ग्रह धरी ढुबाई। देख टौरिया रहे पछ ताई।
सिध्य टोरिया अवै कहावैं। ग्राम कुपी के निकट दिखावैं।
सोई सिध्य सिद्धि के दाता। ज्ञान निधान ब्रम्ह के ज्ञाता।
पारस भूम तपौवन नीके। शैल विशाल देवता जी के।
भरे सुधा सम सरिता नारे। कंद मूल फल असन प्यारै।
आसन वाॅस चीर बल कल के। छीर खीर श्री गंगा जल के।
कुंद कली हॅस सेज विछावैं। विजना विविध समीर डुलावें।
विन्ध्याचल की गहन तराई। जंगल मंगल देश सुहाई।
धरे ईश मानुष अब तारा। किये अनेकन भाॅत विहारा।
अब लग सो फत्ती पखान के। बछड़ा नामी होत भान के।
वर्तमान के सिध्य निहारे। मौजी बाबा जसू विचारे।
दोहाः- ग्राम लहर में सिध्य भयै, अतिप्रसिद्ध दुज देव।
सिध्यन के परताप सों, सिध्य कथा सुन लेव।।
चैपाईः- सिध्य भई सिध्यन की धूनी। अब लग गादी रहै न सूनी।
ब्राम्हण जसू इतै भये साधू। उनके चरित विचित्र अगाधू।
माखनदास येक पुन संता। ब्राम्हण रहे बड़े खिलयंता।
राम कथा से प्रीत घनेरी। गाबें भजन लगावें फेरी।
ब्राम्हण भोजन करे भंडारे। हरि-हरि कथा करावें प्यारे।
पाठक रहे विप्र कुल भूषण। कछू मातु में कीन्हांे दुषण।
गोधन रहे रहे यक बाखर। वरधा बॅधे धरी घर बाखर।
बंड़ा हने धरे कोदन के। भारी झोर रहे गोधन के।
पिता विप्र सुरधाम सिधारे। जननी जन में दो सुत वारे।
मिठ्ठू जसू नाम धरवाये। बड़े भले परजन सुख पाये।
दोहाः- सुख भोगे कछु देह के, परी विपत पुन आय।
गोधन अन धन धन सवै, ते सब गये बिलाय।।
चैपाईः- छोटे से हरि पद रति मानी। भगे विदेशन देंख गिरानी।
मैं देवरा कौ नाथ अहीरा। आयो पियन पनखुआ नीरा।
सिल इक टिकी देख हुमसाई।गुफा द्वार महिं दिये दिखाई।
गाय छोड़ भीतर धॅस आयो। अब न द्वार इत मिलत मिलायो।
अचरज देख भूल गयो स्वामी। कृपा करहु उर अंतरयामी।
सिध्य नाथ हॅस बोले वानी। कितनी तोरें गाय वियानी।
ग्याभन नही वियानी नैयाॅ। पॅूछ न येकहु बछियाॅ गईयाॅ।
स्यामा गाय येक विन व्यानी। कढ़त पसेवन बॅूदा पानी।
सिध्यनाथ सुन मन मुस्क्याने। भोरी जात अहीर अजाने।
दोहाः- धीरज धर डर मत अरे, वर ले माॅग अहीर।
कवहूॅ कमती होय ना, तूमा भर दे छीर।।
चैपाईः- महाराज अन व्यानी गैया। कैसे लगहै बिना लवैया।
सिध्यनाथ बोले मुस्क्याई। दुह दे स्यामा गाय लबाई।
तूमा लै जब गयो दुआरें। स्यामा श्रवत दूध की धारें।
भर तूमा लै गयो अहीरा। पियो सिध्यनाथा सोई छीरा।
गोधन की महिमा समझाई। जग में फैल रही प्रभु ताई।
जर जमीन जननी जग जानों। जनम भूम सुख दान बखानो।
चार पदारथ धरनी देवें। अपने सीस भार धर लेवें।
गौ समान नहिं कोऊ उपकारी। चार पदारथ देत विचारी।
मानुष तन धर गौ के हेता। आये तज प्रभु सृष्टि निकेता।
रघुबंसी दिलीप महिपाला। फिरे चरावत गाय गुपाला।
कामधेनु मुनिवर की प्यारी। दर्शन हेतु देत फल चारी।
दोहाः- गौ रक्षा जे जन करहिं, उन सम धन्न न कोय।
गौ गोचर धन की कथा, गोवर्धन ग्रह होय।।
गौ रक्षा वर्णन करों, सुन गुपाल चित लाय।
सुने गुनै पातक हरहिं, गौ गोधन बढ़ जाय।।
सवैयाः-
श्रुत कुंडल गोल कपोलन पै, अनमोल सुडौल रहे अति प्यारे।
कटि में पट पीत खुसी मुरली, मुरली धर के सम हैं तन कारे।
हित हारन की ’’दुज’’ देख अपार, सु लाजत अंग अभंग निहारे।
अस रूप अनूप बनाय बसो, हिय मेरे सदा पियरे पट बारे।
कवित्वः-
(1)गौ के परताप जगत बीच सभी तत्व थमें,गौ के परताप शेष धरनी सिर धरत है।
गौ के परताप मेद्य वर्षत है धरन माह,गौ के परताप सुक्ख सबहू करत है।
गौ दुज परताप राज काज करे राजा सब,गौ के परताज बली होय विचरत है।
गौ कौ परताप लिखो वेद और पुरानन मे,गौ के परताप से सु भव को तरत हैं।
(2) गौ हित नारायण गोपाल बने नंद ग्रह,हाथन चराय धाय वन मे फिरत है।
खाय दूध माखन तन पुष्ट ह्वै,हने दुष्ट,निश्चर संघार गौऊ रक्षा करत है।
भने घनस्याम येक बात सो जन और,े जन बिना गौऊ काम जग कौन के सरत है।
ऐसी गऊ दीन बैंच बिसरआत जेते नर,तेते बिन मौत के जु आप ही मरत है।
(3) गौ के सुत जीत जीत काम देत सकटो मे,मीके सुत जोत-जोत खेती को करत हंै।
गौ के हू गोबर से आॅगन सुच चैक लीपें,गौ के दही दूध से सु पेट को भरत है।
घी से पकवान पुरी खाजे औ कचैरी करें,घी की मिठाई खाय भारी तन परत है।
ऐसी उपकारी गऊ की सुने न पुकारी कोऊ, हाय दै कसायन कर हत्या सिर धरत है।
(4) भारत के वासी नर नारी सब सोचो मन,देखो विचार काम सौ सौ सरत है।
कादर कसैया सुनो सीस गाय मैया के,वे जीउ है बचैया जे धर्म को धरत है।
तासे उतसाह करो सेवा करो गौवन की, जग में यह मुख्य कर्म धर्म को जे करत है।
कठिन कराल सिन सार धार दुस्तर को,गौ के परताप से सु गोविन्द यों तरत है।
(5) लगी थी क्रशानु वन चारहु दिशान आन,प्रान बिना धाये लै बचाये प्रान ग्वाला ते।
सूर सुता कूल जाय पानी जल जान,पियौ विष की समान मरे प्रान गयो छाला तें।
जबहूॅ बचाय लियो लैगो चुराय ब्रम्ह,हाथन चराय नित्त किन्हो प्रत पाला ते।
भूलगे गुपाल किधों सुनी न गुहार नाथ,लीलिये बचाय गऊ सिंह कलिकाला तें।
दोहाः- सुन अहीर उर धीर धर,स्यामा तेरी गाय।
येक अकेली सें बगर, जा तेरौ बढ़ जाय।।
चैपाईः- देह दूध गाय विन व्यानी। बगर बढ़ै नित चलै मथानी।
गौसर लाय चराबहु अपनी। खुल गई हिये ग्यान की झपनी।
हाल गाॅव मे बता न दैयो। जो कै हौ तौ पुन पछतैयो।
आॅखे मॅूद देव अब भाई। देखौ जाय बगर ग्रह जाई।
आॅखे मूॅद बगर ढिंग आयो। लोगन को सब हाल बतायो।
देखत भये ग्राम के स्याने। फिरत गुफा के द्वार दिखाने।
अब लग सो अहीर ग्रह माही। दूध मठा की कमती नाही।
दोहाः- नगर बढ़ो मारौत कौ, बगर-बगर की थान।
नगर डगर चरचा चली, कगर सिध्य अस्थान।।
चैपाईः- अपर येक सुन हाल पुरानों। करामत सिध्यन की जानो।
ग्राम कुपी के पास टौरिया। हार गेवड़ा नाम गोरिया।
उरद खेत अति सुुंदर नीके। धरी रास ज्यों गगरा घी के।
पुलियन करें किसान नपाई। हीसा न्यारे धरे लगाई।
सत धारे की गुफा निहारी। करी पनखुआ ओर सवारी।
चरन पादुका चट पट होवे। गंगजन से नीर निचोबै।
संतन की उन धूनी टारी। शुभ तीरथ कर बने भिखारी।
भये संत आये दोहु भाई। जन्म भूम जहॅ कुटी बनाई।
भयो येक पागल महि डोलै। येक प्रेम की गाॅठ न खोलै।
जसू लई गौधन की सेवा। भये निहंग वने जिन देवा।
करहिं प्रीत साधुन सें पूरी। हरि की कथा बढ़ी रूच रूरी।
गेह देह कौ नेह न जाने। बैर प्रीत अनहित ना माने।
मगनमस्त अजगर से रावैं। भय की भय से भय ना खाबै।
बाल ब्रम्हचारी ते नीके। परचै लये अनेकन जी के।
भूत प्रेत से डरंे न राई। चिता भूम जहाॅ रात बिताई।
खंडहर खोह नदी गिरकंदर। बोले झाई डरावै बंदर।
अगम गुफा के धसे सु अंदर। करे निवास जान निज मंदर।
नख धारी से नहीं डरावें। विष धारी को पकर खिलावें।
सवैयाः-
मृग साबक चारहु ओर फिरंे,विहरंे खग वायु बहै सुख दाई।
सरिता तट कोमल रेत बिछी,अमरायन की प्रति शीतलताई।
द्रग मूॅद के ध्यान धरे हरी के,हिय मे सुमरें प्रभु की प्रभुताई।
जग से नहिं काम इकंत रहै, घनस्याम वही जग-जोगी है भाई।
(2) अंग विभूत जटा सिर सोहत,मोहत हें मन बोलत वानी।
कानन मे मुदरी गुदरी तन, ओढ परे जु कुबेर की शानी।
भेष दिगंबर अंबर ना कर,दंड कमंडल की रजधानी।
अघ नासन ज्ञान कहै मुख से,घनस्याम वही जग भक्त गियानी।
दोहाः- षट विकार में येक नहिं, नहिं जिव्हा के स्वाद।
मगन येक रस में सदा, हरे परोक्ष विवाद।।
चैपाईः- बाबा जसू रहे मन मौजी। तासें नाम धरो जग मौजी।
दर्शन हित बछिया यक लीन्ही। तन मन धन से सेवा कीन्ही।
येक रास की दस भई रासें। दस की बीस तीस भई तासें।
नाटें बेच गुजारौ करहीं। कुटी बनाय न जग से डरहीं।
वन में जाय चरावें गैया। वन फल खाय बैठ तरू छैयां।
कूका दै जब कब दै टेरें। गाय धाय कें बाबा घेरें।
अपने हाथन तिने चरावें। चूमा लै मुख जटा चटावें।
चुच कारें पुच कार खिलावें। डाॅसन काटें पॅूछ हलावै।
बहु प्रकार सेवा नित करहीं। छीर खीर से निज उर भर हीं।
दोहाः- थान स्वच्छ राखहिं सदा, मूत्र न गोबर लेश।
तन मन से सेवा करें, धरे साधु के भेष।
भीम कुुंड की महिमा भाई। जैसी सही सो तैसी गाई।
भीम कुंड संगम तिरवैनी। सिध्य भूम सुर धाम नसैनी।
धार घोघरा धार समानी। मौनीसैया प्रगट दिखानी।
जटाशंकरी भई भुमानी। जोगी डाबर के सोई पानी।
मिली जुडगुडू धार श्यामरी। पुन सतधारे परे पाॅवरी।
मिले अनेकन नदिया नारे। तीर बरानन के अति प्यारे।
संघ जुरो ग्यारह सरिता कौ। ग्राम सिधौरा भीम सुता कौ।
जा घटना है झूठ न भाई। परसे काहॅू कहै रस आई।
क्यान मान अभिमान गलानी। गई बाॅदा के निकट भुमानी।
चिल्ला भारी घाट सुहावन। मिली अंत गंगा सुख पावन।
सो गंगा गई पहुॅच प्रयागा। तीर्थ राज लख तिय अनुरागा।
येकादस सरिता तहॅ लैकंे। गंग समानी डूवा दैकंे।
धार हजार भई जग आगर। मिली जाय पुन गंगासागर।
जिनके सुमरत ही अघ नासो। गंगा वही जगत परकासैं।
चरित भीम कौ ललित बखानौ। सुनो गुनो जैसो कछु जानौ।
यह सुन संसय करै न कोई। कहे राम जस तस तहॅ होई।
दोहा-कुडलियाः-
सिध्य भूम सिध्यन करी,रिद्य सिद्धी पर सिद्ध।
सफल होत मन कामना,अपर देत नव निद्ध।
रोलाः- अपर देत नव निध्य,भूम भारत की माता।
हिन्द प्रजापत वीर धीर,जिनके गुण गाता।
वर्णे ’’दुज घनश्याम’’,करे सेवा कुल पदकी।
प्रजा सुराजी होय जगत में,कर प्रति सिध की।
दोहा-कुडलियाः-
राज सुराजी हाॅय न्रप,प्रजा बसै सानंद।
ग्रह ग्रह मंगल होय नित,कृपा करें ब्रज चंद्र।
रोलाः- कृपा करे ब्रज चंद,चन्द्र ग्रह ग्रह भुज जानो।
संवत लेहु विचार, बार रवि बार बखानो।
वर्णे दुज घनस्याम,माघ उजयारी साजी।
भीम कुंड की कथा,दोज दिन कही सुराजी।
दोहाः- शुभ पुराण भीमा रचो,दास सुवुद्धी पाय।
कहत सुनत पातक नसै, अघ दीरघ दुख जाय।।
चार वरन मै जो सुने,तरूणी पुरूप जो कोय।
प्रगटे हरि की भक्ति उर,अघ मोचन सो होय।।
जटा सीस रूद्री गरे, मॅुदरी कानन माह।
कॅधा धरें गुदरी फिरंे, चित मे चिंता नाह।।
सवैयाः-
(1) द्रग मूॅद कुशासन आसन पैं,हरि ध्यान धरें सुमरें सुखदानी।
विचरें जग जीवन ब्रम्ह मई, मुख सो हम सो हम की मृदु वानी।
सुख औ दुख व्यापत ना जिनको,मन भीतर ना अघ लेस निशानी।
विचरें मन मौजिन में अपनी,घनस्याम वही गुरूदेव गियानी।
(2) कबहॅू विचरें वन बागन में, कबहूॅ धॅस जाये पहारन मंे।
कबहूॅ जल भोजन त्याग करे,कबहूॅ धॅस जाय दहारन में।
कबहॅू हॅस खेल करें मिलकें,कबहॅु धॅस जाये महारन में।
मन मौजिन मे ’’दुज’’ योगी रहे,उनके दिन जाय बहारन मेें।
चैपाईः- करामात सिध्यन की देखी। अचरिज मन मे ना कोऊ लेखी।
सिध्यन कौं मेला यक भारी। लगै बिजावर शैल मझारी।
रितु आषाढ़ की पूरनमासी। गये संत मुद मंगलरासी।
गई महरानी मेला देखन। नर-नारी तहॅ जुरे अलेखन।
जीवन धन अब लग नहिं वर्षे । नीर विहीन जीव पिक तर्से।
पूरन भक्त बड़ी महरानी। जिन की कीरत अचल दिखानी।
भल मल थान लॅगोट सुहाये। मौजी को भोजन कर वाये।
झिरना झिरत रहे जहॅ वारी। सूखी डरी सु भूम निहारी।
पानी बिन सब लोग निहारी। हरि अष्टक तब कहै गुहारी।
कवित्तः-
(1) हा हा कर धावत किसान चहुॅ ओरन से,मोरन सम ता के घन घोरन तरसाऔ जू।
सूखै जो धान जान जै है पशु पक्षिन की,जग के सब जीवन के जीवन हरसाओ जू।
व्याकुल जन हीन दीन मीन ज्यों थोरे जल,ऐसी गत देख बैग पहुमी सरसाओ जू।
पानी बिन पानी ना रै है जिदंगानी ’’दुज’’,पानी बरसाऔ नाथ पानी बरसाऔ जू।
(2) रात के तरैयाॅ दिन बादर दिखावंे कछु,धरती ना गिरत बूॅद काहे तरसाओ जू।
पैसा लयें फिरंे अन्न कोई ना बतावत हैं,सूखन सब लगे खेत उनको सरसाऔ जू।
भूखन औ प्यासन धन गौवन कौ सीजत है,सुन के गुहार प्रभू उनकौ हरसाओ जू।
पानी बिन पानी ना रै है जिदंगी ’’दुज’’,पानी बरसाऔ नाथ पानी बरसाऔ जू।
(3) कैधो राम सेवा में मग्न भये वीरध्वज,कैंधो इस लोक संे जू बैठे मुख फेरी है।
कैधों अब बूढ़े भये नैनन संे देखो ना,आरत जन टेरें जो सुनी नही टेरी है।
कैधों बल थाको कै रमणी संग केल करो,राच्छस गण लरत कहुॅ कैंधों कहुॅ धेरी है।
पानी बिन बात जात,जन की ना बात जात,भाखें ’’दुज’’ बात जात बात जात तेरी है।
(4) बड़े-बड़े संकट अनेक टरे,नाम लेत दारिद दुख दूर भये लगाई यक टेरी है।
बड़े-बड़े असुरन को मारो संघारो तुम,बड़े-बड़े काज करे करी ना अबेरी है।
बूढ़े भय लूले भये बज्र कछु थाको तन,ना ही उर डरे सुनी ना ही जन टेरी है।
जबरई कर इन्द्र से सो पानी बरसाओ नाथ,ना ही ’’दुज’’ बात जात बातजात तेरी है
(5) जौलो राम राजा रहे तौ लौ दुख व्यापो ना,वर्षे जल मागे बिन अन धन की देरी है।
तुमको दै राज सो सिधारे साकेत धाम,अवलोके सुनत रहे तुम हूॅ जन ढेरी हैै।
जानो नहिं जात कौन पाप उदै पूरव के,भारी दुख दुखी प्रजा भूख प्यास घेरी है।
कीजिये सहाय वेग हॅसी ना कराऔ दुज,मेरी नहि हॅसी होय हॅसी होय तेरी है।
(6) जैसे सुग्रीव के मिटाये दुख दीरध ये,सागर उल्लंघ कियो राम जू कौं काज है।
जैसे वीर लक्ष्मन के प्राण को बचायो है,द्रोणाचल जाय कें बुलाये वैद राज है।
साॅचै राम बाण की समान है प्रमाण,भान तेज तरूण सूरज से पूरे सिरताज है।
अब तौ घनश्यामदास आस करे तेरी प्रभु,दीनन की दीनबन्धु आप तुम्हें लाज है।
(7) जैसे सुध सिंधु लाॅघ सीता की लाये कपि,निश्चर संघार अब लंका पुर दीन्ही है।
जैसे सुध लछमन की लैकर लियाये मूर,काल नेमि मार ताह कपट रूप चीन्ही है।
लैगो पाताल अहरावण हर रामानुज,आहुत दै मुंड काट खंग जाय छीन्ही है।
ऐसी सुध लीजिये हमारी वीर अंजन के दुज,कांें अवलम्व सो विलम्ब कस कीन्ही है।
दोहाः- वीर लॅगोटी चीर के,चीर चीर कर दीन्ह।
येक चुरू भर मूत्र निज,मौज पान कर लीन्ह।।
चैपाईः- अकस्मात नभ धन घिर आये। अॅधा धुंध वर्षे मन भाये।
भये सरवोर सवै नर नारी। कला मौज की मौज निहारी।
अचरज होत भयो सब काहूॅ। देख प्रसन्न भये नर नाहूॅ।
महाराज दोंडी पिट वाई। बड़ी भोज ने मौज दिखाई।
जे बजार की वस्तु उठावंे। रोक टोक बिनमोलन पावें।
विचरें मन मौजिन मे अपनी। लिये चीपिया झोली कफनी।
जात पात कौ भेद न राखंे। महाप्रसाद भाव रस चाखें।
संतन येक यज्ञ कर वाई। साला बीच जुडगुडू भाई।
भोजन करन संत सब लागे। मौजी मौज देख अनुरागे।
संत गये भोजन कर जब हीं। परीं पातरे बाहर तब ही।
स्वयं हाथ में देखी पातर। मौजी पूछ उठे कर खातर।
बोली स्वपच राख मरयादा। महाराज है सीत प्रसादा।
सुनत बात पातर सो लूटी। खान लगे सीमा जग टूटी।
शेष गनेश महेश भवानी। कहत साधु महिमा सकुचानी।
दोहाः- चरित अनंतन साधु के,का वर्णे मुख येक।
शेष पार ना पावहीं,जिनके सीस अनेक।।
चैपाईः- कछु वर्णी निज मति अनुसारा। पावन गिरा गंग की धारा।
भीम सैन वनवास की,भारत कथा पुनीत।
प्रथम खंड पूरण भयो,लिखो चरित्र विनीत।।
वर्णे ग्रंथ जु श्याम घन,निज मन के अनुसार।
भूल चूक क्षमि है सुजन,कविता समुझन हार।।
छप्पैः-
मधु कैटभ कुल हन्यो,हन्यो हिरणाक्ष अघासुर।
हिरनाकुश जिहिं हन्यो,हन्यो केशी कंसासुर।।
बन्धु सहित दशकंध हन्यो,वृत्तासुर जिहिवर।
नरकासुर जिहि हन्यो,हन्यो शिशुपाल अघम घर।।
सुन धर्म कर्म रक्षा करन,महिमा नहिं जानी परै।
त्रैलोकनाथ ’’घनस्याम’’ कह,पढ़त सुनत रक्षा करै।।
दोहाः-नगर बिजावर बसत है,जहॅ लोहा की खान।
दुज कवि कौ अस्थान तह,मानहु चतुर सुजान।।
छंदः-
भारत खंड बुॅन्देलखंड बिच, नगर बिजावर जानो।
न्रप सांवत सिंह जहॅ राजा,धर्म शील सो मानो।
भैयालाल पुरानी पांडे,जहाॅ बसंै सुख दाई।
भूप भान परताप सिह को,जिन हरिकथा सुनाई।
तीन पुत्र तिनके ये है सो, उनके नाम सुनी जे।
जेठे सालिगराम,मध्य के रामचन्द्र लख लीजे।
लहुरौ मैं घनस्याम,कहाबत कृपा दीन पै कीजे।
राधा कृष्ण बसे हिय मेरे,यह वरदान सु दीजे।
दोहाः-शुक्ल पक्ष रविवार तिथि,दोज माघ शुभ जान।
भुज ग्रह ग्रह विधु विक्रमी,विरचो भीम पुरान।।
विक्रमी संबत 1992
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